|
सुरेश सोनी
वेदांग क्या हैं?
वैदिक वाङ्मय को समझने के लिए सहायक छह अंगों का विकास हुआ। इन्हें वेदांग कहा जाता है। पाणिनि ने एक रूपक के द्वारा इन अंगों का वर्णन किया है-
छन्द: पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षु: निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतं
तस्मात्साङ् गमधीत्येव बह्मलोके महीयते।। (पाणिनीय शिक्षा)
पाणिनी कहते हैं कि छन्द वेद के पाद हैं, कल्प हाथ हैं, ज्योतिष आंखें हैं, निरुक्त कान हैं, शिक्षा नासिका है और व्याकरण मुख है अत: इन अंगों के साथ वेदों का अध्ययन करने से ब्राह्मलोक में महत्व की प्राप्ति सम्भव है।
शिक्षा-जिस शास्त्र में स्वर, वर्ण आदि के सही उच्चारण के नियम, विधि आदि का प्रतिपादन किया जाता है, उसे शिक्षा कहा गया। वेदों के अध्ययन में वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण को बहुत महत्व दिया गया है; क्योंकि स्वरभेद से अर्थभेद हो जाता है। अत: कहा जाता है कि वाणी भी वज्र के समान होती है, जिसका ठीक उच्चारण नहीं किया तो वह प्रयोग करने वाले का ही नाश कर देती है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा वेदांग के छह अंग बताए गए हैं-वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान।
वर्ण-पाणिनि के अनुसार संस्कृत वर्णमाला में 63 या 64 वर्ण हैं।
स्वर- स्वर तीन प्रकार के माने गए हैं-उदात्त यानी ऊंचा, अनुदात्त यानी नीचा, स्वरित यानी मध्यम।
मात्रा-यह तीन प्रकार की होती है-ह्यस्व, दीर्घ और प्लुत।
बल-बल से वह स्थान अभिप्रेत है जहां वर्णों या शब्दों का उच्चारण करते समय वायु मुंह में टकराती है।
साम- माधुर्य आदि गुणों से युक्त निर्दोष उच्चारण साम कहलाता है।
सन्तान-जब दो अलग शब्द वाक्य में एक-दूसरे के पास रहते हैं और उच्चारण में एक साथ बोले जाते हैं, तब प्राय: उनमें सन्धि हो जाती है, जैसे वायो, आयाहि इसमें दोनों पद अलग हैं परन्तु एक साथ बोलेंगे तो वायवायाहि हो जाएगा, इसे ही सन्तान कहते है।
वर्तमान समय में याज्ञवल्क्य शिक्षा, वासिष्ठ शिक्षा, भारद्वाज शिक्षा, पाराशरी शिक्षा, पाणिनीय शिक्षा आदि ग्रंथ मिलते हैं।
छन्द-वैदिक संहिताओं का बड़ा भाग पद्य में है। अत: छन्द का ज्ञान आवश्यक माना गया। भरतमुनि के अनुसार शब्द के बिना छन्द नहीं तथा छन्द के बिना शब्द नहीं हो सकते। प्रत्येक छन्द में निश्चित मात्रा में अक्षर रहते हैं। वेदों में प्रयुक्त प्रमुख छन्द निम्न हैं-
गायत्री-24 अक्षर, उष्णिक, 28 अक्षर, अनुष्टुप-32 अक्षर, त्रिष्टुप-44 अक्षर, जगति-48 अक्षर, अष्टि 64 अक्षर, प्रकृति-84 अक्षर, उत्कृति-104 अक्षर। छन्द शास्त्र के रचयिता महर्षि पिंगल माने जाते हैं।
निरुक्त-वेदों के कठिन शब्द निघण्टु में संग्रहित किए हैं, यह एक प्रकार का कोष है। प्रत्येक वैदिक शब्द की व्युत्पति कैसे हुई, उसका सही अर्थ क्या है, इससे जाना जा सकता है? निरुक्त निघण्टु की व्याख्या के रूप में है। महर्षि यास्काचार्य ने निरुक्त तथा निघण्टु का संग्रह किया। वेदों को समझने में निरुक्त का अप्रतिम योगदान है। महर्षि दयानन्द के अनुसार यास्काचार्य के निरुक्त के सहारे वेदों में निहित विज्ञान अभिव्यक्त किया जा सकता है।
व्याकरण- छह वेदांगों में व्याकरण का अप्रतिम स्थान है। इसीलिए व्याकरण को वेद का मुख कहा गया है।
(पाक्षिक स्तम्भ)
(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)
24
टिप्पणियाँ