Gurukulam : राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने खोला भारतीय ज्ञान का खजाना
May 9, 2025
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Panchjanya Gurukulam : राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने खोला भारतीय ज्ञान का खजाना, रखे अनुभवजन्य ज्ञान के सूत्र

पाञ्चजन्य के गुरुकुलम सम्मेलन में राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने भारतीय ज्ञान परंपरा और गुरुकुल पद्धति की महत्ता पर दिया जोरदार वक्तव्य। जानें शिक्षा के इतिहास से लेकर भविष्य तक की बातें

by SHIVAM DIXIT
Apr 6, 2025, 01:44 pm IST
in भारत, गुजरात
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ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर (गुजरात) । राष्ट्रीय पत्रिका पाञ्चजन्य द्वारा श्री स्वामीनारायण संस्कारधाम गुरुकुल, ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर में 6 अप्रैल 2025 को “भारतीय ज्ञान परंपरा का विस्तार एवं आधार: गुरुकुल” विषय पर एक दिवसीय गुरुकुल केंद्रित कार्यक्रम “गुरुकुलम” का आयोजन किया जा रहा है। इस सम्मेलन में गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत जी ने “भारतीय ज्ञान परंपरा का महत्व, ऐतिहासिक विरासत एवं वर्तमान प्रासंगिकता” पर अपना मुख्य वक्तव्य प्रस्तुत किया।

राज्यपाल आचार्य देवव्रत जी ने अपने संबोधन की शुरुआत में कहा, “मैं भारत प्रकाशन लिमिटेड और पाञ्चजन्य साप्ताहिक को बहुत-बहुत बधाई देता हूं कि इन्होंने भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति को जनमानस तक पहुंचाने और भारतीय जीवन मूल्यों में भारतीय विरासत की स्थापना के लिए एक बहुत बड़ी पहल की है। मानव के जीवन में शिक्षा से बड़ा परिवर्तन का दूसरा कोई साधन नहीं होता। आप इस बात को इससे समझ सकते हैं कि अंग्रेजों ने जब इस देश पर राज्य किया, तो उन्होंने पूरे देश का भ्रमण कर यह देखा कि लंबा शासन हम तभी चला पाएंगे, जब यहां की शिक्षा नीति को बदल दिया जाएगा। इसके लिए 1835 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया। लॉर्ड मैकाले ने दो बार भारत का भ्रमण किया – पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण। उसने अपनी रिपोर्ट में बताया कि भारत में अंग्रेजों का स्थायी राज्य तभी चल पाएगा, जब यहां की गुरुकुल और शिक्षा पद्धति को पूरी तरह नष्ट कर दिया जाएगा। उसने कहा कि इस देश में तो गांव-गांव में गुरुकुल चलते हैं। कोई स्थान ऐसा नहीं, जहां कुछ उद्योगपति, कहीं राजाओं की राजकीय व्यवस्था से, तो कहीं लोगों के आपसी सहयोग से गुरुकुल संचालित होते हैं। इस देश में शिक्षा की गुरुकुल परंपरा का इतना मजबूत स्थायित्व है कि जब तक उनमें पढ़ने वाले बालक पैदा होते रहेंगे, तब तक भारत में अंग्रेज अपना राज्य स्थायी रूप से स्थापित नहीं कर सकते।”

उन्होंने आगे कहा, “अंग्रेजों को पता था कि जब हम यहां की पाठ पद्धति को बदलेंगे और गुरुकुल प्रणाली को तोड़ेंगे, तभी बात बनेगी। उन्होंने ऐसा ही किया। जो लोग दानदाता गुरुकुलों को अपने सहयोग से चलाते थे, उन पर दबाव डाला गया और दान देना बंद कराया गया। इसके बाद भी जो दान देते थे, उन्हें दंडित किया गया। जो गुरुकुल राजाओं की व्यवस्था से चलते थे, उन पर दबाव डालकर सहयोग बंद करवाया गया। पूरे देश में उन्होंने भारतीय गुरुकुल परंपरा को तोड़ा और अपनी स्कूली व्यवस्था, मैकाले की पाठ पद्धति को लागू किया। उनका उद्देश्य था कि हम भारत में ऐसे लोग पैदा करें, जो हमारे काम को बढ़ाने में सहयोग दें, अपनी मूल्यवान विरासत को भूल जाएं और अंग्रेजों को सर्वोपरि बुद्धिमान मानते हुए हमारे चरणों में रहें। भाइयों और बहनों, यह दुर्भाग्य रहा कि उस समय जो अभियान उन्होंने चलाया, उसमें वे पूर्ण रूप से सफल हुए। आश्चर्य की बात यह है कि भारत आजाद होने के बाद भी कुछ ऐसे लोग थे, जो अंग्रेजों के समय उनकी व्यवस्था का विरोध करते रहे, लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद हमने उनकी व्यवस्था को और मजबूती से लागू किया। हमने उसी पाठ पद्धति को आगे बढ़ाया, जिसने हमारी भाषा को बदल दिया, हमारी वेशभूषा को बदल दिया, जिसने हमारी संस्कृति पर सीधी चोट की, जिसने हमारे खान-पान और जीवन शैली में आमूलचूल परिवर्तन किया। उसमें वे लोग सफल हुए और उसका आधार बनी शिक्षा।”

आचार्य देवव्रत जी ने शिक्षा के महत्व पर जोर देते हुए कहा, “मैं जो चर्चा आपके बीच में करने जा रहा हूं, वह यह है कि मानव जीवन में शिक्षा का कितना बड़ा महत्व है। बालक कोमल होता है। उसे जो विचार बचपन में पढ़ाई के समय दिए जाएंगे, जिस वातावरण में वह रहेगा, वैसा ही उसका भावी निर्माण होगा। प्राचीन भारत में पढ़ाई का मूल केंद्र बालक ही होता था। आजकल की शिक्षा पद्धति में पढ़ाई का केंद्र बालक बहुत बाद में आता है। पहले हमारी सोच रहती है कि भव्य भवन कितना आकर्षक और सुंदर बनना चाहिए। उसके बाद उस भवन में डेस्क, बेंच कितने चमकदार होने चाहिए। फिर स्मार्ट क्लास के लिए बोर्ड कैसे होने चाहिए। ड्रेस कैसी होनी चाहिए। इन आडंबरों में हम उलझे रहते हैं। लेकिन प्राचीन भारत में शिक्षा का केंद्र था विद्यार्थी, बालक, ब्रह्मचारी। उसे ब्रह्मचारी कहते थे। वह विद्या का केंद्र था, जिस पर सारा फोकस होता था। प्राचीन भारतीय परंपरा के ऋषि इस बात को जानते थे कि असली चीज है बालक में विचारों को फूंकना। और विचार वही दे सकता है, जिसमें स्वयं विचारों का पुंज हो। इसलिए प्राचीन भारत में गुरु को क्या कहते थे? आचार्य व्यास से पूछा गया, ‘आचार्य किसे कहते हैं?’ तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘आचार्य उसे कहते हैं, जो बालक को केवल ज्ञान तक सीमित नहीं रखता, उसे केवल रोटी, कपड़ा, मकान के लिए तैयार नहीं करता, अपितु जो अपने सान्निध्य में आए बालक के समग्र विकास का ठेका लेता है, जिम्मेदारी लेता है, आचार देने की शिक्षा करता है, उसे आचार्य कहते हैं।’ यह था आचार्य।”

उन्होंने गुरुकुल की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा, “गुरुकुल क्या थे? गुरुकुल का शाब्दिक अर्थ कितना सामान्य और सरल है। एक होता है पिता का कुल, दूसरा होता है आचार्य का कुल, गुरु का कुल। जब बालक जन्म लेता है, तो वह पिता के कुल में जन्म लेता है। वहां माता और पिता दोनों मिलकर उसे पालते हैं, बड़ा करते हैं। जो भी संस्कार पद्धति थी इस देश में, ध्यान करें। आज जो लोग शिक्षा की बात करते हैं, वे हमारी पद्धति के कहीं नजदीक भी नहीं टिकते। हमारे यहां बालक को कितना केंद्र माना जाता था। भाइयों और बहनों, ध्यान करें। जब विवाह के बाद पति और पत्नी गृहस्थ में प्रवेश करते थे, तो वे ध्यान करते थे कि हमने इस राष्ट्र के भावी कल्याण के लिए, अपने घर की उन्नति, प्रगति और परंपराओं को जीवित करने के लिए एक आत्मा का आवाहन किया। अपने घर में संतान की प्राप्ति की इच्छा करते थे। गर्भाधान संस्कार इतना आध्यात्मिक और धार्मिक होता था। इस राष्ट्र के उत्थान और पतन, समाज के उत्थान और पतन का आधार होता था। वहां से विचार जन्म लेता था। चिंतन के साथ एक बालक का आवाहन करते थे। जब बालक मां के गर्भ में होता था, तो उस समय धार्मिक प्रक्रिया, यज्ञ, वेद आदि के मंत्रों के द्वारा विधिवत पाठ करके एक पवित्र आत्मा का आवाहन किया जाता था। माता गर्भवती होती थी। गर्भ में उसका संस्कार होता था। उसका सीमंतोन्नयन संस्कार होता था। मां को गुरुजनों द्वारा निर्देश दिया जाता था कि इस समय तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बुढ़ापे की लाठी तुम्हारे घर में जन्म ले रही है। जो संतान आएगी, उसी से समाज और राष्ट्र का उत्थान और पतन निहित है। इसलिए, देवी, जब तक संतान गर्भ में है, उत्तम ग्रं CURLTHS का स्वाध्याय करो, उत्तम चित्रों का दर्शन करो, अपनी पवित्रता रखो, यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को जीवन का अंग बनाओ। वही सारी विचारधाराएं गर्भस्थ शिशु को प्राप्त होती थीं। फिर जातकर्म संस्कार, उसके बाद नामकरण संस्कार, उसके बाद अन्नप्राशन संस्कार, फिर निष्क्रमण संस्कार, फिर वेदारंभ संस्कार, फिर ग्रहस्थ संस्कार, फिर वानप्रस्थ संस्कार, फिर संन्यास संस्कार। तब जाकर पूरी आयु के बाद व्यक्ति मोक्ष के रास्ते की ओर बढ़ता था। यह 16 संस्कार केवल और केवल बालक का निर्माण करने के लिए थे। उसको संस्कारों की भट्टी में तपाया जाता था। यह था भारत के ऋषियों का इतना बड़ा विज्ञान।”

उन्होंने आधुनिकता और भारतीय परंपरा की तुलना करते हुए कहा, “आज सब कुछ हमारे पास है। ध्यान करें, भाइयों और बहनों। आज के मानव ने विज्ञान के आधार पर प्रकृति पर बहुत बड़ी विजय प्राप्त की है। इसे नकार नहीं किया जा सकता। आज व्यक्ति दीये की जगह लाइट जलाता है। बैलगाड़ी की जगह नए-नए आविष्कार और वायुयान बन चुके हैं। आज रेलवे हैं, नहरें हैं, सड़कें हैं, कारखाने हैं, लग्जरी लाइफ है, सब कुछ है। लेकिन मानव में जो इंसानियत होनी चाहिए, मनुष्य में जो मानवता होनी चाहिए, उस दृष्टि से आज दुनिया बहुत बड़े अभाव से गुजर रही है। आज वह दिखाई नहीं देता। ऐसा मनुष्य जो दूसरे के हृदय के स्पंदन को अपने अंदर अनुभव कर सके, ऐसा मनुष्य जो दूसरे की आंखों के आंसुओं को अपनी आंखों से बहा सके, ऐसा मनुष्य जो दूसरे के दर्द को अपने हृदय रूपी मर्म से ठीक कर सके, यह सब चीजें आज धरातल पर टिकती नहीं। मानव, मानव से डर रहा है। देश, देश से लड़ रहा है। खून की नदियां बह रही हैं। मनुष्यता बालों में बंट गई है। एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। भाई-भाई के मुकदमे चल रहे हैं। पड़ोसी, पड़ोसी से बैठकर बातचीत नहीं कर सकते। किसी काम का विकास है। वह इंसानियत, वह मानवता, जो गुरुकुल पद्धति में इस देश का गुरु कहता था, वह कहता था, ‘यह तो सर्वं भूतानां आत्मा पशुपति, यह सर्वेश्वर बुद्ध में चिकित्सा थी।’ दुनिया में एक गुरु यह उपदेश देता था अपने बालक को, ‘बेटे, आत्मा का विकास करो, विचारों का विकास करो। यह दुनिया तुम्हारी है और तुम इसके हो। दुनिया में वही सुखी रहेगा, जो किसी को बनाना जानता है या किसी का बनाना जानता है।’ यह चिंतन भारतीय दर्शन था। इसी चिंतन के सूत्र को आज हम दुनिया में गूंजना चाहते हैं। यह भारतीय संस्कृति का आधार इन्हीं विचारों से बना था।”

उन्होंने एक श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा,
“अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।”

“यह तेरा है, यह मेरा है, यह अपना है, यह पराया है – यह बहुत छोटी सोच के लोगों की बात है। महान लोग वे होते हैं, जो दूसरों में अपनापन देखते हैं, जो अपनी आत्मा को दूसरी आत्मा में देखते हैं और दूसरी आत्मा का दर्शन अपने अंदर करते हैं। यह पाठ इस देश में पढ़ाया जाता था। यह हमारा दर्शन था। हमारे वेद, उपनिषदों में यही विषयों से भरे पड़े हैं। गीता यही दर्शन देती है। हमारे शास्त्र यही उपदेश करते हैं। भाइयों और बहनों, इन्होंने इस धरती पर सुख-शांति का मार्ग प्रशस्त किया था। यहां प्राणी मात्र का कल्याण हो, यह उपदेश दिया जाता था। आज हम देखते हैं कि लोग छोटे-छोटे बाड़ों में बंट रहे हैं। यह जो बाड़े बने हैं, बहुत पुराने नहीं हैं, अभी बने हैं।”
उन्होंने भारतीय वैभव का उल्लेख करते हुए कहा, “हम विरासत की बात करें तो जिस दिनों यूरोप के लोग बल्कल वस्त्र पहनकर गुजारा करते थे, उस समय ढाका का मलमल देश में एक माचिस की डिब्बी में बंद होता था। भाइयों और बहनों, पुष्पक विमान पर यह यात्रा होती थी। यहां का वैभव कितना था कि इस देश को सोने की चिड़िया बोलते थे। दुनिया भर के लुटेरे, आक्रांता इस देश में आए। यह इसलिए आए थे कि यहां बहुत कुछ उनको मिलता था। जहां कुछ मिलता ही न हो, वहां चोर जाकर क्या करेगा? कोई किसी झोपड़ी में रात को घुसेगा क्या? वहां कुछ नहीं है। वह वही जाएगा, जहां कुछ मिलता है। यहां हूण आए, मंगोल आए, यहूदी आए, पारसी आए, मुगल आए, अंग्रेज आए। यह सारे लुटेरे बनकर आए थे। क्योंकि यह धन से परिपूर्ण देश था। इस वैभव की कमी नहीं थी। यह देश विश्व का गुरु था। इसका प्रमाण उस कल में मनु ने हिमालय की चोटी पर खड़े होकर दुनिया के लोगों के लिए कहा था, ‘ऐ दुनिया के लोग, यदि तुम साइंस, टेक्नोलॉजी सीखना चाहते हो, विज्ञान पाना चाहते हो, आध्यात्मिकता पाना चाहते हो और अपने जीवन को सुखी व चरित्रवान बनाना चाहते हो, तो अपने-अपने देश से बिस्तर-बोरिया बांधकर भारत में आओ और यहां के गुरुओं के चरणों में बैठकर विद्या प्राप्त करो।’”

उन्होंने प्राचीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए कहा, “शास्त्रों को पढ़ें। वह यह वर्णित है। सारी दुनिया जैसे आज हम लोग कहते हैं कि मेरा बेटा ऑस्ट्रेलिया में पढ़ता है, मेरा अमेरिका में पढ़ता है, किसी का किसी देश में पढ़ता है। एक कल था, जब सारी दुनिया के लोग भारत में पढ़ने आते थे। यहां की यूनिवर्सिटी – तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला – ऐसी थीं। इस देश में अनपढ़ व्यक्ति ढूंढने से भी नहीं मिलता था। इसका प्रमाण हमारी उपनिषदों में है। अश्वपति राजा महर्षि उद्दालक से कहते हैं, ‘मेरे पूरे राज्य में ढूंढने से भी अनपढ़ आपको नहीं मिलेगा।’ यह व्यवस्था क्यों थी? क्योंकि इस देश में, भाइयों और बहनों, जब बेटा-बेटी 6 साल के हो जाते थे, तो राजकीय व्यवस्था थी कि 6 वर्ष के बाद कोई माता-पिता अपने बेटे-बेटी को घर में रख ही नहीं सकता था। उसका उपनयन संस्कार गुरुकुल में जाकर होता था। यह अनिवार्य था। जो व्यक्ति अपने बालक-बालिका को गुरुकुल में नहीं भेजता था, उसे राजकीय व्यवस्था की ओर से दंडित किया जाता था। यहां शिक्षा अनिवार्य थी और शिक्षा भी गुरुकुलीय थी।”

उन्होंने गुरुकुल की संरचना को समझाते हुए कहा, “मैं जो आपके बीच में बताने जा रहा था – दो कुल हैं। एक पिता का कुल, जिसमें बालक ने जन्म लिया। वह कुल छोटा है। उस कुल में कितने भाई-बहन हैं? आजकल जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, दो-तीन भाई-बहन से ज्यादा नहीं होते। माता-पिता, कहीं दादा-दादी। अब तो दादा-दादी को भी वृद्धाश्रम में भेज रहे हैं। क्योंकि मैकाले की यही शिक्षा थी। अपनों के लिए घरों में जगह नहीं बची है। यह हमारी शिक्षा है। बेटा डॉक्टर है, इंजीनियर है, बैरिस्टर है, बड़ा अधिकारी है या पैसे कमाता है, लेकिन बूढ़े मां-बाप के लिए उसके घर में चारपाई बचाने की जगह नहीं बची है। वृद्धाश्रम बनाए जा रहे हैं। हम झूठे पड़ते हैं। इस काम के लिए हर नगर और शहर में वृद्धाश्रम हैं। यह वृद्धाश्रम बाहर होते थे। भारत में इनकी कोई जगह नहीं थी। यहां वानप्रस्थ आश्रम होते थे। संन्यास आश्रम होते थे। रोटी खाने के लिए एक आदमी को एक कोने में डाल देना, इसकी कोई व्यवस्था नहीं थी। वह आत्मा के विकास का साधन होता था। वानप्रस्थ कोई घर से दुखी होकर नहीं जाता था। वह अपने कर्तव्य और आत्मा के विकास के लिए जाता था। मैं यह चर्चा भी करता हूं आपके बीच। जब बालक 6 साल का होता था, तो आप सब जितने भाई-बहन गृहस्थ बैठे हैं, आपको भी पता होगा कि घरों में जिम्मेदारियां बहुत होती हैं। आपको दुनिया भर के काम-धंधे हैं। अब आप बालक पर पूरा समय नहीं दे सकते। बालक हमारे परिवार, राष्ट्र, समाज की सबसे बड़ी पूंजी है। प्राचीन भारत के ऋषियों ने व्यवस्था की कि 6 वर्ष के बाद, जब तक वह खुद पैरों पर न खड़ा हो जाए, तब तक उसे गुरुकुल में भेजो। क्यों भेजें? इसलिए भेजें कि गृहस्थ के पास काम अनेक हैं, और गुरुकुल में पढ़ाने वालों के पास काम केवल एक है। वह काम क्या है? अपने सान्निध्य में आए बालक का विकास करना, शिक्षा से दीक्षित करना, विचारों से उन्नत बनाना, उसे धर्मात्मा, जितेंद्रिय, परोपकारी बनाना। यह उन गुरुओं का काम होता था। अब वह छोटे कुल से, पिता के कुल से निकाल दिया जाता है और बड़े कुल में डाला जाता है, जिसका नाम गुरुकुल है।”
उन्होंने गुरुकुल के माहौल का वर्णन करते हुए कहा, “उस गुरुकुल में अब उसके अनेक भाई हैं। एक-दो बालक नहीं। वहां तो सैकड़ों-हजारों हैं। वे एक जगह के नहीं हैं। वे अपने देश के कोने-कोने से आते हैं। ऐसे वातावरण में जब बालक एक परिवार की तरह पढ़ेगा, तो राष्ट्र की एकता को कौन रोक सकता है? भाईचारा, प्यार और संस्कृति को विकसित होने का अवसर कैसे नहीं मिलेगा? गुरु कौन था, यह भी ध्यान करें। वहां गुरु वेतनभोगी नहीं होते थे। जो आजकल मैकाले की पद्धति में व्यवस्था है, वह उस समय नहीं थी। गुरु कौन होता था? अब ध्यान करें। वह 20-22 साल का एक पढ़-लिखकर ट्रेनिंग देने वाला नहीं था। यह विद्या नहीं है, जो आज पढ़ाई जा रही है। यह जानकारियां हैं। यह जानकारियां हैं, जो स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में इस समय दी जा रही हैं। यह विद्या नहीं है। विद्या तो वह है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के संकटों से पार कर मोक्ष में ले जाने वाली हो। एक लंबा विषय है, उसकी चर्चा मैं नहीं करूंगा। मैं केवल गुरु की परंपरा पर आपके बीच में बोलूंगा। वहां गुरु कौन होते थे? वानप्रस्थ। और वह वानप्रस्थ कौन थे? ध्यान करें। वे बचपन में इन्हीं गुरुकुलों में पढ़े थे और गृहस्थ में जाकर गढ़े थे। समझ में आई कि नहीं? कुछ बोलो, भाइयों। कमजोर विद्यार्थियों की तरह हां या ना करो। मैं तो सारी जिंदगी बच्चों को पढ़ाता रहा हूं।”

उन्होंने गुरु और शिष्य के संबंध को समझाते हुए कहा, “सोचिए, एक ऐसा विद्यार्थी जिसने जीवन के कोई अनुभव नहीं लिए, उसने बी.एड. कर लिया और पढ़ाने लगा दिया। उसने जीवन के उतार-चढ़ाव देखे नहीं। स्वयं का जीवन तपस्वी उस तरह का नहीं है। ऐसे बालक को, ऐसे युवा को आप अपने परिवार के उस बालक को सौंप रहे हैं, जो आपकी सबसे बड़ी पूंजी है। भगवान न करें, आजकल ऐसे भी गुरुजी मिलते हैं, जो नशा करते हैं, जो गलत संगत में पड़ते हैं, खुद ही टीवी, मोबाइल से दूर नहीं होते। जिनका अपना ही जीवन कुछ नहीं है। जो खुद बुझा हुआ दीपक है, वह दूसरों को कैसे जलाएगा? यह भी प्राचीन भारत के ऋषियों ने सोचा। वह गुरु वही बनता था, जो बचपन में गुरु के सान्निध्य में पढ़ा था और गृहस्थ में उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, ऊंचा-नीचा देखकर पूरा कर चुका था। समझ गए न? उन अनुभवों से परिपूर्ण व्यक्ति गुरु होता था, जो वेतन नहीं लेता था। अपना जीवन राष्ट्र की भावी संतान को अपनी शिक्षा और अनुभव के द्वारा देता था। उसे बोलते थे आचार्य। उपनिषद में आचार्य का एक नाम और भी है। सुनें, ध्यान से – अग्नि। आचार्य सब अग्नि कैसे?”

उन्होंने गुरुकुल में प्रवेश की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहा, “गुरुकुलों में विद्यार्थी कैसे जाते थे? प्राचीन भारत में उसका तरीका था। जब 6 वर्ष का बेटा-बेटी होते थे, तो मां बेटी की उंगली पकड़ती थी और पिता बेटे की उंगली पकड़ता था। ‘चलो बेटे, अब हमारे पास तुम्हें देने के लिए जो कुछ था, वह दे चुके। अब इससे आगे हमारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे लोगों के पास तुम्हें ले जा रहे हैं, जो तुम्हें जीवन का अनुभव भी देंगे, विद्या से परिपूर्ण भी करेंगे। उनका नाम आचार्य है। उन्हें हम तुम्हें सौंपकर आएंगे।’ जब बालक घर से चलता था, उसके एक हाथ में तीन संविदाएं होती थीं और एक हाथ में पिता की उंगली होती थी। संविदाएं, जिसे आज की भाषा में तीन लकड़ियां कहते हैं। संविदाएं उसे बोलते हैं, जिससे यज्ञ-हवन किया जाता है। वह लकड़ियां कैसी थीं? सीधी थीं, टेढ़ी-मेढ़ी नहीं। सरल थीं। लगभग आठ अंगुल की होती थीं। वह प्रतीक था। वह संविदाएं उस बच्चे के हाथ में होती थीं। जब गुरुकुल में दोनों जाते थे, तो वह बालक गुरु के चरणों में अभिवादन करता था और कहता था, ‘है आचार्य, आप अग्नि रूप हो। मैं बालक इन संविदाओं के समान हूं। मैं भी सीधा-सादा हूं। यह टेढ़ी-मेढ़ी नहीं हैं। मैं टेढ़ा-मेढ़ा नहीं हूं। यह साफ-सुथरी हैं। मैं साफ-सुथरा हूं।’ भाइयों, बच्चों को बच्चा क्यों कहते हैं? जो सारी बुराइयों से बचा हुआ है, इसलिए बच्चा है। वह बालक गुरु को क्या बोलता है? ‘गुरुजी, आप अग्नि स्वरूप हो। आप प्रकाश पुंज हो। विद्या का भंडार हो। आप विद्या के जलते हुए चिराग हो। यह जो संविदाएं मेरे हाथ में हैं, इनमें जलने की क्षमता तो है। यह जल तो सकती हैं, लेकिन यह तब जलेंगी, जब इनको अग्नि का संपर्क मिलेगा। अग्नि का संपर्क नहीं मिलेगा, तो जलने की योग्यता रखते हुए भी यह लकड़ियां, यह संविदाएं नहीं जल सकतीं। इसलिए, हे आचार्य, मैं इन संविदाओं के समान हूं और आप जलते हुए चिराग हो, विद्या के पुंज हो। मैं विद्यार्थी, मैं संविदा हूं। अपने जीवन को आप अग्नि आचार्य को समर्पित करता हूं। आपके संपर्क में आकर मैं भी जल उठूंगा। विद्या से परिपूर्ण हो जाऊंगा। ज्ञान से परिपूर्ण हो जाऊंगा। मेरा जीवन भी महानता की ओर बढ़ेगा। मैं भी आचारवान बन जाऊंगा। इसलिए मैं आपके चरणों में समर्पण करता हूं।’ यहां से पाठ शुरू होता था।”

उन्होंने गुरु की जिम्मेदारी पर प्रकाश डालते हुए कहा, “फिर आचार्य क्या बोलता था? माता-पिता ने तो बच्चे को सौंप दिया। अब इस देश का आचार्य कितना महान था। वह भी माता-पिता को आश्वस्त करता था, ‘हे माता-पिता, आपने मुझ आचार्य में विश्वास प्रकट किया है। आपने अपनी इस सबसे प्रिय संतान को मुझे दिया है।’ विद्या के रूप में कैसे विद्यार्थी और गुरु का संबंध होता था? कोई कल्पना हो सकती है इससे बड़ी उपमा? भाइयों और बहनों, जब मां के गर्भ में बच्चा होता है, तो बच्चा भोजन नहीं लेता। मां के भोजन से उसका भोजन हो जाता है। बच्चा पानी नहीं मांगता। मां के पानी पीने से वह पानी पी लेता है। बच्चा चलता नहीं। मां के चलने में उसका चलना होता है। बच्चा सोता नहीं। मां के सोने में उसका सोना होता है। मां के रक्त से, बूंद-बूंद से उसका निर्माण होता है। विचार उसके उससे जुड़े हैं। कितनी बड़ी उपमा है। जैसे मां के गर्भ में बालक को मां संभालकर रखती है, इस देश का गुरु, आचार्य होता था। वह अपने गुरुकुल में माता-पिता को यह जिम्मेदारी के साथ घोषणा करता था, ‘आप निश्चिंत रहें। आपने मुझे बालक दिया है, तो मैं इसे ऐसे संभाल लूंगा, जैसे मां के पेट में बच्चा संभालकर रहता है। मैं इसको विद्या से परिपूर्ण करूंगा। मैं इसे गुणवान बनाऊंगा, धर्मात्मा बनाऊंगा, जितेंद्रिय बनाऊंगा, परोपकारी बनाऊंगा, बलवान बनाऊंगा, विद्यावान बनाऊंगा।’ यह था इस देश की गुरुकुल पद्धति का आधार।”

उन्होंने गुरुकुल के स्थान और जीवनशैली पर कहा, “वह गुरुकुल होते कहां थे? वेदों में लिखा है, यह जो आज कल संस्थान बच्चों के लिए बनाए गए हैं, वहां बच्चे क्या सीखेंगे? गंदगी, कहीं शराब पीने वाला गली में पड़ा है, कहीं धूम्रपान करता बराबर से निकल रहा है, कहीं माता-पिता, बड़े पड़ोसियों की लड़ाई-झगड़ा बज रहा है। क्या देखेगा बालक?

लेकिन इस देश के गुरुओं का चिंतन देखिए। गुरु के आश्रम, गुरुकुल कहां होते थे? पहाड़ों की कंदराओं में, नदियों के संगम पर, प्रकृति की गोद में। जहां किसी भी प्रकार का भौतिक विचार करने वाला पर्यावरण का प्रदूषण नहीं। ऐसे पवित्र जंगलों के बीच में गुरुओं, ऋषियों के आश्रम थे। वहां बालक प्रकृति के महत्व को जानता था कि मुझे पर्यावरण को बचाना है। इन बहाने वाली नदियों के पानी को पवित्र रखना है। आज हम स्किल की बात करते हैं। पढ़ाई के साथ स्किल जोड़ना चाहिए। आज सूचना की बात करते हैं। प्राचीन भारत में ऋषियों के आश्रम में गौमाताएं थीं। वे विद्यार्थियों का पालन-पोषण करती थीं। ऋषियों के आश्रम में खेती-बाड़ी थी। इन गायों के द्वारा प्राकृतिक गोबर, गोमूत्र से उनकी कृषि होती थी। वहां जंगलों में लकड़ी चुककर खुद लाते थे। खुद काम करते थे। अपने बने वस्त्रmuहैं। सारा हाथ से काम होता था। इस देश के बालक को तपस्वी बनाया जाता था। ध्यान करें, तपस्वी बन जाता था। चाहे राजा राम हों, चाहे भगवान कृष्ण हों। जब गुरुकुल में गए, उनके लिए अलग पलंग की व्यवस्था नहीं थी। उनके लिए अलग खान-पान की व्यवस्था नहीं थी। उनके लिए अलग शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। भारत की प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में एक खान-पान, एक वस्त्र, एक जैसी शिक्षा, एक जैसी व्यवस्था थी। समाजवाद भाषण और नारों से नहीं होता था। यह प्रैक्टिकल समाजवाद का नारा था। सारे देश के मां-बाप के बच्चे पढ़ते थे। न कोई छोटा है, न बड़ा। सब एक भाई-भाई रहते थे। विद्या उनकी माता थी। गुरु उनके धर्म के पिता थे।”

उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण पर कहा, “गायों की वे सेवा करते थे। खेती स्वयं करते थे। आत्मनिर्भर थे। लकड़ी के तख्ते पर या धरती पर सोते थे। आप सब से मैं पूछता हूं, भाइयों-बहनों, उत्तर देना। एक बालक को हम आज ऐसा बना रहे हैं। हमारी माताएं पीछे बैठी हैं। हम इतना पैसा कमा रहे हैं। बच्चा मिट्टी में खेलता है, तो मन थोड़ा जाता है। मिट्टी लग गई। कितना बड़ा पाप मान लिया। कोई कहीं पशु को हाथ लगा दे, तो गंदा हो गया। साबुन से धो दो। क्या कल बना दिया? इस देश में बच्चे मिट्टी में खेलते थे। मिट्टी में पढ़ते थे। पशु और खेती के सान्निध्य में रहते थे। लकड़ी के तख्ते पर सोते थे। आपसे मैं यह पूछना चाहता हूं – एक बालक को बचपन से आप मखमली गद्दों पर सुलाएं, 24 घंटे मोहनभोग दें, उसे बिल्कुल धूप भी न लगे और उसकी जिंदगी लग्जरी लाइफ बना दें। ऐसे बालक को जीवन में कोई कष्ट आ जाए – और जीवन तो सुख-दुख से जुड़ा हुआ है, कौन बचा है? सुख और दुख तो आएंगे। लेकिन ऐसे कोमल बालक को दुख जीवन में आ जाए, तो क्या वह उन दुखों से लड़ाई लड़ सकता है? नहीं लड़ सकता। फिर तो ऊपर देखकर घूमने वाले में लटकने के लिए वही उसके पास दुख से बचने का रास्ता है। इधर, हमारी गुरुकुल परंपरा को देखिए। यहां राजा का हो या रंक का, हर किसी को गुरुकुल में पढ़ना है। हर किसी को जंगल से लकड़ी चुकानी है। हर किसी को गायों की सेवा करनी है। हर किसी को खेती-बाड़ी करनी है। हर किसी को गुरुकुल में झाड़ू लगाकर अपना काम करना है। धरती पर सोना है। ऐसे बालक को जीवन में कोई कष्ट आएगा, तो क्या दिक्कत पड़ेगी? क्यों, भाइयों? वह तो अभ्यस्त है। उसको बचपन में तैयार किया है। इसलिए भारत की शिक्षा पद्धति में, गुरुकुल पद्धति में यह पहला पाठ था – संयम से धरती पर सोना, तपस्वी जीवन जीना, कठोर जिंदगी जीना। एक बालक को लकड़ी के तख्ते पर सोने वाले को यदि गद्दा मिल जाए, तो मजे मारेगा कि नहीं सोने में? और गद्दे वाले को सूखा लकड़ी का तख्ता मिल जाए, तो सारी रात करवट बदलेगा। यह अंतर है। तपस्वी बनाना, यह हमारी संस्कृति का लक्षण था। जीवन में सुख-दुख आएंगे, उनको सहन करना, यह गुरुकुल पद्धति थी।”

उन्होंने भारतीय योगदान पर कहा, “भाइयों और बहनों, यह लंबा विषय है। यह गुरुकुल व्यवस्था, जिसमें अभी आदरणीय हितेश शंकर जी बता रहे थे कि हमने दुनिया को क्या दिया? हमने दिया। और किसने दिया? भारत ने दिया। यहां से सारी विद्या दुनिया में गई है। यहीं से सारा विज्ञान दुनिया में गया है। आज साइंटिस्ट लोग क्या बोलते हैं कि इस दुनिया को बने लगभग 2 अरब साल हुए? वे कहते हैं, लगभग 2 अरब साल। भारत में लगभग नहीं था। हमारे गणित के ज्ञाता, काल गणना जानते थे। आज भी वह सृष्टि संवत है। साइंटिस्ट कहते हैं, लगभग 2 अरब साल दुनिया को बने। हम क्या कहते हैं? लगभग नहीं। एक अरब 96 करोड़ 85 लाख 31 हजार 25 साल दुनिया को बने हो गए। यह हमारी काल गणना। यह गणित। कुछ ऐसे धर्म अपने आप को बताते हैं, जिनके धर्मग्रंथ में गणित ही नहीं है। विज्ञान का शब्द ही नहीं है। और जो कहते हैं, हमने दुनिया को विकास दिया। यूरोप के लोग, उनके हाथों में उनके धर्मग्रंथ में धरती चपटी है आज भी। और हम भारत में, हमारे ग्रंथ का नाम ही भूगोल है। भू यानी धरती। धरती गोल है। हमारे तो ग्रंथ का नाम ही भूगोल है। और उन्होंने अपने गैलीलियो जैसे वैज्ञानिक सोच के लोगों को इस बात के लिए फांसी पर लटका दिया, जिंदा जला दिया कि वह बाइबल के खिलाफ बोल रहा है। बाइबल में लिखा है धरती चपटी, यह कहता है गोल। और हमारे साइंटिस्ट – आचार्य मिहिर, आर्यभट्ट, ऐसे सारे ऋषि। ऋषि किसे कहते हैं? जो हर विषय को साक्षात करने की क्षमता रखता है। यह जो रिसर्च स्कॉलर अंग्रेजी का है, यह ऋषि का अपभ्रंश शब्द है। भारत के जितने ऋषि थे, वे सारे ही साइंटिस्ट थे। सारे ही वैज्ञानिक थे। इन्हीं अन्वेषणों के बाद उन्होंने जिन शास्त्रों का निर्माण किया, आज कोई उनको झुठला नहीं सका। हमारी जो संस्कृति, जीवन के मूल्य हैं, उनसे कोई इधर-उधर नहीं जा सका। भारत का जो वेद का अध्यात्म है, भारत के दर्शन का जो अध्यात्म है, भारत की उपनिषदों का जो अध्यात्म है, और भारत की गीता का जो अध्यात्म है, उससे हटकर सुखी होने का धरती पर परमानेंट तरीका हो ही नहीं सकता। भारत की संस्कृत भाषा और भारत के ये आध्यात्मिक ग्रंथ, यह आने वाली पीढ़ियों को सब प्रकार से धरती पर कैसे रहें और परलोक में मोक्ष का रास्ता कैसे चुनें, दोनों ही रास्तों का दिग्दर्शन हमारे द्वारा होता है।”

उन्होंने समापन में कहा, “दुर्भाग्य यह रहा कि हम दुनिया को ज्ञान देने वाले खुद अपने ग्रंथों से भटक गए। हम दुनिया भर के अंधविश्वास, आडंबरों में उलझ गए। यदि हम अपनी वैदिक परंपराओं को, जो वैज्ञानिक आधारित थीं, और इस गुरुकुल परंपरा को, जिसमें बालक का चहुंमुखी विकास किया जाता था – शारीरिक रूप से बलवान होता था, वैचारिक रूप से बहुत समृद्ध होता था, विद्या की दृष्टि से निश्चित होता था, और धर्मात्मा, जितेंद्रिय, परोपकारी बनाकर कुल के गौरव को भी बढ़ाता था, समाज का निर्माण भी करता था और राष्ट्र के उत्थान का रास्ता चुनता था – आज मैं पुनः पाञ्चजन्य साप्ताहिक, भारत प्रकाशन लिमिटेड और पूज्य स्वामी जी को बहुत बधाई देता हूं कि इन्होंने एक ऐसी भारत की विद्या को ढूंढा, जिसको बढ़ाने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। काश यह गुरुकुल परंपरा पुनर्जनन हो जाए, तो फिर यह खून-खराबा, मार-काट, चोरी, डकैती, लूटपाट, घरों का टूटना और युद्ध समाप्त हो जाएगा। क्योंकि इसमें इंसान बनेंगे। इसमें मानव बनेंगे। इसमें सही अर्थों में ऐसे मनुष्य बनेंगे, जो अपनी तरह औरों का सुख चाहें। उसी से धरती स्वर्ग बनेगी। इन्हीं शब्दों के साथ मैं भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री जी को बधाई देना चाहूंगा कि इन्होंने पिछले पुराने गली-सड़ी शिक्षा की व्यवस्था को बदलकर बहुत बड़ा परिवर्तन किया। 2020 में जो नई शिक्षा नीति बनी, वह एक नया रास्ता बनने वाली है। इसमें भी हमारे लोग जी-जान से मेहनत और निष्ठा के साथ ऐसे सम्मेलनों की ओर बढ़ रहे हैं।

आदरणीय हितेश भाई शंकर ने घोषणा की कि यह तो हमारा पहला कार्यक्रम है। ऐसे कार्यक्रमों की श्रृंखला पूरे देश और विश्व में चलेगी। यदि यह श्रृंखला चलेगी, तो अपने आप समाज बदल जाएगा। राष्ट्र की असली पूंजी हमारी संतान है। यदि संतान संस्कारी हो गई, संस्कारवान हो गई, तो अपने आप घर-परिवारों में परिवर्तन आएगा। उनसे समाज बदलेगा, समाज से देश और देश से दुनिया बदलेगी। यही काम हमारे ऋषियों ने विश्व कल्याण के लिए किया। जिस रास्ते को आप लोगों ने चुना, आपके इस सम्मेलन की मैं सफलता की कामना करता हूं और आशा करता हूं कि विचार जनमानस तक पहुंचेंगे और बहुत बड़ा विश्व कल्याण का रास्ता आगे बढ़ाएंगे। धन्यवाद।”

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