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न तेरी, न मेरीएक गांव में दो भाई रहते थे। दोनों खेती करते थे। एक दिन वे गांव से बाहर घूमने निकले। चलते-चलते नदी के किनारे उन्होंने देखा कि बड़ी अच्छी परती भूमि दूर तक फैली है। उसे देखकर छोटे भाई ने कहा, “दादा! यह भूमि तो बड़े काम की है, अगर यह मुझे मिल सके तो फिर क्या बात हो!” बड़ा भाई बोला, “मैं पा जाऊं तो इस पर एक सुन्दर-सा बाग लगाऊं, फल-फूलों से भरा हुआ। राही उसके पेड़ों की छाया में विश्राम करते हुए पक्षियों के गाने सुनेंगे।” छोटे भाई ने कहा, “यह सब बाग-वाग बेकार की बात है। देश अकाल से बेहाल है। उसे अन्न की जरूरत है न कि फल-फूलों की। मैं तो गेहूं की फसल उगाऊंगा।” इस पर बड़े भाई ने चिढ़कर कहा, “बस, तुझे तो सिर्फ पेट भरने की ही सूझती है। तुझे इस संसार का कुछ ज्ञान ही कहां है। बस, खाने को ही जीवन समझता है।” बड़े भाई की यह बात छोटे भाई को बुरी लग गई और वह गुस्से में कहने लगा, “तुम ही शायद एक सबसे बड़े ज्ञानी हो, बाकी सब मूर्ख हैं।” इस तरह बात बढ़ते-बढ़ते दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। यहां तक नौबत आ गई कि वे आपस में मार-पीट करने लगे जिससे दोनों घायल भी हो गए। तभी वहां एक राहगीर आ गया। उसने दोनों के बीच झगड़े का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि नदी किनारे की भूमि को लेकर वे लड़ पड़े हैं। तब वह बोला, “वाह! कैसे नासमझ हो तुम लोग। यह भूमि तो मेरे बाप-दादों की है, जो उनके न रहने पर अब मेरे नाम हो गई है। मैं शहर में नौकरी करता हूं, इसलिए अभी तक इस भूमि को जोत-बो नहीं सका। इस साल मैं यहां फसल उगाऊंगा।” यह सुनकर दोनों भाइयों को होश आया और वे पछताने लगे कि सच ही हमारी बुद्धि पर पत्थर पड़े थे जो दूसरे आदमी की भूमि को लेकर लड़ पड़े और अपने ही भाई को घायल कर दिया। मानस त्रिपाठी19
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