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भारतीय मजदूर संघ के बढ़ते आकार को देख बौखलाए इंटक कानूनी जंग में उतरा, लेकिन…

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Mar 9, 2000, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Mar 2000 00:00:00

आखिर जय मिली सच के पक्षधरों को

— को. लक्ष्मा रेड्डी

नियम वही कानून वही, कसौटी वही। किन्तु जब इस कसौटी के आधार पर जो श्रमिक संगठन पिछले पचास वर्षों से प्रथम स्थान पाता रहा, तब तक सब ठीक था, किन्तु जैसे ही उसका यह स्थान छिना और भारतीय मजदूर संघ प्रथम स्थान पर आया, तो इंटक को वे नियम कानून बेमानी लगने लगे। उन्हीं नियमों के अनुसार 1996 में जब सदस्यता सत्यापन को आधार मानकर इंटक की गद्दी छिनी तो इंटक और उसके समर्थकों ने सदस्यता सत्यापन का बावेला खड़ा कर दिया। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता के बाद पांच दशक तक इंटक देश का सबसे बड़ा केन्द्रीय श्रम संगठन रहा। देश के मुख्य 12 केन्द्रीय श्रम संगठनों में से कौन-सा संगठन प्रथम स्थान पर होगा और कौन-सा किस क्रम पर होगा, इसका निर्धारण उसकी सदस्य संख्या के आधार पर किया जाता है। सदस्यता का सत्यापन मुख्य श्रम आयुक्त की अध्यक्षता में गठित स्थायी समिति द्वारा किया जाता है। यही समिति सदस्यता सत्यापन के नियम तथा उसके लिए आधार तिथि का निर्णय करती है। इन्हीं नियमों के आधार पर 27 दिसम्बर, 96 को श्रम मंत्रालय द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई। जिसके अनुसार भारतीय मजदूर संघ के सदस्यों की संख्या 31,16,564 थी और इंटक के सदस्यों की संख्या 26,92,388 थी। इस अधिसूचना का आधार 31.12.89 को सत्यापित सदस्य संख्या को माना गया। इससे पहले इंटक का सदैव प्रथम स्थान रहा था। किन्तु भारतीय मजदूर संघ के बढ़ते आधार तथा आकार को वह पचा नहीं सकी और इंटक ने 1997 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसके माध्यम से उन्होंने भिन्न-भिन्न आधारों पर वर्ष 1998 के सदस्यता सत्यापन के अन्तिम परिणामों को निरस्त करने की मांग की। इस मांग के पीछे एक कारण निर्णय की घोषणा में विलम्ब भी बताया गया। इसके साथ ही श्रम आयुक्त के विवेक पर उंगली उठाते हुए स्थायी समिति के अध्यक्ष पद पर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की नियुक्ति की मांग की। 19 मई, 1998 को जब यह विवाद न्यायमूर्ति जसपाल सिंह के समक्ष आया तो भामंस के अधिवक्ता की अनुपस्थिति में अन्य श्रम संगठनों के अधिवक्ताओं ने एक राय बनाई कि स्थायी समिति के अध्यक्ष यद्यपि मुख्य श्रम आयुक्त ही रहेंगे किन्तु यदि कोई विवाद स्थायी समिति में समाहित न हो सके तो उसे श्रम मंत्रालय के न्यायमूर्ति एन.सी. कोचर (सेवानिवृत्त) के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। इसीलिए यह विवाद न्यायमूर्ति कोचर के समक्ष प्रस्तुत किया गया। न्यायमूर्ति कोचर के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए भा.म.संघ ने दिनांक 28.6.99 को तर्क दिया कि सत्यापन 31.12.89 को हुआ था, लेकिन उसके परिणामों की घोषणा 27.12.96 को की गई, अत: पुन: सदस्यता सत्यापन 27.12.2000 के पश्चात् ही होना चाहिए। न्यायमूर्ति कोचर ने अपने निर्णय में सदस्यता सत्यापन के लिए आधार तिथि 31.12.97 ही निश्चित की। भामसं ने उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति के निर्णय को चुनौती दी और अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सदस्यता सत्यापन की तिथि अभी आई नहीं हैं तथा 6.4.98 को श्रम मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में श्रम मंत्रालय द्वारा निश्चित किए गए विषयों पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ। विचारार्थ विषय हैं- 1. क्या पुन: नए सदस्यता सत्यापन की आवश्कयता है। 2. यदि है तो आधार तिथि क्या हो? दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी.लोकुर ने कोचर के आदेश को रद्द करते हुए न केवल उक्त प्रश्न रखे, अपितु सम्बंधित विषय पुन: उनके समक्ष विचारार्थ वापस भेजा।

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