अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन हुआ। सरदार शमशेर सिंह गिल इसके अध्यक्ष तथा चिरंजीव जी महासचिव बनाए गए। 1990 में शमशेर जी के निधन के बाद चिरंजीव जी इसके अध्यक्ष बने।
गत 20 नवंबर को लुधियाना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक सरदार चिरंजीव सिंह जी का निधन हो गया। 93 वर्षीय चिरंजीव जी का केंद्र लुधियाना ही था। अधिक आयु के कारण उनका प्रवास बंद था, लेकिन लुधियाना संघ कार्यालय में रहकर वे कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया करते थे। इस आयु में भी वे प्रतिदिन कुछ न कुछ कार्य करते थे। वे कुछ महीनों से अस्वस्थ थे। 18 नवंबर को शारीरिक कष्ट बढ़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहीं उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागा। चिरंजीव जी ने अपना पूरा जीवन देश और समाज को समर्पित कर दिया था। वे वास्तव में कर्मयोगी थे।
चिरंजीव सिंह जी का जन्म 1 अक्तूबर, 1930 को पटियाला में एक किसान श्री हरकरण दास (तरलोचन सिंह) तथा श्रीमती द्वारकी देवी (जोगेंदर कौर) के घर हुआ। मां सरकारी विद्यालय में पढ़ाती थीं। चिरंजीव जी से बड़े दो भाई थे, पर वे काफी पहले बहाने इस दुनिया से चल बसे थे। दो संतानों को खोने के बाद माता-पिता ने मंदिर और गुरुद्वारों में पूजा-अर्चना की। इसके बाद जन्मे इस बालक का नाम चिरंजीव रखा गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सनातन धर्म संस्कृत इंग्लिश हाई स्कूल पटियाला में हुई। 1944 में कक्षा सात में पढ़ते समय वे अपने मित्र रवि के साथ पहली बार संघ की शाखा गए।
वहां के खेल, अनुशासन, प्रार्थना और किसी के नाम के साथ ‘जी’ लगाने से वे बहुत प्रभावित हुए और वे संघ के स्वयंसेवक हो गए। उस समय शाखा में वे एक मात्र केशधारी थे। 1948 में मैट्रिक करने के बाद उन्होंने राजकीय महाविद्यालय, पटियाला में प्रवेश लिया। वहीं से उन्होंने 1952 में अंग्रेजी, राजनीतिशास्त्र व दर्शनशास्त्र से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उनके एक साथी मदनमोहन कालिया आई.पी.एस. अधिकारी बने। स्वाभाविक रूप से चिरंजीव जी के माता-पिता भी यह चाहते थे कि उनका बेटा भी कुछ ऐसा ही करे। लेकिन संघ की शाखा से उन्हें जो प्रेरणा मिली, उसने उन्हें कुछ और ही करने के लिए प्रेरित कर दिया। 1946 में उन्होंने प्राथमिक वर्ग का शिक्षण पूरा किया। फिर 1947, 50 और 52 में भी उन्होंने संघ शिक्षण प्राप्त किया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा गया दिया। प्रतिबंध काल में सत्याग्रह करने की वजह से उन्हें दो माह जेल में भी रहना पड़ा।
14 जून, 1953 को वे संघ के प्रचारक बने। वे मलेर कोटला, संगरूर, पटियाला, रोपड़, लुधियाना में तहसील, जिला, विभाग व सह संभाग प्रचारक रहे। 1975 में वे प्रांत बौद्धिक प्रमुख बने। उसी समय आपातकाल लगा। उस दौरान चिरंजीव जी ने भूमिगत रहकर जन-जागरण का काम शुरू किया और साथ ही जो कार्यकर्ता बंदी बना लिए गए थे, उनके परिवारों की देखभाल करने का भी दायित्व संभाला।
असंख्य लोगों को राष्ट्रीयता के प्रवाह में जोड़ा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने स्व. चिरंजीव सिंह जी को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी है-
आजीवन संघ के निष्ठावान प्रचारक रहे सरदार चिरंजीव सिंह जी ने पंजाब में दशकों तक कार्य किया। तत्पश्चात् राष्ट्रीय सिख संगत के कार्य के द्वारा उन्होंने पंजाब में पैदा हुई कठिन परिस्थिति के कारण उत्पन्न परस्पर भेद और अविश्वास को दूर कर समूचे देश में सांझीवालता और राष्ट्र-भाव के प्रकाश में एकात्मता और सामाजिक समरसता को पुष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके अगाध परिश्रम, पंजाब की गुरु-परंपरा के गहन अध्ययन और उत्तम संगठन कौशल्य के कारण असंख्य लोगों को उन्होंने राष्ट्रीयता के प्रवाह में जोड़ दिया। सरदार चिरंजीव सिंह जी के स्नेहिल और मधुर व्यक्तित्व ने सब को जीत लिया था। कुछ समय से अस्वस्थता के कारण सक्रिय नहीं रह पाने पर भी उनके उत्साह में कमी नहीं थी। आदरणीय सरदार जी के निधन पर हम उनके परिजनों व परिचितों को अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं तथा अकालपुरख से प्रार्थना करते हैं कि दिवंगत आत्मा दिव्य ज्योति में लीन होवे। ॐ शांति:॥
गुरु नानकदेव जी के प्रकाश पर्व (24 नवंबर, 1986) पर अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन हुआ। सरदार शमशेर सिंह गिल इसके अध्यक्ष तथा चिरंजीव जी महासचिव बनाए गए। 1990 में शमशेर जी के निधन के बाद चिरंजीव जी इसके अध्यक्ष बने। चिरंजीव जी ने संगत के काम के लिए अपने देश के साथ ही इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में प्रवास किया। उनके कार्यक्रमों में हिंदू और सिख दोनों आते थे। 1999 में ‘खालसा सिरजना यात्रा’ पटना में संपन्न हुई। 2000 में न्यूयॉर्क के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में वे 108 संतों के साथ गए, जिनमें आनंदपुर साहिब के जत्थेदार भी थे। ऐसे कार्यक्रमों से संगत का काम विश्व भर में फैल गया। इसे वैचारिक आधार देने में तत्कालीन सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन का भी बड़ा योगदान रहा। वृद्धावस्था के कारण 2003 में उन्होंने सिख संगत के अध्यक्ष पद को छोड़ दिया।
पंजाब में उग्रवाद के दिनों में जब सामाजिक समरसता की बात कहना दुस्साहस जैसा बन गया था, उस समय संगठन की योजना से गठित ‘पंजाब कल्याण फोरम’ के संयोजक का महत्वपूर्ण दायित्व भी उन्होंने निभाया। वे जान हथेली पर रखकर सांझीवालता की सोच रखने वाले सिख विद्वानों, सिख संतों और अन्य प्रमुख हस्तियों से निरंतर संवाद करते और उग्रवाद से पीड़ित परिवारों के साथ खड़े रहते। उनकी हर आवश्यकता को उन्होेंने पूरा करने का प्रयास किया।
1987 में उन्होंने एक और बहुत ही प्रेरणादायक कार्य किया। उन्होंने गुरुसिख संतों व सनातन परंपरा के संतों से संवाद शुरू करवाया। इसका उद्देश्य था आत्मीयता, प्रेम, सौहार्द व सांझीवालता के संदेश को दूर-दूर तक पहुंचाना। इसके लिए ‘ब्रह्मकुण्ड से अमृतकुण्ड तक’ नाम से एक विशाल यात्रा हरिद्वार से अमृतसर तक निकाली गई। इसमें भारत के कोने-कोने से लगभग 10,000 संतों ने भाग लिया। इससे पूरे देश में समरसता का वातावरण बना। जब सारे विश्व में विशेषकर भारत में खालसा सिरजना की त्रिशताब्दी मनाने का भारी उत्साह था, उस अवसर का भी उन्होंने सांझीवालता का संदेश देने हेतु उपयोग किया।
भारत के विभिन्न मत-संप्रदायों के संतों से संपर्क कर उन्होंने श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के जन्मस्थल पटना साहिब से एक यात्रा निकाली। 300 संतों के साथ 24 मार्च, 1999 को प्रारंभ हुई यह यात्रा राजगीर, बोधगया, काशी, अयोध्या होते हुए 10 अप्रैल को श्री आनंदपुर साहिब में आयोजित ‘संत समागम’ में सम्मिलित हुई। इस यात्रा का हरिमंदिर साहिब, दमदमा साहिब, केशगढ़ साहिब सभी प्रमुख गुरुद्वारों में सम्मान-सत्कार हुआ। इस यात्रा से सारे देश में एकात्मता एवं सांझीवालता का वातावरण बना। पाञ्चजन्य परिवार की ओर से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।
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