भारत में दिल्ली सल्तनत और मुगल इतिहास में केवल एक ही महिला शासक हुई और वह थी दिल्ली सल्तनत काल में गुलामवंश के इल्तुतमिश की बेटी रज़िया। जिसे उसके अब्बा ने इसलिए गद्दी सौंपी थी, क्योंकि इल्तुतमिश के बेटे इस लायक नहीं थे, कि वह गद्दी पर बैठ पाते। इसलिए उसने अपनी बेटी को गद्दी सौंपी थी। मगर रजिया को एक अफ्रीकी गुलाम याकूब से इश्क हो गया था और रज़िया को इस कारण विद्रोह का सामना करना पड़ा और उसकी गद्दी चली गई थी।
कम्युनिस्ट इतिहासकार इल्तुतमिश को इस कारण बहुत ही प्रगतिशील मानते हैं कि उसने अपनी बेटी को गद्दी सौंपी थी। मगर क्या यह महिमामंडन इल्तुतमिश के द्वारा किए गए पापों को छिपाने के लिए है? क्योंकि इल्तुतमिश में कोई भी ऐसी बात नहीं थी, जिसके चलते उसकी तारीफ की जाती। दिल्ली में एक बहुत विख्यात स्मारक है, सुल्तान गढ़ी का मकबरा। सुल्तान गढ़ी के विषय में यह कहा जाता है कि यह भारत में किसी भी मुस्लिम का पहला स्मारक है। यह मकबरा इल्तुतमिश के बेटे की याद में बना है और इल्तुतमिश गुलाम वंश की ओर से दूसरा सुल्तान था। इस मकबरे के विषय में यह कहा जाता है कि यह मकबरा हिन्दू मंदिर की भूमि पर बना है।
सीताराम गोयल की पुस्तक hindu temples what happened to them में भी इस मकबरे के विषय में लिखा है कि यह 1235 में बनाया गया था। इस मकबरे की वास्तु भी स्पष्ट रूप से यह कहती है कि यह हिंदू मंदिरों की ही सामग्री से बना है। कई और स्रोत हैं जो यह बताते हैं कि इस मकबरे को हिन्दू मंदिरों को तोड़कर या हिन्दू मंदिरों की सामग्री से बनाया था। https://www.archnet.org/sites/1586 पर भी लिखा है कि यह मकबरा एक हिन्दू मंदिर के स्थान पर बना है।
यह स्पष्ट नहीं है कि इस स्थान पर मौजूद मंदिर को किसने तोड़ा था। मगर इस मकबरे में हिन्दू चिनाई मिलती है। https://www.delhiinformation.in पर भी यह लिखा है कि “मकबरे का कक्ष चार मीनारों पर टिका हुआ है, जो दो स्तंभों द्वारा खड़े किए गए हैं, जिनमें से प्रत्येक एक बीम को सहारा देता है, जो स्तंभों के साथ-साथ फर्श पर हिंदू मंदिरों के प्राचीन अवशेषों को प्रदर्शित करता है।“ मगर इल्तुतमिश ने जिस मंदिर को तोड़ा था, उसकी चर्चा भी नहीं की जाती है। इल्तुतमिश ने जब विदिशा पर आक्रमण किया तो भैयिल्स्वामी मंदिर को नष्ट किया। इस मंदिर को बनने में एक-दो या दस-बीस वर्ष नहीं बल्कि पूरे 300 वर्ष लगे थे।
तत्कालीन इतिहासकार मिनहाज सिराज अपनी पुस्तक तबक-ए-नासिर में लिखता है कि सुल्तान मालवा की ओर गया और भीलसा शहर पर हमला किया। वहाँ पर जो मंदिर था, और जिसके बनने में तीन सौ साल लगे थे, उसे तोड़ दिया। उसके बाद वह उज्जैन की ओर बढ़ा और उसने वहाँ पर महाकाल मंदिर को तोड़ा, जिस तीर्थ की महत्ता का विवरण महाभारत तक में प्राप्त होता है। इल्तुतमिश के हमले के कारण इस ज्योतिर्लिंग को पुजारियों ने एक कुंड में छिपा दिया था। उसके बाद इस मंदिर के अवशेषों पर औरंगजेब ने एक मस्जिद बनवा दी थी। लगभग पाँच सौ वर्षों तक महाकाल वहीं पर रहे।
हिन्दू मात्र भग्नावशेषों को ही पूजते रहे थे, मगर मराठा साम्राज्य विस्तार के लिए जब सिंधिया राजवंश के संस्थापक राणो जी सिंधिया बंगाल विजय के लिए निकले थे, तो उन्होंने जब महाकाल महादेव के मंदिर को इस प्रकार देखा तो उनका खून खौल गया और उन्होंने वहाँ के अपने अधिकारियों एवं उज्जैन के व्यापारियों को यह आदेश दिया कि उनके लौटने तक यहाँ एक भव्य मंदिर बन जाना चाहिए। जब वे बंगाल विजय के उपरांत लौटे तो वहाँ महाकाल अपने पूर्ण वैभव के साथ पधार चुके थे। और उसी के बाद लगभग 500 वर्षों तक बंद सिंहस्थ कुम्भ को उन्होंने ही पुन: आरंभ किया।
इल्तुतमिश की प्रशंसा करने वाले यह नहीं बताते हैं कि वह एक कट्टर मुस्लिम था, जिसे अपनी तुर्क पहचान से प्यार था। और उसने भारत में अरब की मुद्रा प्रणाली की शुरुआत की थी। उसे हिंदुओं से ही नहीं बल्कि मुस्लिमों के दूसरे तबकों जैसे कि शिया से नफरत थी। वह उलेमाओं को खुश करने के लिए दूसरे तबकों का दमन और भी अधिक करता था।
आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव भी अपनी पुस्तक द सल्तनत ऑफ डेल्ही में लिखते हैं कि उसने भीलसा में मुख्य मंदिर को तोड़ था और वह विक्रमादित्य और अन्य मुख्य राजाओं की प्रतिमाएं दिल्ली ले आया था। ऐसा था वह कथित प्रगतिशील इल्तुतमिश जिसकी प्रशंसा यह कहकर कम्युनिस्ट इतिहासकार करते हैं कि उसने भारत में तुर्क साम्राज्य को स्थापित किया और इतना प्रगतिशील था कि उसने अपनी बेटी को सत्ता सौंपी। ऐसा कहकर वे हिंदुओं को महिला अधिकारों पर नीचा दिखाने का असफल प्रयास करते हैं।
इन दिनों जब मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशने को लोग असहिष्णुता कह रहे हैं, उन्हें और कुछ नहीं तो कम से कम तत्कालीन मुस्लिम यात्रियों के विवरण को ही पढ़ना चाहिए, जिससे उन्हें यह पता चले कि जो इमारतें आज इतनी बुलंद हैं, उनका इतिहास दरअसल है क्या?
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