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झूठ और सन्नाटा
क्या हिन्दू प्रतीकों के विरुद्ध मीडिया भी पूर्वाग्रस्त?
-चंदन मित्रा
संपादक, द पायनियर एवं सांसद (राज्य सभा)
12 नवम्बर को पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी की आधी रात को हुई गिरफ्तारी के बारे में देश के लगभग सभी अखबारों ने बड़े-बड़े शीर्षक के साथ खबर छापी थी। दिन-प्रतिदिन सेकुलर समाचार पत्र शंकराचार्य जी के विरुद्ध पुलिस द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों की चर्चा मुख्य खबर के रूप में छापने लगे, संपादकीय टिप्पणियों और लेखों का स्वरूप भी ऐसा मानो फैसले से पूर्व ही शंकराचार्य दोषी सिद्ध कर दिए गए।
लेकिन यही समाचार पत्र उस समय सन्नाटा ओढ़ लेते हैं जब मामला शंकराचार्य जी के पक्ष में जाता दिखता है, जब कोई मुख्य आरोपी अपना बयान बदलकर कहता है कि उस पर पुलिस ने जोर-जबरदस्ती से पहले वाला बयान दिलवाया था। इस संदर्भ में पाञ्चजन्य ने द पायनियर के मुख्य सम्पादक व सांसद श्री चंदन मित्रा से बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं श्री मित्रा द्वारा व्यक्त विचार। सं.
शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी और उसके बाद उनके साथ किया जा रहा दुव्र्यवहार पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है। ऐसे प्रतिष्ठित व सम्मानित धर्मगुरु के साथ इस तरह का बर्ताव अमानवीयता का ही प्रमाण है। सवाल यह भी है कि किसी अन्य मत-पंथ के नेता के साथ भी क्या ऐसा करना संभव होता? इमाम बुखारी के विरुद्ध अनेक मामले हैं। स्वयं हमारे अखबार में एक रपट छपी थी कि किस तरह उन्होंने अपने यहां प्रतिबंधित प्रजातियों के जानवर पाल रखे हैं जो कानूनन जुर्म है। लेकिन जब हमने पुलिस से पूछा कि आप इस बारे में कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं? तो पुलिस ने कहा- “हमारी हिम्मत नहीं है। जब तक ऊपर से आदेश नहीं आता, हम कुछ नहीं कर सकते। अगर राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की तरफ से आदेश नहीं हुआ होता तो शंकराचार्य जी को भी गिरफ्तार करने की तमिलनाडु पुलिस हिम्मत तक नहीं कर सकती थी। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह पूरा प्रकरण राजनीति-प्रेरित है। देशभर में इसका घोर विरोध होना चाहिए, जो हो भी रहा है। यह हिन्दू समाज की गरिमा पर आक्रमण है जिसका एकजुट होकर विरोध करना ही चाहिए।
गिरफ्तार किए गए दो अपराधियों में से एक ने रहस्योद्घाटन किया है कि उसने पुलिस के दबाव में झूठा बयान दिया था, उसे मारा-पीटा गया था आदि। हो सकता है यह पूरा अभियोग मढ़ा गया हो, पर जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता तब तक यह कहना सही नहीं होगा। मगर आरम्भ से ही यह तो साफ था कि दाल में कुछ काला है। अब एक अन्य दो वर्ष पुराने मामले को खोला गया है। इससे लग रहा है कि पूरी तरह सोची-समझी रणनीति के तहत ऐसा किया जा रहा है। यह देखने में आया है कि पुलिस अपने अनुसार कुछ लोगों को पकड़कर उनसे मनचाहे बयान उगलवाती है। ये पुलिस के पुराने हथकण्डे हैं। अगर यह साबित हो जाता है कि शंकराचार्य जी के मामले में पुलिस ने ऐसा ही किया था तो तमिलनाडु के जो पुलिस अधिकारी इसमें जुड़े हैं और जिन राजनीतिक लोगों के इशारे पर यह सब किया गया, उनके विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए।
द्रमुक अध्यक्ष करुणानिधि ने शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी के तुरंत बाद तमिलनाडु पुलिस की पींठ ठोंकी थी। लेकिन अब उनके सुर बदले लग रहे हैं। अगर उन्हें सद्बुद्धि आ गई है तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए। करुणानिधि का पहले मत था कि कांची मठ और शंकराचार्य जी ब्राह्मणवाद के प्रतीक हैं, इसलिए शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी के तुरंत बाद उन्होंने उसका स्वागत किया। लेकिन अब शायद उन्हें स्पष्ट हो रहा है कि यह मनगढ़न्त मामला षडंत्र के तहत किया गया है। करुणानिधि स्वयं ऐसे दुव्र्यवहार के भुक्तभोगी रहे हैं शायद इसलिए वे शंकराचार्य जी के साथ किए जा रहे अपमानजनक व्यवहार की असलियत समझ गए होंगे।
मीडिया ने भी इस प्रकरण में अपनी भूमिका सही तौर पर नहीं निभाई। यह बहुत दु:ख की बात है। कुछ चुनिंदा बिन्दुओं को आधार बनाकर तमिलनाडु और राष्ट्रीय मीडिया के एक वर्ग ने शंकराचार्य जी को अपराधी करार दे दिया था। उनके बारे में ऐसी कहानियां छापते रहे कि वे दोषी की तरह पेश किए गए। हमने इस सबकी आलोचना की है। देश के मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया में एक तबका ऐसा है जो अपनी कट्टर सेकुलरवादी सोच के आधार पर अपने सेकुलरवाद का एक ही अर्थ निकालता है-हिन्दू विरोध। इसी से प्रेरित होकर मीडिया एकतरफा भूमिका निभा रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए, मीडिया को तथ्यपरक रहना चाहिए। पूरे मामले को जांच-परखने के बाद ही कोई राय व्यक्त करनी चाहिए। गुजरात के मामले में मीडिया एक नीति अपनाता है तो शंकराचार्य जी के मामले में दूसरी। यह दोहरा मापदंड है। देश की पत्रकारिता की तथ्यपरकता खोने के कगार पर है, लगता है मीडिया राजनीति और तथ्यपरकता में विभाजित हो गया है। मीडिया का जो तबका शंकराचार्य जी को दोषी की तरह रख रहा है, वही तबका उस समय गिरफ्तारी का घोर विरोध करता अगर उसमें किसी अन्य मत-पंथ का शीर्ष व्यक्ति जुड़ा होता।
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