विकी कौशल की फिल्म छावा, जहां एक ओर सफलता के झंडे गाड़ती जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ इसे लेकर अनावश्यक विवाद भी जारी है। इसे लेकर कहीं सीधे तो कहीं इशारों में बातें हो रही हैं। कुछ अनावश्यक लेख लिखे जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है और ऐसा कौन कर रहा है, यह समझना कठिन नहीं है। हालांकि, इसकी शुरुआत तो छावा की रिलीज के समय से ही हो गई थी, जब इसके प्रति यह समीक्षाएं आनी आरंभ हुई थीं कि इतिहास पर बनी एजेंडा मूवी है, प्रोपोगैंडा मूवी है।
इस फिल्म की सफलता के मध्य अभिनेता जॉन अब्राहम का भी यह बयान चर्चा में रहा था कि फिल्म इंडस्ट्री अब सेक्युलर नहीं रही है। यह बयान बहुत ही हैरान करने वाला था, क्योंकि सेक्युलरिज्म से मतलब क्या होता है, यह भी समझ नहीं आता। यह बिल्कुल वही बयान है जैसा 2014 में चुनावों में भाजपा की जीत के बाद बोला जाने लगा था कि यह देश अब सेक्युलर नहीं रहा। सेक्युलरिज्म की परिभाषा में क्या आता है?
क्या सेक्युलरिज्म की परिभाषा में हिन्दू द्वेष और हिन्दू घृणा ही आती है? यह प्रश्न रह-रह कर उभरता है या फिर छावा की ऐतिहासिकता को लेकर जो प्रश्न उठा रहे हैं, उनसे भी यह पूछा जाना चाहिए कि क्या ऐतिहासिक प्रसंग स्थापित करने की बाध्यता भी उन्हीं फिल्मों को लेकर है जो हिन्दू गौरव दिखा रही है? या जो हिन्दू पीड़ा दिखा रही है?
हाल ही में द हिन्दू में एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें लिखा है कि जब सिनेमा में इतिहास केवल गुस्सा, घृणा जगाने का माध्यम बन जाता है तो हमें इतिहास की समझ से दूर कर देता है। छावा को लेकर लिखे गए इस लेख में कुछ मूवीज के नाम दिए गए हैं, जिन्हें इसने प्रोपोगैंडा बताया है और उनमें जाहिर है कि कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, स्वातंत्र्य वीर सावरकर जैसी फिल्में हैं।
पिछले कुछ समय में ऐसी फिल्में बनी हैं और यह भी स्पष्ट है कि यह कला ही है जिसके माध्यम से चीजों को स्थापित किया जा सकता है। जिस काल में जो कला प्रचलन में होती है, कथाएं उसी में कही जाती हैं। भारत में बड़ी से बड़ी बातें भी पद्य में इसीलिए कही गईं, जिनसे वे सरलता से ग्रहण की जा सकें। इन दिनों सिनेमा सबसे लोकप्रिय माध्यम है, इसलिए अब लोग कथाओं को सिनेमा या वीडियो के माध्यम से कहना और दिखाना पसंद करते हैं।
कई दशकों से भारत के कला जगत में फिर चाहे वह साहित्य हो या सिनेमा, ऐसा परिदृश्य था जिसमें भारत के बहुसंख्यक इतिहास और संस्कृति को अपमानित करना ही कला या सेक्युलरिज्म माना जाता था। ऐतिहासिक फिल्मों के नाम पर कुछ भी परोस दिया जाए, तो उस पर कोई प्रश्न ही नहीं किया जाता था। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में सबसे महान फिल्मों में से एक फिल्म है मुगलेआजम। यह फिल्म कथित रूप से मोहब्बत की फिल्म थी। इस फिल्म में अय्याश जहांगीर को मोहब्बत का मसीहा बनाकर पेश किया गया।
जो वर्ग आज छावा आदि फिल्मों को लेकर तथ्यों की बात या तथ्यों के महत्व पर लेख लिख रहा है, उस वर्ग ने आज तक इस महान फिल्म में कही गई झूठी कहानी की सच्चाई कभी दिखाने का प्रयास नहीं किया। अकबर और जहांगीर से संबंधित किसी भी पुस्तक में अनारकली नाम के चरित्र का कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। हाँ, जहांगीर की अय्याशियों के उल्लेख अवश्य प्राप्त होते हैं।
अनारकली का उल्लेख अंग्रेज यात्रियों के यात्रा वृत्तांतों में प्राप्त होता है। विलियम फिंच अकबर के समय भारत आया था। अनारकली के मकबरे के विषय में लिखा है कि यह दानियाल की माँ का मकबरा है। EARLY TRAVELS IN INDIA नामक पुस्तक में विलियम फिंच के हवाले से लिखा गया है कि यह दानियाल की माँ मकबरा है। अनारकली अकबर की ही एक बेगम थी, जिसके साथ कहा जाता है कि सलीम के नाजायज रिश्ते बन गए थे। जिसका पता लगने पर अकबर ने उसे दीवार में चिनवा दिया था।
ऐसा नहीं है कि केवल एक ही अंग्रेज यात्री ने अनारकली को अकबर की बीवी बताया हो, Edward Terry ने भी अनारकली को अकबर की प्रिय बीवी बताया है। एडवर्ड टेरी ने फिंच की भारत यात्रा के कुछ दिनों के बाद भारत यात्रा की थी। वह अपनी पुस्तक में लिखता है कि अकबर सलीम से इसलिए गुस्सा था क्योंकि उसने अपनी प्रिय बीवी अनारकली के बिस्तर पर चढ़ते हुए उसे देख लिया था।
आज जब मुगलेआजम को सबसे महान फिल्म बताया जाता है, तो क्या कोई भी के आसिफ या किसी और से यह पूछने का दुस्साहस कर सकता है कि आखिर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर क्यों पेश किया गया? ऐतिहासिक तथ्यों की बात तभी क्यों की जाती है जब कोई छावा फिल्म बनाता है या फिर कश्मीर फाइल्स या केरल स्टोरी जैसी फिल्में बनाई जाती हैं।
तथ्य, तथ्य होते हैं, उनका कोई पक्ष नहीं होता। परंतु एजेंडा फिल्में बनाने वाला बॉलीवुड अब व्यथित है क्योंकि अब तथ्यों पर फिल्में बन रही हैं, अय्याशों को मोहब्बत का मसीहा बनाने के लिए नहीं!
टिप्पणियाँ