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चिंतन क्षण
महाभारत के कुछ सबक
कैसा हो नेतृत्व
-हो.वे.शेषाद्रि
अ.भा. प्रचारक प्रमुख, रा.स्व.संघ
पं.दीनदयाल उपाध्याय ने महाभारत युद्ध के परिणाम का एक बार सुन्दर विश्लेषण किया था। उन्होंने कुरुक्षेत्र में डटे हुए पाण्डवों और कौरवों के प्रमुख योद्धाओं की तुलना की थी। कौरवों के पक्ष में भीष्म इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त किए हुए थे। द्रोणाचार्य तो पाण्डव-कौरव को धनुर्विद्या सिखाने वाले अप्रतिम धनुर्धारी गुरु थे। कर्ण के पास ऐसे-ऐसे मारक अस्त्र थे जिनसे अर्जुन को भी समाप्त करना सम्भव था। स्वयं दुर्योधन का कटि से ऊपर का शरीर वज्र समान था। (यानी गदा युद्ध के नियमों के अंतर्गत उसको मारना भीम के लिए असम्भव था।) इधर पाण्डवों के पक्ष में एक की भी स्थिति इस प्रकार की नहीं थी। फिर भी अंत में पाण्डवों की जीत और कौरवों की हार हुई! भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन…सभी का अंत हुआ। इस प्रकार के सर्वथा अप्रत्याशित परिणाम का एक ही कारण था। कौरव पक्ष के भीष्म आदि प्रत्येक महायोद्धा के मन में अपने पक्ष की जीत से बढ़कर स्वयं का निजी संकल्प था। इसके विपरीत पाण्डवों में अपने स्वयं का विचार या संकल्प कुछ भी हो, आखिर में श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन पर चलना ही उनका कर्तव्य था।
भीष्म का संकल्प था कि युद्ध में उनके सामने शिखण्डी खड़ा हुआ तो वे युद्ध से हट जाएंगे। श्रीकृष्ण ने पाण्डव पक्ष के शिखण्डी को उनके सामने खड़ा करके युद्ध में भीष्म की भूमिका समाप्त करवाई। भीष्म की एक प्रतिज्ञा थी कि श्रीकृष्ण को भी युद्ध में उतरने को बाध्य करूंगा। जबकी श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा थी कि युद्ध में शस्त्र धारण नहीं करेंगे। युद्ध में जब एक बार भीष्म अप्रतिहत होकर पांडव सेना का संहार करते हुए आगे बढ़ रहे थे, उनको रोकने के लिए श्रीकृष्ण अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर हाथ में चक्र लेकर रथ से नीचे उतर आए। यह देखकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण होने से भीष्म संतुष्ट हो गए और उस दिन युद्धभूमि से वापस चले गए।
शर-शैय्या पर लेटे भीष्म के साथ श्रीकृष्ण और पांच पांडव
युद्ध के दौरान दुर्योधन ने एक बार भीष्म को उलाहना देते हुए कहा, “आपके मन में पाण्डवों के प्रति प्रेम है इसलिए आप पूरा मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहे हैं।” इससे अपमानित होकर भीष्म ने घोर प्रतिज्ञा की- “मैं सारे पाण्डवों को समाप्त कर डालूंगा।” भीष्म की यह प्रतिज्ञा सुनते ही पाण्डवों के पक्ष में हड़कम्प मच गया। तब श्रीकृष्ण की योजनानुसार युद्ध समाप्त होने के बाद द्रौपदी ने उस रात भीष्म के शिविर में प्रवेश किया। भीष्म का आदेश था कि रात में विश्राम के समय स्त्री या संन्यासी को छोड़कर अन्य किसी को भी उनके शिविर में प्रवेश नहीं देना है। द्रौपदी ने चुपचाप भीष्म के पलंग के पास जाकर अपनी चूड़ियों की आवाज की। कोई स्त्री आयी है, यह सोचकर भीष्म ने आंखें खोलने के पहले ही आशीर्वाद दे दिया, “सौभाग्यवती भव”। लेकिन जब भीष्म ने उठकर द्रौपदी को देखा तो उनको लगा कि उनका सारा खेल समाप्त हो गया! (पाण्डवों का संहार करने की प्रतिज्ञा बेकार हो गई।) भीष्म ने द्रौपदी से कहा, “यह तेरी योजना नहीं है। तेरे साथ कौन आये हैं?” यह कहते हुए जब वे बाहर आये तो वहां श्रीकृष्ण को खड़े देखा, उन्हें प्रणाम कर वे वापस चले गये।
प्रत्येक प्रसंग में श्रीकृष्ण के उपायों के कारण ही पाण्डवों का बचाव होता रहा। श्रीकृष्ण ने कुन्ती को कर्ण के पास भेजकर उसके जन्म की कथा सुनवाकर अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पाण्डव को न मारने का वचन प्राप्त करवाया। उसके पहले कर्ण ने अपने पिता सूर्यदेव की चेतावनी के बावजूद ब्राह्मण वेश में आये श्रीकृष्ण को अपना कर्ण-कुण्डल दान में दे दिया। भीम और दुर्योधन के गदा युद्ध के बीच श्रीकृष्ण के उचित संकेत के कारण ही भीम के लिए दुर्योधन को मारना सम्भव हुआ। कर्ण द्वारा अर्जुन पर छोड़े गए दिव्यास्त्र से उसे बचाने के लिए अपने रथ को ही पैर से नीचे दबाने के कारण केवल अर्जुन के किरीट को लेकर वह अस्त्र चला गया। अपने प्रिय पुत्र अभिमन्यु की मृत्यु से क्रुद्ध होकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की, “कल सूर्यास्त के पहले जयद्रथ का संहार करूंगा, नहीं तो मैं स्वयं अग्नि प्रवेश करूंगा।” कौरव पक्ष में द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना बनाकर जयद्रथ को सुरक्षित करवा दिया तो श्रीकृष्ण ने सूर्यास्त से थोड़ी देर पहले ही अपने चक्र को सूर्य की ओट में रखकर कृत्रिम सूर्यास्त का आभास पैदा किया। जब कौरव पक्ष के विजयोल्लास के बीच जयद्रथ खड़ा हो गया तो श्रीकृष्ण ने अपने चक्र को हटाया, फिर से सूर्य दिखने लगा। श्रीकृष्ण के संकेत पर तुरंत बाण छोड़कर अर्जुन ने जयद्रथ का सर उड़ा दिया। कर्ण-अर्जुन युद्ध के बीच कर्ण के रथ का पहिया जब कीचड़ में फंस गया तब उसे निकालने के लिए कर्ण नीचे उतर गया, तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “इसे मार डालो।” तब कर्ण नि:शस्त्र योद्धा को न मारने का धर्म बताने लगा तो श्रीकृष्ण ने उसके द्वारा किये गये सारे घोर अधर्म के कृत्यों की याद दिलाकर उसका मुंह बंद कराया। द्रोणाचार्य ने जब कौरव सेना के सेनापति के रूप में पाण्डव सेना का संहार करना शुरू किया तो उनको रोकना अर्जुन के लिए भी सम्भव नहीं हो रहा था। तब श्रीकृष्ण ने भीम के द्वारा अश्वत्थामा नाम के हाथी को मरवा कर धर्मराज युधिष्ठिर के मुंह से “अश्वत्थाम हत:, नरो वा: कुन्जरो वा:” (अश्वत्थामा मारा गया, वह मनुष्य था या हाथी था) यह बोलते समय श्रीकृष्ण ने अपना शंख बजा दिया, जिससे “वा: कुन्जरो वा:” यह शब्द सुनाई नहीं दिए। धर्मराज कभी भी असत्य बोलने वाले नही हैं, इस विश्वास के कारण द्रोणाचार्य अपने पुत्र मोह में अश्वत्थामा के मृत शरीर को ढूंढने के लिए अपना स्थूल शरीर युद्धस्थल में छोड़कर अपने सूक्ष्म शरीर से चले गये, तब धृष्टद्युम्न के द्वारा उनके शरीर का अन्त हुआ।
अर्जुन तो युद्ध के प्रारम्भ से ही युद्ध न करने की मन: स्थिति में थे। उनको भी श्रीकृष्ण ने लम्बा उपदेश (श्रीमद् भगवद्गीता के अठारह अध्याय) सुनाकर युद्ध के लिए तैयार किया। इस प्रकार धर्मराज हों या अर्जुन, सारे पाण्डव श्रीकृष्ण के नेतृत्व को स्वीकार करने के पश्चात् अपनी स्वयं की इच्छा या प्रतिज्ञा की अनदेखी करने के लिए तैयार हो गये, जिससे पाण्डवों की जीत हुई। इसके विपरीत कौरवों के प्रत्येक योद्धा ने अपनी-अपनी शपथ या मन:स्थिति के सामने अपने पक्ष की जीत को गौण मान लिया था।
इसका पाठ केवल महाभारत के युद्ध के संदर्भ तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक संदर्भ में गहराई से ध्यान में रखने लायक है। श्रीकृष्ण की तरह असामान्य बुद्धि, प्रतिभा एवं शक्ति सम्पन्न होने के बावजूद अत्यन्त निर्मोही बनकर और स्वयं को सब प्रकार की आशा-अपेक्षा से मुक्त करके नेतृत्व करने वाले नेता का लोग अनुगमन सहर्ष स्वीकार करते हैं।
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