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कही अनकही

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Jun 6, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2004 00:00:00

दीनानाथ मिश्रचापलूसों की महात्मा गांधीसंसद के केन्द्रीय कक्ष में उस दिन चार घंटे तक “चापलूसी महायज्ञ” चला। किन्हीं कारणों से सोनिया गांधी ने दोपहर को ही प्रधानमंत्री न बनने का फैसला कर लिया था। इसी पृष्ठभूमि में “महायज्ञ” का अनुष्ठान किया गया था। कांग्रेसी सांसद अपने-अपने भाषणों की आहुति दे रहे थे। कोई शब्दों से आरती उतार रहा था, कोई शेरों से कसीदे पढ़ रहा था। एक ने सोनिया गांधी की तुलना भगवान बुद्ध से कर दी। एक अन्य ने चौके पर छक्का लगाया और सोनिया गांधी को महात्मा गांधी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। उस यज्ञ में माक्र्सवादी पार्टी के नेता ज्योति बसु की बोहू मां “महात्मा सोनिया गांधी” बन गईं। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था। लेकिन सत्ता सौंपी जवाहर लाल नेहरू को। चुनाव 2004 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व किया और सत्ता सौंपी मनमोहन सिंह को।जब वह राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने गई थीं तब तक वह प्रधानमंत्री बनने को दृढ़ संकल्प थीं। प्रधानमंत्री बनने का संकल्प तो उनका करीब एक दशक पुराना है। और वह प्रकट भी होता रहा। 1998 में इसी सवाल पर शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक अनवर पार्टी से निकल गए थे और पार्टी टूट गई थी। इस सवाल पर उन्होंने पार्टी तोड़ी, प्रधानमंत्री बनने का संकल्प नहीं तोड़ा। जब जयललिता ने वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तब रायसीना पहाड़ी के परकोटे से उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का संकल्प फिर दोहराया। मगर इस बार राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के साथ बातचीत के दौरान उनको “अन्तरात्मा की आवाज” सुनाई दी। इस आवाज से उन्हें लगा कि खट्टे अंगूर कौन खाए? बच्चों को तो लगने लगा था कि यह अंगूर खट्टे ही नहीं हैं, जहरीले भी हैं। एक माक्र्सवादी नेता ने सफाई दी कि जिन बच्चों ने दादी और पिता को खो दिया हो, उन्हें ऐसा लगना स्वाभाविक ही था।मगर अन्तरात्मा की सच्ची आवाज कौन सी थी? इस सवाल पर कांग्रेस का विभाजन तक कर देने वाली आवाज? रायसीना पहाड़ी के परकोटे से निकली आवाज कि मेरे पास 272 अर्थात् पूर्ण बहुमत है और मैं प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार हूं? या बीती 18 तारीख को राष्ट्रपति से मुलाकात के समय सुनाई पड़ी अन्तरात्मा की आवाज? सच्ची आवाज कौन सी थी? वह जिसे कई बार सुना या वह जिसे हमने उनके बुझे चेहरे से सुना? राष्ट्रपति ने विदेशी मूल के मुद्दे का उल्लेख नहीं किया किन्तु उन्हें दिए गए ज्ञापनों पर संवैधानिक राय के लिए समय लगेगा, यह तो कहा ही था। इधर सुषमा स्वराज, गोविन्दाचार्य और उमा भारती ने इतालवी मूल के मुद्दे को विस्फोटक अंदाज में उठाया था। इस मुद्दे में बड़ी भावनात्मक ताकत है। ऐसी कि स्वतंत्रता आन्दोलन की झलक दिख जाए। इसके भड़कने और भभकने की आशंकाएं निर्मूल नहीं थीं। इसी में से अचानक सोनिया गांधी में त्याग का जज्बा पैदा हो गया।बहादुर तो वह बहुत हैं ही। 1971 की लड़ाई में पति और बच्चों के समेत इटली चली गईं। देश का ही त्याग कर दिया। 1977 की पराजय में कांग्रेस को आज के मुकाबले ज्यादा सीटें मिली थीं। फिर भी इन्दिरा गांधी की पराजय से घबराकर घर त्याग दिया और इटली के दूतावास में शरण ली। राष्ट्रीय संग्रहालय प्रकरण, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला संस्कृति केन्द्र, राजीव फाउण्डेशन से लेकर क्वात्रोक्की प्रकरण तक उन्होंने त्याग की एक से बढ़कर एक मिसाल कायम की है। कांग्रेसी सांसदों ने उस दिन चापलूसी यज्ञ में आहुति दे देकर कोई गलत काम नहीं किया। यह तो कांग्रेसी कुल की परम्परा रही है। भाषणों की आहुति देकर उन्हें “महात्मा” सोनिया गांधी बना दिया। उन्हें महात्मा गांधी बनाने का जो सिलसिला मीडिया में चल रहा है उसे पढ़-सुनकर नई पीढ़ी के बच्चे यही समझेंगे कि महात्मा गांधी भी सोनिया गांधी की तरह ही कोई व्यक्ति होंगे जो इटली की बजाय दक्षिण अफ्रीका से आए थे। गौतम बुद्ध भी सोनिया गांधी की तरह के कोई व्यक्ति होंगे। मीडिया बनाए तो कौन बिगाड़ सकता है। मीडिया का तो काम ही है ब्राण्ड बनाना और बिगाड़ना।10

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