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भजन गायक अनूप जलोटा ने कहा-धर्म के साथ व्यावसायिकता का जुड़ना घातक नहींभजन गायन के क्षेत्र में अनूप जलोटा एक प्रतिष्ठित नाम है। हमने उनसे भक्ति, भक्ति चैनलों और भक्ति के बढ़ते बाजार के बारे में बात की। यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के मुख्य अंश-क्या आज के बदलते आधुनिक दौर में व्यक्ति के लिए धर्म का महत्व है?धर्म तो हमारे रोम-रोम में बसा है। और जो चीज जीवन से, हमारी आस्था से इतनी जुड़ी हो, उसे हम देखना-सुनना पसंद करते हैं। लोगों के मन में एक शिकायत थी कि टेलीविजन पर बाकी सब आता है लेकिन भक्ति का पहलू गायब है। उनकी चाहत थी कि सुबह जब सोकर उठें तो किसी संत के दर्शन हों, किसी तीर्थ के दर्शन हों, कानों में प्रभु का नाम सुनाई दे। गांव-गांव से यह मांग आनी शुरू हुई तो इस मांग पर ध्यान देते हुए लगभग दस साल पहले दूरदर्शन ने इस दिशा में कदम उठाया। उसके बाद निजी चैनल आ गए, उन सबने महसूस किया कि अगर सुबह धार्मिक कार्यक्रम नहीं दिखाए गए तो लोग सुबह टी.वी. देखेंगे ही नहीं। सुबह उठकर कोई भी दलेर मेहंदी या अदनान सामी को नहीं देखना चाहता। लोगों की मांग को देखते हुए 24 घंटे के चार-चार भक्ति चैनल शुरू हो गए और अभी और आने वाले हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति और आध्यात्म लोगों का प्रिय विषय बनता जा रहा है, तभी तो और चैनल आने वाले हैं। यह तो सभी जानते हैं कि चैनल चलाने के लिए कितनी बड़ी रकम चाहिए। उन्हें विश्वास है कि धार्मिक चैनल चलाकर वे उस खर्चे को ही पूरा नहीं करेंगे, उससे लाभ भी कमाएंगे।इस वातावरण देखकर क्या आपको लगता है कि व्यक्ति पुन: धर्मोन्मुख हुआ है?निश्चित रूप से इन भक्ति चैनलों के माध्यम से एक सकारात्मक आध्यात्मिक आंदोलन शुरू हुआ है। लोगों में आस्था पैदा हुई है। एक अच्छा इंसान बनने की इच्छा जन्मी है।आपके भजनों के कार्यक्रम बहुत पहले से होते रहे हैं और उनमें श्रोताओं की संख्या भी अच्छी-खासी रही है। क्या पहले से आज तक इस संख्या में कोई परिवर्तन हुआ?15-16 साल की उम्र से मैं भजन गाने लगा था। तब मेरे साथ-साथ मेरी उम्र के छात्र “पायो जी मैंने राम रतन…” और “ठुमुक चलत रामचन्द्र…” गाया करते थे। मेरे परिवार में भजन गायन की परम्परा रही है। मेरे पिता श्री पुरुषोत्तम दास जलोटा को इस साल भजन गायन के लिए पद्मश्री मिला है। पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी को भजन गायन के लिए पद्मश्री मिला। अब भजन गायन के लिए द्वार खुल गए। और भजन तो भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। मैंने अपने कार्यक्रम में भारत में एक लाख से ज्यादा दर्शकों की उपस्थिति देखी है। इंग्लैण्ड और अमरीका में भी 30 से 35 हजार लोग मेरे कार्यक्रमों में आए हैं।गायकी के लिए आपने भजन की विधा को ही क्यों चुना?गायन की सबसे प्रभावशाली विधा है भजन। इसमें हम शास्त्रीय संगीत के राग तो गाते ही हैं, संतों की वाणी भी गाते हैं। संतों की वाणी गाने से जीवन का संदेश लोगों तक पहुंचता है। भजन से ज्यादा उपयोगी और शाश्वत संगीत कोई और हो ही नहीं सकता।भजन गायकी का भविष्य आप कैसा देख रहे हैं?बहुत उज्ज्वल भविष्य है। और मैं ही नहीं, टेलीविजन चैनल व्यवसाय की दुनिया के लोग भी ऐसा ही मानते हैं।क्या इससे यह नहीं लगता कि धर्म के साथ व्यावसायिकता जुड़ती जा रही है?यह तो है ही। जब कोई भी चीज बहुत लोकप्रिय होती है तो समाज का एक वर्ग उसका व्यापार करने लगता है। जैसे रजनीश आश्रम बना तो उसके साथ-साथ एक व्यापारिक पहलू भी जुड़ गया। सत्य सार्इं बाबा की लोकप्रियता बढ़ी तो उनके सीडी, कैसेट और पुस्तक प्रकाशन का व्यवसाय भी जुड़ गया। और यह व्यापार बढ़ता जा रहा है।क्या धर्म के साथ इस तरह व्यावसायिकता का जुड़ना घातक नहीं है?बिल्कुल घातक नहीं है। क्योंकि एक वर्ग ऐसा है जो अपने पूज्य संतों, गुरुओं को देखना चाहता है, उनके प्रवचन सुनना चाहता है, आत्मिक संतुष्टि चाहता है। इससे लोकप्रियता और ज्यादा बढ़ती है, लोग और ज्यादा आकर्षित होते हैं।धर्म का प्रचार-प्रसार दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, भक्ति चैनलों की स्वीकार्यता बढ़ी है, इसका मुख्य कारण क्या है?भक्ति चैनलों की स्वीकार्यता का एक बड़ा कारण है कि इन्होंने लोगों को धर्म का अर्थ बड़ी सरलता से समझाया। जरूरत है कि इन चैनलों पर सभी मत-पंथों के बारे में चर्चा हो, जिससे लोग उनको भी गहराई से समझ सकें।28
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