बिरसा मुंडा
जन्म : 15 नवम्बर,1875
बलिदान : 9 जून, 1900
अंग्रेजों ने अपने राज को सुचारू रूप से चलाने के लिए जनजातियों की स्थापित आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। स्वाभाविक रूप से इसका प्रतिकार हुआ। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चला आंदोलन उलगुलान है। मुंडा जनजाति से आने वाले बिरसा मुंडा को धरती आबा यानी अपने लोगों के बीच भगवान की मान्यता है। बिरसा के आंदोलन में सामाजिक पुनर्गठन और धार्मिक चेतना का भी विस्तार था।
उन दिनों दुनियाभर में यूरोपीय सत्ता और ईसाई मत एक-दूसरे का साथ देते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनकी यही कार्यशैली जनजाति क्षेत्रों में भी रही। 18वीं सदी में इन क्षेत्रों में अंग्रेजी सत्ता प्रवेश कर चुकी थी। इस सत्ता को मजबूती देने के लिए सत्ता-समर्थित ईसाई मिशनरीज भी उतरीं। जनजातीय सहज और सरल जरूर थे, लेकिन शुरुआत में मिशनरीज को उनकी आशाओं के विपरीत निराशा ही हाथ लगी। इसके बावजूद मिशनरियों ने बड़े धैर्य से काम लिया और आखिरकार उन्हें 1850 में पहली सफलता मिली।
झारखंड में उरांव जनजाति के चार लोगों ने ईसाई बनना स्वीकार किया। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके बड़े चाचा पहले ईसाई बने। बाद में पिता सुगना मुंडा ईसाई बनकर ईसाइयत का प्रचार भी करने लगे। सुगना मुंडा को मसीह दास और बेटे बिरसा मुंडा को दाऊद मुंडा कहा जाने लगा। ईसाइयत के बढ़ने से जहां एक ओर जनजातियों की पारंपरिक भूमि व्यवस्था बदलने लगी, तो वहीं इसने इनकी स्थापित सामाजिक व्यवस्था को झकझोर दिया। इस कारण बिरसा के अंदर एक बेचैनी पैदा हुई। इसी बेचैनी ने उन्हें ईसाइयत से बगावत करने के लिए प्रेरित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे एक बार फिर से सनातन धर्म में लौट आए।
1899 के क्रिसमस के दिन रांची के आसपास क्रांति शुरू की। 7 जनवरी, 1900 तक समूचे मुंडा अंचल में क्रांति फैल गई। अंग्रेजों ने प्रभावित क्षेत्रों में सेना उतार दी, जो बिरसा की सेना पर भारी पड़ी। फिर भी बिरसा के अनुयायी डटे रहे। 3 फरवरी, 1900 को बिरसा को सिंहभूम में कैद कर लिया गया। बिरसा एवं उनके लगभग 500 साथियों पर मुकदमा चलाया गया। इसी बीच 9 जून, 1900 को रांची जेल में बिरसा की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।
इसके बाद उन्होंने आंदोलन शुरू किया। उनका आंदोलन 1895-1900 के मध्य चला। यह आंदोलन दो कारणों से हुआ- एक, अपनी छीनी जमीन वापस पाना और दूसरा, ईसाई मिशनरियों का विरोध। मुंडा समुदाय अपने सरदारों के नेतृत्व में 15 साल से जमीन वापस पाने के लिए लड़ रहे थे, पर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था। रांची से शुरू हुआ यह आंदोलन समूचे मुंडा क्षेत्र में फैला हुआ था। लालच देकर ईसाई मिशनरियों ने बड़ी संख्या में उनका कन्वर्जन किया, पर उनकी स्थिति जस की तस रही। 1895 में बिरसा नामक नौजवान के करिश्माई व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुंडाओं ने उन्हें अपना सरदार मान लिया। बिरसा ने वनवासियों की जमीन हड़पने और उनकी संस्कृति पर हमले के विरुद्ध तीव्र संघर्ष छेड़ दिया।
राजद्रोह के आरोप में 24 अगस्त, 1895 को 15 समर्थकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर सात साल की कैद की सजा दी गई। जेल से छूटने के बाद भी उन्होंने जमींदारों, ठेकेदारों और सरकार के खिलाफ वनवासियों को संगठित किया और 1899 के क्रिसमस के दिन रांची के आसपास क्रांति शुरू की। 7 जनवरी, 1900 तक समूचे मुंडा अंचल में क्रांति फैल गई। अंग्रेजों ने प्रभावित क्षेत्रों में सेना उतार दी, जो बिरसा की सेना पर भारी पड़ी। फिर भी बिरसा के अनुयायी डटे रहे। 3 फरवरी, 1900 को बिरसा को सिंहभूम में कैद कर लिया गया। बिरसा एवं उनके लगभग 500 साथियों पर मुकदमा चलाया गया। इसी बीच 9 जून, 1900 को रांची जेल में बिरसा की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।
टिप्पणियाँ