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पंजाब की राजनीति में क्षेत्रवाद के रोगाणु

यह वही पंजाब है जो संकीर्ण क्षेत्रीय राजनीति के चलते 1 नवंबर, 1966 में भाषाई आधार पर विभाजित हुआ और इस विभाजन से उपजी चण्डीगढ़ के अधिकार और सतलुज यमुना सम्पर्क नहर की समस्या से आज तक निपट नहीं पाया है।

by राकेश सैन
May 23, 2024, 03:16 pm IST
in विश्लेषण, पंजाब
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क्षेत्रवाद व उपराष्ट्रवाद की जिस मानसिकता से भारत सदियों तक विदेशी संत्रास झेलता आया है उसके रोगाणु आज भी देश की राजनीति में देखने को मिल रहे हैं। पंजाब का यह रोग दोबारा उबरता दिख रहा है और त्रासदी यह है कि क्षेत्रीय दल शिरोमणि अकाली दल बादल के साथ-साथ राष्ट्रीय दल कांग्रेस भी इस कीचड़ में सनी नजर आ रही है। संगरूर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक सुखपाल सिंह खैहरा ने कहा है कि पंजाब में बाहरी राज्यों से आए लोगों को मतदान का अधिकार नहीं होना चाहिए। तो अकाली दल बादल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने अपने दल के घोषणापत्र में बाहरी राज्यों के लोगों से जमीन खरीदने का अधिकार छीनने का वायदा किया है।

यह वही पंजाब है जो संकीर्ण क्षेत्रीय राजनीति के चलते 1 नवंबर, 1966 में भाषाई आधार पर विभाजित हुआ और इस विभाजन से उपजी चण्डीगढ़ के अधिकार और सतलुज यमुना सम्पर्क नहर की समस्या से आज तक निपट नहीं पाया है। सिख गुरुओं के ‘मानस की जाति सबै एके पहिचानबो’ के मानवतावादी संदेश के विपरीत पंजाब में एक विकृत सोच है जो दूसरे राज्यों से आए श्रमिकों को ‘भईया’, ‘भईया रानी’ के नाम से अपमानजनक सम्बोधन करती है।

यहां के राजनेताओं द्वारा अकसर कहा जाता है कि जब पंजाब का कोई व्यक्ति हिमाचल प्रदेश में जमीन नहीं खरीद सकता तो दूसरे राज्य के लोग पंजाब में कैसे संपतियां बना रहे हैं? असल में यह एक ऐसा राष्ट्र विभाजक विमर्श है जो राजनेताओं व कुछ धार्मिक नेताओं की अज्ञानता के चलते स्थापित होता जा रहा है। इससे यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की जा रही है कि देश में पंजाब के लोगों से भेदभाव हो रहा है, जबकि इसका कारण पूरी तरह से संवैधानिक है।

देश में मौलिक अधिकारों से जुड़ा अनुच्छेद 19(1)(घ)कहता है कि भारत के किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में स्वतंत्र आवाजाही की अनुमति है। नागरिकों को भारत के किसी भी हिस्से में रहने और बसने की अनुमति है। लेकिन ऐसे मामलों में कुछ अपवाद भी हैं, जैसे असम के अलावा सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड और मेघालय के अलावा त्रिपुरा में भी कई इलाके हैं जहां इसी तरह के संवैधानिक प्रावधान किये गए हैं ताकि स्थानीय लोगों की आबादी बाहरी लोगों के आने से कम न हो जाए। ऐसे प्रावधान हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और झारखण्ड जैसे राज्यों में भी बनाये हैं। इन राज्यों को दो श्रेणियों में रखा गया है-संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची।

जो राज्य पूरे के पूरे छठी श्रेणी में आते हैं वहां स्थानीय लोगों के स्वायत्त शासन का प्रावधान रखा गया है। पांचवीं अनुसूची के भी कई इलाके हैं जहां स्वायत्त शासन लागू है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाके, ये संविधान की पांचवीं अनुसूची में आते हैं। जिन-जिन राज्यों में पांचवीं अनुसूची लागू है वहां के राज्यपालों को संविधान ने कई शक्तियां दीं हैं, ये सिर्फ राज्यपाल ही नहीं बल्कि वहां आदिवासियों के अभिभावक भी कहलाते हैं। इन इलाकों में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते। यहां आदिवासी परामर्श समिति की अनुशंसाओं पर राज्यपाल फैसले लेते हैं। कई राज्यों में पर्वतीय क्षेत्र विकास परिषद् की भी व्यवस्था है जो स्वतंत्र निर्णय लेती है। अनुसूचित इलाकों में राज्यपालों को इतनी संवैधानिक शक्ति प्रदान की गई है कि वो परिस्थिति को देखते हुए किसी भी कानून को अपने राज्य में लागू होने से रोक या लागू कर सकते हैं। अनुसूचित इलाकों के लिए बनाये गए अधिनियमों के मुताबिक जमीन को बेचने पर पूरी रोक है।

अब बात संविधान की छठी अनुसूची की करते हैं, ये वो इलाके हैं जहां आदिवासियों की आबादी अधिक  है। वहां इन जातियों के हिसाब से स्वायत्त शासित परिषदों की स्थापना की गई है। इन इलाकों में भी राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है।

हिमाचल प्रदेश किरायेदारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 के तहत यहां के लोगों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए एक विशेष प्रावधान किया गया है। इसकी धारा 118 के तहत हिमाचल प्रदेश का कोई भी जमीन मालिक किसी भी गैर कृषक को किसी भी माध्यम (सेल डीड, गिफ्ट, लीज, ट्रांसफर, गिरवी) से जमीन नहीं दे सकता। भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 2(2) के मुताबिक जमीन का मालिकाना हक उसका होगा जो हिमाचल में अपनी जमीन पर खेती करता होगा। जमीन के क्रय-विक्रय पर सरकार की कड़ी नजर रहती है। फरवरी 2023 में एक मामले की सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत ने भी अहम टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘हिमाचल प्रदेश में केवल किसान ही जमीन खरीद सकते हैं।’ 1972 के भूमि सुधार अधिनियम का हवाला देते हुए न्यायाधीश पीएस सिम्हा और सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि ‘इसका उद्देश्य गरीबों की छोटी कृषि भूमि को बचाने के साथ-साथ कृषि योग्य भूमि को गैरकृषि उद्देश्यों के लिए बदलने की जांच करना भी है।’ पंजाब में अनुसूचित जाति तो है परन्तु अनुसूचित जनजाति नहीं, तो यहां पर इस तरह का कानून लागू नहीं हो सकता।

उक्त तथ्यों से प्रमाणित होता है कि किन्हीं राज्यों में वहां के आदिवासी समाज के हितों को बचाने के लिए संविधान में ही यह व्यवस्था की गई है। यह किसी अन्य राज्य या लोगों से कोई अन्याय नहीं। पंजाब के नेताओं को समाज में भ्रम व गलत धारणा पैदा करने से बचना चाहिए। उक्त व्यवस्था उसी संविधान के अन्र्तगत है जिसकी शपथ वे संसद व विधानसभाओं में लेते हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस दुष्प्रचार की आड़ ले खालिस्तानियों व नक्सलियों जैसे देशविरोधी शक्तियां देश व समाज में विभाजन पैदा करने की कोशिश करती हैं।

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