प्राचीन भारत में राजा का प्रमुख कर्तव्य न्याय का प्रशासन था। राजा पर कानून के शासन को लागू करने, लोगों को सुरक्षित रखने और बुरे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी थी। फिर धीरे-धीरे राजवंश समाप्त हो गए। मुगल आए और मुगलों ने अपने कानून भारतीय समाज पर थोप दिए जो कि दंडात्मक स्वरूप में थे। फिर ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेज देश में आए और उन्होंने शासन-प्रशासन पर कब्जा कर लिया। उनके कानून अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग तरीके से चलने लगे। लेकिन इन कानूनों का स्वरूप भी दंडात्मक ही था।
कोलकाता प्रेसिडेंसी हो, मुंबई प्रेसिडेंसी या फिर मद्रास प्रेसिडेंसी, इन स्थानों पर इनके कानून अलग-अलग से थे। अंग्रेजों द्वारा 1834 में मैकाले की अध्यक्षता में विधि आयोग बनाकर पूरे भारत में एक कानून बनाने की बात की गई। 1837 में विधि आयोग की रिपोर्ट आने के बाद अंग्रेजों द्वारा बनाए गए दंडात्मक कानून इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) 1860 में, क्रिमिनल प्रोसिजर कोड (सीआरपीसी) 1870 में और 1872 में इंडियन एविडेंस एक्ट भारत में लागू कर दिए गए।
आजादी के बाद भी ये कानून भारत में चलते रहे। समय-समय पर इनमें थोड़े-बहुत परिवर्तन भी किए गए। भारतीय विधि आयोग की 41वीं रिपोर्ट के आधार पर क्रिमिनल प्रोसिजर कोड वर्ष 1973 में नए ढंग से भी लागू किया गया, परंतु यह तीनों आपराधिक कानून मूल रूप से भारतीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे।
भारतीय चिंतन आधारित न्याय व्यवस्था
नई आपराधिक न्याय प्रणाली को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और सुलभ बनाया गया है। इसका उद्देश्य भारतीय कानून प्रणाली में सुधार करना और भारतीय चिंतन आधारित न्याय प्रणाली स्थापित करना है। संविधान की मूल भावना के तहत निर्मित ये कानून भारतीय न्याय संहिता की वास्तविक भावना प्रकट करते हैं। ये दंड की बजाए न्याय पर केंद्रित हैं और इसमें सबके लिए समान व्यवहार सुनिश्चित किया गया है। साथ ही, ये कानून व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं तथा मानव अधिकारों के मूल्यों के अनुरूप हैं। नए आपराधिक कानूनों में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध से निबटने के लिए 37 धाराएं शामिल की गई हैं।
अंग्रेजी शासन में ब्रिटिश ‘महारानी’ का विरोध करने पर आईपीसी में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर मृत्यु दंड या आजीवन कारावास की सजा थी। आजादी के उपरांत 1950 में इसमें मामूली संशोधन करते हुए ‘महारानी’ की जगह ‘भारत सरकार’ कर दिया गया, जिसका दुरुपयोग होता रहा। ऐसे और कई प्रावधान निरन्तर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों के शिकार होते रहे। इन कानूनों का स्वरूप दंडात्मक होने के कारण न्याय की गुहार के बावजूद सामान्यजन के साथ न्याय होता दिखता नहीं था।
क्रान्तिकारी परिवर्तन
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में न्याय के क्षेत्र में 2014 से ही क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। 2014 से शुरू होकर दिसंबर 2023 तक इस सरकार ने 1562 कानूनों को अनावश्यक बता कर रद्द कर दिया। 15 अगस्त, 2022 को लालकिले से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गुलामी के प्रतीकों को भी समाप्त करने की बात की थी। पुराने आपराधिक कानूनों का निरसन इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है। अब पुराने तीनों विदेशी कानूनों आईपीसी, सीआरपीसी और इंडियन एविडेंस एक्ट को समाप्त कर 1 जुलाई, 2024 से भारत के तीन नए भारतीय कानून भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम लागू कर दिए गए हैं।
पुराने कानूनों के दंडात्मक स्वरूप को बदल कर तकनीकी के प्रयोग को बढ़ावा देते हुए तीनों नए कानूनों में प्राचीन भारत के न्याय प्रशासन की तर्ज पर उचित व त्वरित न्यायिक प्रक्रिया को प्रमुखता दी गई है। अब शिकायतकर्ता और पीड़ितों के अधिकारों को ज्यादा प्राथमिकता दी गई है। कई धाराओं को हटाया गया है तो वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कई धाराओं को जोड़ा भी गया है। अपराधों की श्रेणियों को भी प्राथमिकता के आधार पर व्यवस्थित किया गया है।
नए कानून में महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध को प्राथमिकता देते हुए 35 धाराओं और 13 प्रावधानों का एक पूरा अध्याय रखा गया है। गैंग रेप में 20 साल या आजीवन कारावास की सजा, नाबालिग के साथ बलात्कार पर मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। झूठा वादा और पहचान छिपाकर शोषण करने वालों पर भी अब कार्रवाई का प्रावधान किया गया है। अब पहली बार भारतीय न्याय संहिता में बालक (चाइल्ड) को परिभाषित करते हुए 18 वर्ष की आयु सीमा तय कर दी गई है। अब 18 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चे नाबालिग की श्रेणी में आएंगे।
राजद्रोह की जगह देशद्रोह
मॉब लिंचिंग को परिभाषित करते हुए इसके लिए भी कड़े कानून बनाए गए हैं। अब इसके लिए मृत्युदंड या आजीवन कारावास तक की सजा तय की गई है। अंग्रेजों द्वारा अपने शासन की रक्षा के लिए बनाए राजद्रोह के कानून को पूर्णत: समाप्त करते हुए ‘भारत सरकार’ की जगह ‘भारत’ की एकता, अखंडता व संप्रभुता को नुकसान पहुंचाने वाले अपराध को देशद्रोह घोषित किया गया है। देश के बाहर भी भारत की किसी भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और बम विस्फोट करने को आतंकवादी कृत्य माना जाएगा। नए कानून में आतंकवाद को विधिवत परिभाषित करते हुए गंभीर अपराध घोषित कर कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है।
यदि कोई व्यक्ति किसी बच्चे को दिहाड़ी पर या नौकरी पर रखकर उससे कोई काम करवाता है, तो उसके लिए 3 से 10 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है। संगठित अपराधों (सिंडिकेट) जैसे-व्यक्तियों के समूह द्वारा अपहरण, डकैती, या चोरी, भूमि हथियाना, कॉन्ट्रैक्ट किलिंग, आर्थिक अपराध, साइबर अपराध इत्यादि को गंभीर अपराध बनांते हुए इसके लिए न्यूनतम 5 वर्ष या आजीवन कारावास तक की सजा तय की गई है। नए कानून में पहली बार झपटमारी (छिनैती) को शामिल करते हुए गंभीर अपराध की श्रेणी में रखकर 7 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है।
नए कानूनों में दंडात्मक उपायों का विकल्प प्रदान करके पुनर्वास पर भी जोर दिया गया है। जहां पहली बार अपराध करने पर कई धाराओं के माध्यम से सामुदायिक सेवा और परामर्श जैसी सजा का प्रावधान करके दंड के बदले न्याय पर जोर दिया गया है, वहीं कई अपराधों को अब गंभीर अपराधों की श्रेणी में डालकर अपराधों पर अंकुश लगाने की तैयारी की गई है। 3 वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में 60 वर्ष तक की आयु वाले आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की पूर्व अनुमति आवश्यक कर दी गई है। पीड़ित को सूचना का अधिकार प्राप्त होगा, नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति का भी अधिकार नए कानून के अंतर्गत दिया गया है।
गिरफ्तारी दिखानी होगी
अक्सर पुलिस पर आरोपी की गिरफ्तारी को छिपाने का आरोप लगता रहता था। आरोपी के मजबूर परिजन उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कोरपस) याचिका दाखिल करके आरोपी के बारें में पता लगाने के लिए विवश हो जाते थे। अब नए कानूनों के अंतर्गत प्रत्येक थाने में एक गिरफ्तारी रजिस्टर होगा, जिसमें किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी पर उसमें उसका अंकन अनिवार्य होगा। ऐसा ही एक ई-रजिस्टर भी अनिवार्य रूप से भरना होगा।
मुकदमों के विचारण में अधिक समय लग जाने के कारण यदि आरोपी अपराध की निश्चित सजा के अनुपात में एक तय समय मर्यादा से ज्यादा समय से जेल में निरुद्ध है तो अब जेल अधीक्षक की जिम्मेदारी होगी कि आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया जाए, जिसके लिए उसे अदालत जाना पड़े।
एक सामान्य आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया के चार भाग होते हैं- याचिका, जांच, सबूत और निर्णय। परंतु अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए पुराने कानूनों में इन चारों भागों की अवहेलना जग जाहिर थी। पीड़ित पुलिस थाने में जाने से डरते थे। पुलिस द्वारा समुचित जांच न होने से अपराधी छूट जाते थे। सबूतों के साथ छेड़खानी आम बात हो गई थी और न्यायालय द्वारा निर्णय में देरी से पीड़ित परेशान थे। नए आपराधिक कानूनों में इन चारों भागों को समायोजित करते हुए पक्षकारों के साथ न्याय हो और न्याय होता हुए दिखे, इसकी भी व्यवस्था की गई है।
किसी भी अपराधिक कृत्य के कारित होने पर इसकी सूचना पुलिस थाने में जाकर देनी पड़ती है। मुकदमा दर्ज होने पर ही पुलिस जांच करती है। परंतु पुलिस मुकदमों को दर्ज करने से बचती रहती है। कई बार पुलिस पर मुकदमा दर्ज न करने का अनुचित दबाव होता है। अक्सर पीड़ित को पुलिस की ही प्रताड़ना झेलनी पड़ जाती है। कई बार तो मुकदमा दर्ज कराने के लिए पीड़ित को न्यायालय की शरण में जाना पड़ जाता है। समय-समय पर न्यायालय आदेश जारी करके पीड़ित के बयान के आधार पर मुकदमा दर्ज करने का आदेश देता रहा है। ‘ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस संदर्भ में कड़े निर्देश जारी किए हैं कि किसी भी पीड़ित का मुकदमा अवश्य लिखा जाए, फिर भी पुलिस किसी न किसी बहाने मुकदमा दर्ज करने से बचना चाहती है।
पीड़िता के घर पर दर्ज होगा बयान
नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के प्रावधान ने इस प्रक्रिया को सरल और जवाबदेह बना दिया है। अब यदि पीड़ित महिला है, तो उसका बयान उसके घर पर परिवारजनों की उपस्थिति में महिला पुलिस अधिकारी के सामने दर्ज होगा। यदि पीड़ित के साथ कोई घटना-दुर्घटना किसी अन्य स्थान पर भी हुई हो और यदि वह किसी कारणवश मुकदमा संबधित थाने में दर्ज नहीं करा सका तो अब क्षेत्राधिकार का मामला बताकर कोई भी पुलिस थाना मुकदमा दर्ज करने से मना नहीं कर सकता। उसे ‘जीरो एफआईआर ‘ दर्ज करके संबंधित थाने को मुकदमा भेजना ही होगा। गंभीर मामलों में घर बैठे आनलाइन ई-एफआईआर की व्यवस्था भी की गई है।
मुकदमे की जांच व्यवस्थित न होना व जांच के दौरान सबूतों के साथ छेड़छाड़ के मामले मुकदमों को अक्सर कमजोर बना देते हैं। पुलिस अधिकारियों की ढुलमुल जांच प्रणाली पर न्यायालयों ने भी कई मौकों पर सख्त रुख टिप्पणी करते हुए दिशानिर्देश जारी किए थे। अब नए कानून में पुलिस की जवाबदेही तय की गई है। 7 साल से अधिक की सजा वाले अपराधों में फॉरेंसिक जांच को अनिवार्य कर दिया गया है, जिससे कि दोष साबित करने का प्रतिशत बढ़ सके। घटनास्थल की वीडियो रिकॉर्डिंग एवं जांच-पड़ताल में भी वीडियो रिकॉर्डिंग की अनुमति दी गई है।
छापे के दौरान पुलिस पर अवैध सामग्री दिखाकर गिरफ्तारी के आरोप भी लगते रहे हैं। अब नए कानून में पुलिस के अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के लिए छापेमारी व तलाशी के दौरान वीडियो रिकॉर्डिंग को अनिवार्य कर दिया गया है। इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों को भी कानूनी अधिकार देने के प्रावधान किए गए गए हैं। व्हाट्सएप, टेलीग्राम चैटिंग को भी साक्ष्य के रूप में दाखिल किया जा सकेगा।
क्या-क्या बदला?
आपके अधिकार
- किसी भी थाने में मौखिक या ई-एफआईआर दर्ज करा सकेंगे।
- पुलिस से तत्काल एफआईआर की एक नि:शुल्क प्रति ले सकेंगे।
- मुकदमे की पैरवी के लिए अपना कानूनी प्रतिनिधित्व कर सकेंगे।
- मुफ्त जांच व मुआवजा पा सकेंगे, गवाही पर मिलेगी सुरक्षा।
- आडियो-वीडियो माध्यम से दर्ज करा सकेंगे अपने बयान।
- पीड़िता को बयान दर्ज कराने के लिए थाने नहीं जाना होगा।
पुलिस की जवाबदेही
- 90 दिनों के भीतर जांच की प्रगति की सूचना देनी होगी।
- 24 घंटे के भीतर पीड़िता की मेडिकल जांच करानी होगी।
- तलाशी और जब्ती की वीडियोग्राफी करना अनिवार्य होगा।
- जब्त वस्तुओं की सूची पर गवाहों के हस्ताक्षर लेने होंगे।
- पुरुष न्यायिक मजिस्ट्रेट पीड़िता का बयान महिला अधिकारी की मौजूदगी में दर्ज करेगा।
- 3 वर्ष से कम सजा वाले अपराधों, गंभीर बीमारी से पीड़ित या 60 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए कम से कम डीएसपी की पूर्व अनुमति जरूरी।
- असंज्ञेय मामलों की दैनिक डायरी रिपोर्ट 15 दिन में मजिस्ट्रेट को भेजनी होगी।
डॉक्टर की जिम्मेदारी
- 7 दिन के भीतर पीड़ित/पीड़िता की जांच रिपोर्ट भेजनी होगी।
न्याय की समयसीम
- सुनवाई शुरू होने से 60 दिनों के भीतर आरोप तय करना होगा।
- सुनवाई पूरी होने के बाद 45 दिन के भीतर देना होगा निर्णय।
- आपराधिक कार्यवाही में दो से अधिक स्थगन की अनुमति नहीं।
- मुकदमा वापस लेने की अर्जी को मंजूर करने से पहले पीड़ित का पक्ष सुनना होगा।
- पीड़ित के आवेदन पर उसे निर्णय की नि:शुल्क प्रति देनी होगी।
- आपराधिक न्याय प्रणाली के सभी चरणों का डिजिटलीकरण (ई-रिकॉर्ड, जीरो एफआईआर, ई-एफआईआर, समन, नोटिस)
- सर्वर लॉग, स्थान संबंधी साक्ष्य और डिजिटल वॉयस संदेश माने जाएंगे साक्ष्य।
- पीड़ितों के लिए ई-बयान, गवाहों, आरोपियों, विशेषज्ञों व पीड़ितों के लिए – e-Appearance
- समन जारी करने, उसकी तामील तथा साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग।
- तीन वर्ष तक की सजा वाले मामलों में मजिस्ट्रेट को समरी ट्रायल का अधिकार।
समय सीमा में निबटारा
किसी मुकदमे की जांच के लिए अब समयसीमा निर्धारित की गई है। अब पुलिस जांच अधिकारी द्वारा पीड़ित को 90 दिन के अंदर मुकदमे की जांच से अवगत कराना होगा। जांच अधिकारी द्वारा न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल करने पर न्यायालय को 60 दिनों के अंदर आरोप तय करना होगा।
नए कानूनों में त्वरित न्याय के लिए आरोपी, गवाह, विशेषज्ञ अर्थात् वाद के सभी पक्षकारों को न्यायालय के समक्ष वर्चुअल माध्यम से उपस्थित रहने के लिए कानूनी अनुमति दी गई है, जिससे मामले के विचारण में तेजी आएगी। मामले के पूर्ण विचारण के उपरांत न्यायालय को 45 दिन के अंदर निर्णय देना होगा और 7 दिन में निर्णय पोर्टल पर अपलोड करना होगा।
सामान्य आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया के चारों भागों जैसे-याचिका (प्रार्थनापत्र), पुलिस द्वारा समुचित जांच, सबूतों का एकत्रीकरण और न्याय सम्मत निर्णय का पूरा ध्यान नए अपराधिक कानूनों में रखा गया है। इन नए कानूनों को लागू करने से पूर्व भारत सरकार द्वारा व्यापक जागरूकता अभियान व प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाए गए हैं। पुलिस, अभियोजन अधिकारी, फॉरेंसिक विभाग और आमजन के बीच भी यह अभियान चलाया गया।
भारतीय न्याय संहिता में 358 धाराएं, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में 531 धाराएं और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में कुल 170 धाराएं है। छोटे और पहली बार किए गए अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा का अवसर, बुजुर्गों के प्रति नरमी, अधिक समय तक जेल में रहने वालों को जमानत पर छोड़ने जैसी व्यवस्थाओं की इन नए कानूनों को न्याय संगत बनाने में अहम भूमिका है। इन नए कानूनों में प्रत्यक्ष रूप से पुलिस विभाग की जवाबदेही बढ़ने के साथ-साथ वर्चुअल सुनवाई का लाभ लेकर न्यायपालिका की भी त्वरित निर्णय देने की जिम्मेदारी बढ़ गई है।
आम लोगों को भी अब छोटी से छोटी शिकायत दर्ज कराने के लिए थाने के चक्कर नहीं काटने होंगे। इसके अलावा गंभीर अपराधों (हत्या, लूट, डकैती दुष्कर्म) की भी ई-एफआईआर होने से पुलिस विभाग की भी जिम्मेदारी बढ़ गई है। एक स्थान की एफआईआर दूसरे स्थान से करने की सुविधा, मोबाइल पर जांच से लेकर आगे तक के कार्रवाई की संदेश के जरिए सूचना भी अब पुलिस को पीड़ित को देनी पड़ेगी। यह भारत सरकार द्वारा नए कानूनों का दंडात्मक स्वरूप बदल कर जनता के मन में न्यायिक प्रणाली के प्रति विश्वास जगाने का सकरात्मक प्रयास है।
(लेखक सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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