भारत में अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुस्लिमों के बारे में हजारों प्रोपोगेंडा फैलाने वाले पाकिस्तान ने अपने यहाँ रहने वाले अल्पसंख्यकों के प्रति अपना असली चेहरा दिखाया है। जब इन दिनों पाकिस्तान में बकरीद मनाई जा रही है, तो वहीं उसी समय वहाँ के अल्पसंख्यकों के लिए बजट की भी जैसे कुर्बानी दे दी गई है।
पाकिस्तान के वित्त मंत्री मुहम्मद औरंगजेब ने अपने मुल्क का बजट 12 जून को पेश किया। जहां पाकिस्तान में मिनिस्ट्री ऑफ रेलीजियस अफेयर्स एंड इंटरफेथ हारमोनी के लिए 1,861 मिलियन रुपए का बजट आवंटित हुआ, जो पिछले वर्ष 1,780 मिलियन रुपए था, तो वहीं हिन्दू, ईसाई और सिख जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए बजट में शून्य आवंटन है।
यूसीए न्यूज़ के अनुसार पिछले वर्ष पाकिस्तान के बजट में धार्मिक अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए 100 मिलियन रुपए का प्रावधान किया गया था, मगर इस बार यह आवंटन गायब कर दिया गया है। यह ऐसा ही है जैसे हिन्दू लड़कियों को वहाँ पर गायब कर दिया जाता है। जैसे मंदिरों को जमींदोज कर दिया जाता है, जैसे पुरानी हर पहचान को मिटा दिया जाता है। विदेशों मे जाकर इंसानियत के बारे में भारत को लेक्चर देने से पहले वैसे तो पाकिस्तान को अपने गिरेबान मे झांकना चाहिए कि पाकिस्तान बनने से पहले और उसके बनने के बाद पाकिस्तान की कट्टरपंथी सोच ने किस सीमा तक अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार किया है। मगर वे लोग देखेंगे नहीं और चूंकि उन्हें पता है कि उनके झूठ पर आँखें मूंदकर इसलिए विश्वास कर लिया जाएगा, क्योंकि यदि कोई उनका विरोध करेगा या फिर अतीत से लेकर अभी तक के उनके कुकृत्यों के विषय में चर्चा करेगा, तो उसे इस्लामोफोबिक का टैग थमा देंगे। और पाकिस्तान फिर से बच जाएगा।
पाकिस्तान सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए बजट के लिए आवंटन रद्द क्यों किया है, इसके विषय में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। यह माना जाता है कि जो बजट अल्पसंख्यक समुदाय के लिए जारी किया जाता था, उसका प्रयोग विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति एवं धार्मिक समारोहों के दौरान सहायता के लिए प्रयोग किया जाता था।
यूसीए न्यूज़ के अनुसार अभी तक सरकार ने इस संबंध में स्पष्टीकरण नहीं दिया है कि आखिर ऐसा क्यों किया गया? मुगल शासक औरंगजेब भी अपनी अल्पसंख्यक नीति के लिए बहुत कुख्यात था। जिसने अपने पूर्ववर्ती शासक द्वारा अपनी गैर-मुस्लिम प्रजा के प्रति लागू कई उदारवादी नीतियों को बदल दिया था। उसने यह सुनिश्चित किया था कि मंदिर न बनें, मरम्मत न हो और जज़िया भी लागू कर दिया था। तो क्या इतिहास फिर से इस भूभाग पर एक और औरंगजेब के अल्पसंख्यकों के प्रति किए जा रहे भेदभावपरक कदम को देखेगा? इस निर्णय का परिणाम क्या होगा, यह बहुत सहजता से समझा जा सकता है।
पंजाब प्रांत की सरकार के मानवाधिकार एवं अल्पसंख्यक मामलों के पूर्व मंत्री एजाज आलम औगस्टीन ने यह कहा कि अल्पसंख्यकों के लिए बजट का न होना अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के लिए बहुत ही बुरी खबर है। उनके अनुसार यह बजट हमेशा से ही बहुत कम था। और अब तो बजट पूरी तरह से गायब कर दिया गया है। हमारे विद्यार्थियों को समस्या होगी। उन्हें सरकार के समर्थन की आवश्यकता है। वहीं हिन्दू नेता चमन लाल, जो समाज सेवा फाउंडेशन, के अध्यक्ष हैं, उन्हें इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में उम्मीद की किरण नहीं दिखती है। चमन लाल के अनुसार केवल 18 प्रतिशत दलित ही साक्षर हैं।
पाकिस्तान में जहां एक ओर बजट में अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय किया गया है, तो वहीं जब पूरा पाकिस्तान बकरीद अर्थात ईद उल अजहा मना रहा है, तो वहीं अल्पसंख्यक अहमदिया समुदाय के तीन लोगों को केवल इस कारण एक महीने की जेल मे रखा जा रहा है कि जिससे वे मजहबी रीति-रिवाज न कर सकें। मीडिया के अनुसार पाकिस्तान में चकवाल में अहमदिया समुदाय के तीन प्रमुख सदस्यों को एक महीने के लिए हिरासत में इसलिए ले लिया गया जिससे वे बकरीद पर कुर्बानी न दे सकें। चूंकि अहमदिया समुदाय ऐसा समुदाय है, जिसे पाकिस्तान में मुस्लिम नहीं माना जाता है। इसलिए वे कुर्बानी आदि नहीं दे सकते हैं। वे अपनी इबादत करने वाली जगहों को मस्जिद भी नहीं कह सकते हैं। हर साल उनके साथ यही होता है। पिछले वर्ष भी ऐसा ही हुआ था, जब अहमदिया समुदाय के लोगों के घरों से कुर्बानी के लिए रखे गए जानवर पुलिस ने जब्त कर लिए थे और कहा था कि ईद के बाद ले जाना।
इस साल भी ईद के समय कुर्बानी देने से रोकने के लिए चकवाल के डेप्यूटी कमिश्नर ऐन मलिक ने तीन लोगों को हिरासत में लेने के लिए तीन आदेश 10 जून को जारी किए थे, जिसके बाद इन तीनों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और हिरासत में भेज दिया।
गौरतलब है कि पाकिस्तान ने अहमदिया समुदाय को वर्ष 1974 से ही गैर-मुस्लिम घोषित किया हुआ है और वर्ष 1984 के एक कानून के अनुसार वे अपने मजहब को इस्लामिक नहीं कह सकते हैं और न ही खुलकर इस्लामिक रीतिरिवाज मना सकते हैं।
हालांकि अहमदिया समुदाय के लोग खुद को मुसलमान मानते हैं, जबकि पाकिस्तान में वह इसी कारण वोट भी नहीं दे पाते हैं, क्योंकि उन्हें इस्लाम से अलग सूची में पंजीकृत किया गया है। यह और भी हास्यास्पद है कि जो अहमदिया समुदाय पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए भी लड़ रहा है, हकीकत में वह खुद पाकिस्तान के निर्माण का जिम्मेदार है। जो समुदाय आज भेदभाव की शिकायत कर रहा है, उसी ने भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ कथित भेदभाव के कारण पाकिस्तान की मांग के लिए संकल्प पत्र पेश किया था, जिसे बंटवारे का पहला पड़ाव कहा जाता है और इतना ही नहीं जो अहमदिया समुदाय कुर्बानी न देने को लेकर रोता है, उसी ने 1948 में कश्मीर की जंग में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ देकर सैकड़ों निर्दोष हिंदुओं की कुर्बानी ली थी। अब वे मतदाता भी नहीं हैं और अल्पसंख्यक भी नहीं हैं।
मगर यदि वास्तविक अल्पसंख्यकों की बात की जाए, जो अपने ही देश में दूसरी पहचान वाले हो गए थे, तो उनकी स्थिति पाकिस्तान में अत्यंत दयनीय है। आए दिन हिन्दू और ईसाई लड़कियों के अपहरण होते रहते हैं और उनपर बेअदबी का आरोप लगाना भी बहुत आम है। यह भी ध्यान दिया जाए कि ईसाई, हिन्दू और सिख मिलाकर भी कुल पाँच प्रतिशत पाकिस्तानी जनसंख्या नहीं हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो उस गलती की सजा पा रहे हैं, जो उन्होंने की ही नहीं।
जो लोग सैकड़ों वर्षों से अपने घरों मे रह रहे थे, जो अपने पुरखों के इतिहास की कहानियाँ सुनते हुए आए, उन्हें अचानक से ही दूसरे देश की पहचान दे दी गई? उनकी पीड़ा को न ही कोई समझ सकता है और न ही कोई दूर कर सकता है। उनकी पीड़ा मात्र पाकिस्तानी सरकार द्वारा उठाए गए संवेदनशील कदमों से ही कुछ कम हो सकती है, परंतु दुर्भाग्य की बात यही है कि पाकिस्तानी सरकार भी जब अल्पसंख्यकों के बजट पर एक बड़ा शून्य बना दे, तो इन मुट्ठी भर अल्पसंख्यकों की रही सही आस भी समाप्त हो जाती है।
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