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पाठ्यक्रमों में परिवर्तन
इसमें नया क्या है?
द डा. मुरली मनोहर जोशी
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने लोकसभा में गत 20 अगस्त को एक तर्कपूर्ण व गंभीर वक्तव्य दिया। वे विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे शिक्षा के भगवाकरण के आरोप और शिक्षा में ज्योतिष विज्ञान के समावेश पर सदन में चर्चा का जवाब दे रहे थे। उन्होंने अपने तर्कों, प्रमाणों, ऐतिहासिक दस्तावेजों से शिक्षा के मामले में किए जा रहे दुष्प्रचार का जोरदार जवाब दिया। प्रस्तुत हैं लोकसभा में उनके वक्तव्य के संपादित अंश-
मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षा के बारे में संभ्रम का कारण बहुत सारी चीजों की सही जानकारी न होने के कारण है या जानकारी रखते हुए भी उस जानकारी को छुपाने के कारण है। मैं पहले यह निवेदन करूंगा कि यह सारा प्रश्न शुरू कैसे हुआ? 1986 की शिक्षा नीति और उसके बाद 1992 में उसमें जो संशोधन हुआ, उसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख था कि हर पांच साल के बाद इस नीति के क्रियान्वयन के बारे में समीक्षा की जाए। 1992 के बाद 1997 तक कोई समीक्षा नहीं की गई, न ही कोई ऐसा प्रयत्न किया गया कि इस बात को देखा जाए कि इन दिनों जो कुछ दुनिया में प्रगति हुई है, दुनिया के शिक्षाविदों के विचारों में नए-नए अनुभवों के कारण जो परिवर्तन आए, बदलाव आए, उनका समावेश किया जाए। दरअसल थोड़ा-सा काम हमारी सरकार के आने से पहले शुरू किया जा रहा था लेकिन वह काम पूरा नहीं हुआ। 1997 में जब हमारी सरकार नहीं थी, आप लोगों (कांग्रेस) के समर्थन वाली सरकार थी, यह शुरुआत की गई कि एक प्रकल्प बनाया जाए जो इन पुस्तकों के बारे में समीक्षा करेगा, काम शुरू करने के लिए धन भी दिया गया। एक समिति भी बनाई गई लेकिन उसने कुछ काम नहीं किया। दो बार पैसा आबंटित किया गया। प्रो. अर्जुन देव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई लेकिन कुछ काम नहीं हुआ। इसका अर्थ यह है कि आज जो यह कहा जा रहा है कि सरकार ने आते ही ऐसा करना शुरू कर दिया, यह तथ्यों के विपरीत है। यह शिक्षा नीति के अंतर्गत है और उस शिक्षा नीति के अंतर्गत है जिसे केन्द्र ने संशोधित किया था। हां, इतना जरूर हुआ कि हमारे आने के बाद उस काम में तेजी लाई गई। सितम्बर, 1999 में एक समिति बनाई गई ताकि जो काम चल रहा था, उसे व्यापक ढंग से और जल्दी किया जाए। उस समिति ने काम शुरू कर दिया। उस समिति ने सबसे पहले एक छोटा प्रपत्र तैयार किया और फिर नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन, दी सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशनल टैक्नालाजी, दी रीजनल इंस्टीट्यूट्स आफ एजुकेशन-अजमेर, भोपाल, भुवने·श्वर और मैसूर, इनसे सम्बद्ध विद्यालयों तथा पं. सुन्दर लाल शर्मा सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ वोकेशनल एजुकेशन, भोपाल – इन सबके अंदर उस प्रपत्र पर विचार किया गया और यही विषय था जिस पर उनसे राय मांगी गई। यह कहना कि अचानक ला दिया है, कहीं पीछे से ला दिया गया है, यह बात स्पष्ट होनी चाहिए। अखबारों में प्रकाशित होता रहा है, हम परिपत्र भेजते रहे हैं और राज्य सरकारों को बताते रहे हैं। उसके बाद यह कहना कि कि कहीं पीछे से लाया जा रहा है, कोई सलाह नहीं ली गई है, यह बिल्कुल गलत है। उसके बाद सभी विभागों से कहा गया कि आप अपनी अंदरूनी बैठक करें। इस पर चर्चा करें, जो भी आपके सुझाव हों, उन पर विचार-विमर्श करें। ये संस्थाएं वर्षों से शिक्षा के बारे में काम कर रही हैं जो अपने क्षेत्रों की नोडल एजेंसीज हैं।
तत्पश्चात् अक्तूबर, 1999 तक यह काम चलता रहा। उसके बाद बैठक हुई तो फिर इनमें प्रो. यशपाल, प्रो. एम. मुखोपाध्याय, प्रो. जे.एन.कपूर, डा. अरविंद कुमार, डा. अनिरुद्ध राजन, डा. सुगत मित्रा, डा. रविन्द्र कुमार, प्रो. योगेन्द्र सिंह, डा. (श्रीमती) कपिला वात्स्यायन आदि लोगों ने इस पर चर्चा की। ये सब लोग कला, संस्कृति, विज्ञान और मानविकी के विद्वान हैं। इनमें से कोई भारत या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) से जुड़ा नहीं है। वे किसी एक क्षेत्र के लोग नहीं हैं।
उसके बाद विचार किया गया। उसमें से जो चीजें छनकर आईं, उसका एक दस्तावेज बनाया गया। उसके बाद राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) की पाठ्य पुस्तकों को देखा गया कि उनमें कहां कमियां हैं। जो सुझाव आए हैं, उनमें से कौन-से ठीक हैं और कौन से-लागू किए जा सकते हैं, उसकी भी समीक्षा की गयी। यह दस्तावेज बनने के बाद जनवरी, 2000 में एक बैठक की गई। दस्तावेज सभी केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यों के शिक्षामंत्रियों, केन्द्र व राज्यों के जितने भी शिक्षा सम्बंधी अधिकारी थे, को भेजा गया। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं और सांसदों, शिक्षाविदों, अध्यापकों, वि·श्वविद्यालयीन विभागों, शोध संस्थानों, स्वयंसेवी संगठनों,प्रमुख विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को भेजा गया। उसके बाद 31 दिसम्बर, 2000 को सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पूछा गया कि इस पर उनकी क्या राय है?
उसके बाद हमने 67 राजनीतिक नेताओं को यह दस्तावेज भेजा। श्री सोमनाथ चटर्जी, (नेता प्रतिपक्ष) श्रीमती सोनिया गांधी, तत्कालीन शिक्षामंत्री श्री एस.आर. बोम्मई, श्री अर्जुन सिंह, श्री माधवराव सिंधिया सभी को यह दस्तावेज भेजा और इस देश के हर राजनीतिक नेता को भी यह दस्तावेज भेजा गया।
मुझे नहीं मालूम कि किसी राजनीतिक नेता ने इस चिट्ठी को पढ़ने के बाद अपने यहां किसी राजनीतिक मंच में इस पर चर्चा की या नहीं। अगर की तो उसके क्या परिणाम थे। हर एक मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, एन.सी.ई.आर.टी. की कार्यकारिणी के सदस्यों के सामने यह दस्तावेज पढ़ा गया, उस पर चर्चा हुई। कुछ मुख्यमंत्री आए, कुछ के सचिव आए। सारी कार्यवाहियों के विवरण मेरे पास हैं…। किसी ने दस्तावेज को अस्वीकार नहीं किया।
मंत्रियों ने अपने सुझाव दिए हैं, किसी ने कहा कि हम अपने यहां चर्चा करेंगे। चर्चा के बाद क्या हुआ, हमें नहीं मालूम। किसी ने कहा कि हम आपको बाद में बताएंगे, लेकिन आज तक किसी ने नहीं बताया। हमने दस्तावेज आपके पास चर्चा तथा आपकी राय जानने के लिए भेजा था। हम यह आशा करते थे कि एक संवाद, एक चर्चा चल रही है, हम आपकी राय जानना चाहते थे। लेकिन अचानक यह शुरू किया गया कि इस सारे मसले का राजनीतिकरण किया जाए और इस मसले को इस रूप में पेश किया जाए कि यह सरकार या इस मंत्रालय का यह दस्तावेज कुछ बदल रहा है। मैंने तब भी कहा था, आज भी कहता हूं और उस बैठक में भी कहा था और फिर कहता हूं कि अगर 1986-1992 की नीति के और कार्यवाही के विरुद्ध इसमें कोई बात हो तो आप हमें पढ़कर बताएं कि यह वाक्य, यह बात, आपकी इस स्वीकृत नीति के विरुद्ध है। यह नीति-दस्तावेज नहीं है। पहली बात यह समझ लें कि यह पाठ्यक्रम की रूपरेखा है। नीति 1986 की है, नीति 1992 की है। हम उसी नीति के अनुसार कार्य कर रहे हैं। हम बार-बार कह रहे हैं कि अगर इसमें 1986 और 1992 की नीति के विरुद्ध कोई बात लिखी गई है तो आप हमें बताएं, हम उस पर जरूर गौर करेंगे। और जहां आपकी राय विरुद्ध साबित होगी, हम उसे हटा देंगे।
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