मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को लेकर सदियों तक गहन विचार-मंथन कर नवनीत निकाला जाता रहा ताकि सांसारिक क्रियाकलाप सुव्यवस्थित ढंग से संचालित हो सकें। कुटुंब भाव का विकास भी इसी दृष्टि से एक महत्वपूर्ण चिंतन है। कुटुंब भाव के प्रारंभिक स्वर हमें वेदों में सुनाई पड़ते हैं,
भारत भूमि का एक टुकड़ा मात्र न होकर जीवंत सांस्कृतिक विचार पुंज है। यहां मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को लेकर सदियों तक गहन विचार-मंथन कर नवनीत निकाला जाता रहा ताकि सांसारिक क्रियाकलाप सुव्यवस्थित ढंग से संचालित हो सकें। कुटुंब भाव का विकास भी इसी दृष्टि से एक महत्वपूर्ण चिंतन है। कुटुंब भाव के प्रारंभिक स्वर हमें वेदों में सुनाई पड़ते हैं, जहां कहा गया है, ‘यत्र विश्वम भवत्येकनीडम्।‘ अर्थात वेद एक ऐसा घोसला है जिसमें सम्पूर्ण विश्व एकजुट होकर निवास करता है। हम थोड़ा गहराई से विचार करें तो वेद की तुलना भी पक्षी के घोंसले से की गई है। पशु-पक्षियों का जीवन, उनका क्रियाकलाप भी सनातनी हिन्दू दृष्टि से ओझल नहीं रहा।
सनातन संस्कृति में व्यक्ति के ‘अहं’ एवं उसके ‘मैं’ का कोई स्थान नहीं है, अपितु स्थान है ‘सर्वभूतहिते रता:’ की भावना का। स्वयं को दूसरों के लिए उत्सर्ग कर देने के भाव का। ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’ का मंत्र इस संस्कृति की आत्मा है। इस आत्मा का विकास जिस प्रारम्भिक पाठशाला में होता है, उसका नाम कुटुंब है। कुटुंब को हमारे समाज में इतना महत्व इसलिए दिया जाता है, क्योंकि उसी के माध्यम से हमारे अंतर्मन में यह संकल्प दृढ़ होता है कि हमारा जीवन सभी के लिए है। कुटुंब का स्वरूप कैसा होना चाहिए? कौटुम्बिक संबंधों के सरोकार, आदर्श, आचरण, शील और शिष्टाचार के मानक क्या होने चाहिए? इस विषय पर महाकवि तुलसीदास से बड़ा परिचायक हमको अन्य कोई नहीं मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इन मूलभूत प्रश्नों पर विचार करते हुए पारिवारिक सम्बन्धों के सरोकार एवं आदर्श की स्थापना की है। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार – ‘तुलसी आदर्श व्यवस्था का स्वप्न ही नहीं देखते, उसके अनुसार वे अपने पात्रों को गढ़ते भी हैं। वे राम को आदर्श राजा, पुत्र, भाई, पति, स्वामी, शिष्य; सीता को आदर्श पत्नी और हनुमान को आदर्श सेवक के रूप में चित्रित करते हैं।’ श्रीराम के मानवीय सरोकारों की स्पष्ट झलक हमें तुलसीदासकृत रामचरितमानस में दिखाई देती है।
संसार में आज जहां भी मानवीय सरोकारों का पतन हुआ है, वहां अराजकता ही फैली है। आज एक ही कुटुंब में, एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग अलग-अलग प्रकार से जीवन व्यतीत करते हैं। एक-दूसरे के मन का हाल भी पता नहीं होता। पारस्परिक संबंधों की ऊष्मा क्षीण हो गई है। आपसी रिश्तों के कमजोर होने से ही कुटुंब में हताशा और निराशा ने घर कर लिया है। आशय है कि हमारे कुटुंबकीय संबंधों के धागे से ही समाज का ताना-बाना तैयार होता है। इस परिप्रेक्ष्य में रामचरित मानस में कौटुम्बिक सरोकारों पर विशेष बल दिया गया है, जो आज के लिए भी आदर्श हो सकता है।
कौटुम्बिक मूल्य
तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस पारिवारिक आदर्श के मूल्यों से परिपूर्ण हैं। यह ग्रन्थ कुटुंब में त्याग, समर्पण, स्वार्थ-हीनता और शिष्टाचार की भावना का प्रबल पक्षधर हैं। अतएव यह माता-पुत्र, पिता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, ससुर-बहू, सास-बहू, भाभी-देवर, ज्येष्ठ-अनुज वधू, गुरु-शिष्य आदि सभी मानवीय एवं मानवेतर संबंधों का आदर्श प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस की पहुंच घर-घर में है। आज हमें श्रीरामचरितमानस में अभिव्यक्त कुटुंब प्रबोधन की महती आवश्यकता है। इस संदर्भ में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं- ‘तुलसी की पहुंच घर-घर में है, या वे व्यापक समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, तो इसका मुख्य कारण यह है कि गृहस्थ जीवन और आत्म-निवेदन इन दोनों अनुभव-क्षेत्रों के वे बड़े कवि हैं।’
सास-ससुर एवं पुत्रवधू का संबंध
तत्कालीन समय की प्रमुख समस्याओं में से एक समस्या पुत्रवधू से ससुराल में होने वाला दुर्व्यवहार है। ऐसे में यदि हम श्रीरामचरितमानस का आश्रय लें, तो हमें निश्चय ही इस दिशा में मार्गदर्शन प्राप्त होगा। मानस में महाराज दशरथ बहुओं की सुख-सुविधा के सम्बंध में व्यावहारिक बातें कौशल्यादि रानियों को समझाते हुए कहते हैं- ‘बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाईं’।। पुत्रवधुएं अभी बच्ची हैं। पराये घर से आयी हैं। उनका इस तरह से ध्यान रखना, जैसे नेत्रों की पलकें रखती है। अर्थात् पलकें जिस प्रकार से नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुंचाती हैं, वैसे ही इन्हें सुख पहुंचाना। बहुओं के प्रति यदि यही भाव प्रत्येक सास-ससुर-ननद रखें, उन्हें अपनी बेटी एवं बहन के समान स्नेह एवं प्रेम दे तो पारिवारिक जीवन कितना सुखद हो जाएगा।
माता-पिता और पुत्र का संबंध
हमारा जीवन माता-पिता का ही विस्तार है। माता-पिता की महत्ता के संदर्भ में गणेश जी की वह कहानी याद आती है, जिसमें उन्होंने माता-पिता को ही सम्पूर्ण सृष्टि माना है। परंतु आज समय के साथ पुत्रों का अपने माता-पिता के साथ निरंतर बदलता अनैतिक व्यवहार हमारे जीवन के लिए कतई हितकर नहीं है। एक उम्र के बाद उन्हें वृद्धाश्रम भेजना आधुनिकता का पर्याय बन गया है। गोस्वामी जी श्रीरामचरितमानस के माध्यम से इसका भी सार्थक विलोम रचते हैं- सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोष निहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।। हे माता! सुनो वही पुत्र भाग्यशाली है, जो माता-पिता के वचनों का पालन करने वाला है। माता-पिता को संतुष्ट रखने वाला पुत्र, सारे संसार में दुर्लभ है। अनुज सखा संग भोजन करहीं। मातु पिता आग्या अनुसरहीं।। प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
भ्राताओं का पारस्परिक संबंध
भ्राताओं के बीच परस्पर प्रेम का संबंध कुटुंब को सशक्त बनाता है। भाइयों के बीच प्रेम न हो तो घर में कलह का वातावरण बना रहता है। आज उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव ने रिश्तों की गरमाहट को कम किया है। भाई-भाई का रिश्ता भी इससे अछूता नहीं रहा। भाइयों के मध्य पारस्परिक संबंध कैसा होना चाहिए, उनके बीच आपसी प्रेम एवं सौहार्द कैसे होने चाहिए, इसका आदर्श प्रबोधन हमें मानस में दिखलाई पड़ता है- राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भांति सिखावहिं नीती।। श्रीरामचंद्र जी भाइयों से प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकार की नीतियां सिखाते हैं। आज भाइयों के बीच होने वाली धन-सम्पत्ति की लड़ाई और सत्ता-संघर्ष के बीच श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड की ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं-
भरतहिं होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ। कबहुं कि कांजी सीकरनि, छीरसिन्धु बिनसाइ।।
जिस समय भरत सेना समेत चित्रकूट में रामचंद्र जी को मनाने आ रहे थे, उस समय लक्ष्मण को क्रोध आ गया। राम ने लक्ष्मण के भ्रम (भरत को राजमद हो गया है) को दूर किया। राम ने कहा – अयोध्या के राज्य की बात ही क्या है! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राजमद नहीं हो सकता। क्या कभी कांजी की बूंदों से क्षीरसागर विनष्ट हो सकता है? इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा का यह कथन समीचीन प्रतीत होता है – ‘रामचरितमानस के पात्रों द्वारा गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिन कौटुंबिक मूल्यों की स्थापना की है, वे जनता का मनोबल दृढ़ करने वाले थे। उसे संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ाने वाले थे। कई हजार साल से हिंदुस्थान के लोगों को यह मंत्र सिखाया गया था- यह संसार मिथ्या है, वैराग्य और योग से सत्य के दर्शन होते हैं। काम, क्रोध, मद और लोभ मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। गोस्वामी जी ने इसके विपरीत ऐसा दृष्टिकोण रखा, जिसमें सांसारिक जीवन के लिए जगह थी। जिसमें जनता के आये दिन के जीवन में काम आने वाले नैतिक मूल्यों की स्थापना थी। इस तरह गोस्वामी जी ने नैतिक धरातल पर लोक संघर्ष का समर्थन किया।’ चित्रकूट में राम-भरत मिलाप रामकथा का अत्यंत मार्मिक प्रसंग हैं। यह घटना भातृप्रेम, स्नेह और त्याग का अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं – ‘चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है वह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का, नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झांकी अपूर्व है।’
पति-पत्नी संबंध का आदर्श उदाहरण
आज हम अपने चतुर्दिक दृष्टिपात करे तो पति-पत्नी के आपसी संबंधों में कटुता के शोर सुनाई पड़ते हैं। समाचार पत्रों के पृष्ठ घरेलू हिंसा, पति-पत्नी के बीच वैमनस्य, विवाहेतर संबंध और तलाक आदि की खबरों से पटे रहते हैं। इन्हीं सबको देखते हुए और पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर कुछ लोग विवाह से मुक्ति की भी घोषणा करते सुनाई देते हैं, किंतु ये भूल जाते हैं कि नाखून बढ़ने पर नाखून काटे जाते हैं, उंगली नहीं। इसलिए विवाह के जो आदर्श हमारे संस्कार में हैं, पति-पत्नी के रिश्ते की जो मर्यादा है उससे हमें सीख लेनी चाहिए न कि उसे नष्ट करने का नारा लगाना चाहिए। रामराज्य में तो- एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी॥ यानी सभी पुरुष एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करते हुए उनके सुख-दु:ख के सहभागी हैं। उनकी पत्नी भी मन, कर्म और वाणी से पति के हित में निरत रहती हैं। यदि यह दृष्टि प्रत्येक पति-पत्नी अपना लें तो उनके बीच कटुता के प्रश्न नहीं उभरेंगे।
रामचरितमानस भारतवर्ष एवं हिन्दू मनीषा का महाकाव्य है। इसे हिन्दू मानस के विराट संकल्प का मूर्त रूप कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें मानव जीवन के विविध पक्षों को भाव और बुद्धि दोनों स्तर पर समझने का अद्भुत प्रयास किया गया है। गोस्वामी जी ने अपनी मेधा के बल एवं भगवान श्रीराम के आदर्श जीवन से प्रेरणा लेते हुए वेदों का सार ही लोक भाषा अवधी में आमजनमानस के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। आज जब दिन-प्रतिदिन मैं, मेरा जैसे संकुचित भाव पारिवारिक सदस्यों के मध्य दूरी बढ़ा रहे हैं, तब हमारी संस्कृति की यह उद्घोषणा हमारे समक्ष गूंजती है-अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। आशय यह कि ये मेरा है, ये उसका है; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है; जबकि उदार चरित वाले व्यक्तियों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरा ही परिवार है। तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस में प्रतिपादित कुटुंब प्रबोधन के ये आदर्श वर्तमान के साथ ही कालान्तर में भी प्रासंगिक रहेंगे। जी-20 की अध्यक्षता के माध्यम से भारत इस कुटुंब भाव को विश्वपटल पर स्थापित करने में सफल हो, श्रीरामनवमी पर यही मंगलकामना है।
(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)
(सौजन्य – पाञ्चजन्य आर्काइव)
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