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निकास चुनाव की हकीकतदीनानाथ मिश्रयेनिकास मतदान क्या होता है? सरकारी भवनों और गैर-सरकारी बंगलों में भी एक प्रवेश होता है और दूसरा निकास। मतदाता जब मत देकर निकलता है तो सर्वेक्षण करने वाली कम्पनियां उससे नाम-पता पूछे बगैर सिर्फ यह पूछ लेती हैं, आपने किसको वोट दिया? चुने हुए क्षेत्रों और मतदान केन्द्रों में यह पूछताछ होती है। सबसे नहीं, समझिए हजार में से एक से। और चावल के इस एक दाने से ये अनुमान लगाते हैं कि कहां किसकी खिचड़ी पक रही है। कम्पनियां जिसकी खिचड़ी पकवाना चाहें, पकवा देती हैं। पिछले दो चुनावों में टी.वी. कम्पनियां और अखबारी कम्पनियां मिलकर सर्वेक्षण करवाती रहीं हैं, अर्थात् एक टी.वी. कम्पनी, दूसरी अखबारी कम्पनी और तीसरी सर्वेक्षण कम्पनी। चावल के एक दाने पर उड़ती चिड़िया के पर भी गिन लेते हैं और गंतव्य भी जान लेते हैं और बड़े जोर-शोर से डंके की चोट पर ऐलान करते हैं कि फलां चिड़िया नम्बर-एक पर है और फलां चिड़िया नम्बर दो पर। इतने निकास मतदानों को बारीकी से देखने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पार्टियों को चुनाव जीतने के लिए अलग यज्ञ करना चाहिए और निकास मतदान के लिए अलग। चुनाव जीतने के लिए तो 65 करोड़ मतदाताओं और उनकी विविधताओं को ध्यान में रखना पड़ता है और निकास मतदान के छह तिया अठारह कम्पनी मालिक काफी होते हैं।जहां तक भाजपा के चुनाव प्रबंधन का सवाल है, उसे चुनाव जीतने की रणनीति तो आती है मगर निकास मतदान जीतने में वह हमेशा फिसड्डी रहती है। इस चुनाव से पहले हुए राज्यों के चुनाव की बात लीजिए। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव तो जीत गई, मगर सर्वेक्षणों और निकास चुनाव में हार गई थी। कांग्रेस सर्वेक्षण से लेकर निकास चुनाव तक जीतती रही। पूरे एक महीने तक भाजपा हारती रही। अंत में जीत गई। राजस्थान का मामला लीजिए। “आउट-लुक”, ए.सी. नेल्सन सर्वेक्षण में कांग्रेस जीत गई। उसको 200 में से 113 विधानसभाई सीटें मिल गईं। भाजपा हार गई। उसे फकत 67 सीटें दी गईं। “आज तक” -ओ.आर.जी. मार्ग सर्वेक्षण में कांग्रेस 130 सीट लेकर सरकार बनाती नजर आई। जी.टी.वी., सी-वोटर ने अशोक गहलोत को 112 सीटें देकर राजतिलक कर दिया और भाजपा को 80 सीटों में समेट दिया। अब आइए राजस्थान के निकास चुनाव पर। इन तीनों सर्वेक्षण कम्पनियों ने निकास चुनाव में त्रिशंकु सरकार बनाई। मगर कांग्रेस का पलड़ा सबने भारी रखा। भाजपा दूसरे स्थान पर थी। जब मतों की गिनती हुई तो भाजपा को 120 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 56। इसका एक ही मतलब है कि राजस्थान के 200 सीटों के कई करोड़ मतदाताओं का प्रबंधन करने में तो भाजपा आगे थी मगर छह तिया अठारह लोगों का प्रबंधन करने में वह फिसड्डी साबित हुई।यही कहानी छत्तीसगढ़ की है। इन्हीं तमाम कम्पनियों ने सर्वेक्षणों और निकास चुनाव दोनों में कांग्रेस की जीत का डंका बजाया । अलबत्ता चुनाव में भाजपा को 50 और कांग्रेस को 37 सीटें मिलीं। 230 सीटों वाले मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जी.टी.वी., सी-वोटर ने 70 पर पहुंचाया और आज तक ने 65 पर। निकास चुनाव में भी आज तक 65 पर ही कायम रहा। अलबत्ता स्टार न्यूज ने कांग्रेस को 71 सीटें दे डाली। मतगणना के बाद कांग्रेस को सीटें कितनी आईं फकत 38। इसीलिए मैं कहता हूं कि चुनाव के लिए भाजपा को अलग यज्ञ करना चाहिए और सर्वेक्षण और निकास चुनाव के लिए अलग।अब दूसरे दौर के चुनाव के बाद इन छह तिया अठारह कम्पनियों ने भाजपा का पलड़ा हल्का कर दिया। मगर उतना हल्का नहीं किया जितना राजस्थान वगैरह में किया था। लेकिन अभी दो तीन दौर बाकी हैं। अभी और हल्का करने की गुंजाइश है। कांग्रेस की हौसलाबुलंदी कवायत अभी और आगे चल सकती है। लग गया तो तीर न लगा तो तुक्का। परिणाम उलटे आने पर यह छह तिया अठारह कम्पनियां शर्मसार नहीं होतीं। लीपापोती करती हैं कि हमने तो 3 प्रतिशत गलती की बात पहले ही कह दी थी। आंकड़े का डंका सौ बार पीटते हैं और 3 प्रतिशत गलती की बात एक बार कहते हैं और वह भी फुसफुसा कर। 3 प्रतिशत का सीटों पर कितना असर पड़ेगा, यह भी नहीं बताते। बताते भी हैं तो घूंघट के अंदर से। कांग्रेस की जीत का आंकड़ा बताते हैं तो सीना तान कर या आठ कालम की हैडिंग के साथ। अंत में जब सचमुच चुनाव परिणाम आता है तो लीपापोती करते हुए इनके चेहरे देखने लायक होते हैं। याद कीजिए गुजरात के चुनाव के बाद इन छह तिया अठारह कम्पनियों की खिसियाई हुई शक्लों को। मगर सब चलता है। लोकतंत्र और बाजार की मसालेदार चाट न रहे तो दर्शकों और पाठकों को बांधने की समस्या बहुत बड़ी हो जाएगी।27
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