संवेदनशील भावनाओं को ठेस न पहुंचे इसलिए नाम बदले हैं। ये तो बस हर शहर की आर्थिक गतिविधियों के तरह-तरह के किरदार हैं। जैसे-मुजाहिद (बदला हुआ नाम) 16 साल का है। मदरसे में कुछ साल पढ़ा। फिर रहमान के गैराज में लग गया। महात्मा गांधी मार्ग के एक कोने में पहले गुमटी की शक्ल में गैराज थी। काम बढ़ा तो फैलती गई। अब मुजाहिद की ही उम्र के पांच लड़के लगे हैं। अशरफ 19 साल का है। नेहरू रोड पर आटोमोबाइल के शोरूम में उसी जैसे सात मेहनती लड़के हैं।
27 साल का फहीम कूरियर के सामान का बैग अपनी बाइक पर लादे दिन भर 50 किलोमीटर घूमता है और दस से ज्यादा ठिकानों पर सामान पहुंचाता है। उसी की उम्र का मजीद होटलों से आनलाइन आर्डर पर खाने के पैकेट ले जाता है।
बीस साल के सलमान और शाहरुख को चिकन शॉप के लिए मजार के बगल में गुमटियां मिल गई हैं, जो मौलवी मुहम्मद अब्दुल्ला की कोशिशों से खूब फैल गई है। आसिफ की उम्र 19 साल है और उसके साथ छह लड़कों का समूह रंगाई-पुताई में हुनरमंद है। साल भर उनका काम शहर की नई कॉलोनियों में चलता है। फर्नीचर का काम करने वाले 24 वर्षीय अब्दुल को भी साल भर काम मिल जाता है। उसके साथ भी उसी जैसे आठ लड़के हैं। तीन मामू के और पांच चाची-फूफी के।
इनमें से किसी ने भी स्कूल की पूरी पढ़ाई नहीं की है। ज्यादातर मदरसों में मौलवियों से ज्ञान प्राप्त करके निकले हैं। फुटपाथ पर, सड़क किनारे, खाली प्लॉट या नुक्कड़ पर लगे सब्जी और फलों के हजारों गुमटी-ठेले भी किसी न किसी रहीम या रहमान की आजीविका का हिस्सा हैं, जो ज्यादातर गैर मुस्लिम इलाकों पर निर्भर हैं। पांचों वक्त की नमाज के वक्त अपना काम छोड़कर पास की ही किसी मस्जिद में इबादत करने बिलानागा जाते हैं। इनमें से ज्यादातर किराया नहीं देते। कोई टैक्स नहीं देते। नाजायज कब्जों पर नेताओं और नगरीय निकायों के भ्रष्ट अफसरों का नियंत्रण है, जो ज्यादातर हिंदू ही हैं। यह ‘गंगा-जमनी’ धारा का एक अजूबा प्रवाह है। अमृत और विष का सेक्युलर कॉकटेल!
कभी दिल्ली में उपराष्ट्रपति रहा हो या मुख्य चुनाव आयुक्त के कार्यालय में दिखाई दिया हो या कानपुर में कमिश्नर बनाया गया हो। आईएएस हों या आईआईटियन या किसी मीडिया पोर्टल में बैठी और ट्विटर पर चहकती मोहतरमा हों। खवातीन हों या हजरात हों। नाम कुछ भी हों। सारे दिमाग एक ही ‘फ्रीक्वेंसी’ पर सेट हैं। सबका सुर एक ही है।
बड़े बाजार, कारोबारी मुख्य मार्ग, प्रेस कॉम्पलेक्स, औद्योगिक क्षेत्र, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, अदालत-कचहरी और दूसरे निजी या सरकारी कार्यालय वगैरह। यहां के 99 प्रतिशत रहवासी या कारोबारी जैन, सिख या हिंदू ही हैं, जहां ऊपर बताई गई सेवाओं में लगे बड़ी तादाद में मेहनतकश मुस्लिम होते हैं, जो आसपास या दूर की किसी सघन बस्ती के छोटे घरों से आते हैं। इन बस्तियों में किसी को नहीं मालूम कि जिंदगी कैसी है? वहां दीन की खिदमत में लगे मौलवियों की नेटवर्किंग से मदरसे और मस्जिदों की रौनक आबादी से भी तेज रफ्तार में बढ़ रही है।
कश्मीर में तो 1990 में रामनवमी के जुलूस नहीं निकले थे। सिंध में आज भी कौन जयश्री राम के नारे लगा रहा है? बांग्लादेश में किसने मंदिर वहीं बनाने की मांग की? अफगानिस्तान में किस वजह से गुरु ग्रंथ साहिब को सिर पर रखकर निकलना पड़ा? न्यूयॉर्क या लंदन में कौन से बजरंग दली सक्रिय थे?
अब हम रामनवमी के दिन हमलों की वारदातों पर आते हैं। वे 90 चेहरे कौन हैं, जो मध्य प्रदेश के खरगौन में पकड़े गए? वे सब ऐसे ही चेहरे हैं। वे किसी इब्रील-जिब्रील नाम के फरिश्ते की उंगली थामकर सातवें आसमान से नहीं उतरे हैं। ये सब साल के बाकी दिन नुक्कड़ पर पंक्चर जोड़ते हैं, ताकि हम आराम से गाड़ी का मजा ले सके। आनलाइन आर्डर पर पसंदीदा भोजन हम तक लाते हैं। वे पिछली दिवाली घर की उम्दा पुताई करके गए थे। जो कपड़े, किराना और आटोमोबाइल के शोरूम में हर दिन नजर आते हैं और जो चिकन, मीट, मटन की चमचमाती गुमटियों में गोश्त के टुकड़े करते हैं और पास ही कहीं से अजान की आवाज आने पर टोपी लगाकर चुपचाप इबादत के लिए निकल पड़ते हैं। इन्हीं की तरह कल तक जो सब्जी और फलों की दुकानों पर भाव-ताव और तोलमोल करने में लगे थे, एक सुबह चेहरे पर नकाब बांधकर निकले और उनका किरदार बदल गया। हमलों में अनगिनत हाथ ऐसे ही होते हैं। जो नहीं पकड़े गए, वे आज फिर हमारे बीच बाजारों में, गलियों में, नुक्कड़ों पर, गुमटी-ठेलों पर मुस्कुराते हुए अपने काम में लगे हैं।
कश्मीर में किसी गंजू या किसी टिक्कू का कत्ल करने वाले आज कहीं तो होंगे? किसी औरत के साथ बारी-बारी से बलात्कार करके आरे से चीरने वाले भी अपने कामकाज में लगे होंगे। लाशों के टुकड़े-टुकड़े करने वाले भी किसी दुकान पर बैठे होंगे। खून से सने चावल खिलाने वालों के दाएं-बाएं हाथ जिनके होंगे, वे भी अपने घर-परिवार में जिंदगी का लुत्फ ले रहे होंगे। शहर के कारोबार में सबके कारोबार चल रहे हैं। दीन के भी, दीनहीन के भी।
जहां जंगल हैं, वहां नाजायज कटाई और कब्जे के काम बेखटके जारी हैं। शिकार पर कानूनी रोक बाहर वालों के लिए एक सूचना है। खुली जीपों में रात के अंधेरे में कब किस रास्ते से कूच करना है, उन्हें मालूम है। हिरण या बारहसिंघे कब कहां पानी पीने आएंगे, यह रेंजर ने ही बता दिया है, क्योंकि डीएफओ साहब को संदेश आ गया था। मुस्लिम वोटर बहुल इलाका है, हर बार सेकुलर पार्टी के टिकट पर कोई याकूब कुरैशी या कोई प्यारे मियां की ताजपोशी हो जाती है, जिनके बूचड़खानों में गोवंश बेखटके आता रहा है। एक बंद फैक्ट्री के सुरक्षित दरवाजे से एक बार में तीस टन मीट-मटन ढोने के लिए अनगिनत फिरोज, नवाज, आमिर, सुहैल, अनवर और रईस को काम मिला हुआ है। सरकार अपनी हो तो पूरा जंगल अपना ही समझो। डीएफओ और रेंजर को भी तो अपने हिस्से के साथ इज्जत से रहना है। जंगलों का जंगलराज जंगली ही जानते हैं।
कोई कभी दिल्ली में उपराष्ट्रपति रहा हो या मुख्य चुनाव आयुक्त के कार्यालय में दिखाई दिया हो या कानपुर में कमिश्नर बनाया गया हो। आईएएस हों या आईआईटियन या किसी मीडिया पोर्टल में बैठी और ट्विटर पर चहकती मोहतरमा हों। खवातीन हों या हजरात हों। नाम कुछ भी हों। सारे दिमाग एक ही ‘फ्रीक्वेंसी’ पर सेट हैं। सबका सुर एक ही है। अब वह सुर आम श्रोताओं की पकड़ में आ गया है। यही गड़बड़ हो गई है। अब तक जिस उत्पाद को सेकुलर मार्केटिंग ने खुशबूदार बताया था, उसका ढक्कन खुल गया है और सब नाक दबाकर जान बचाए हुए हैं!
जिंदगी की दौड़-भाग में किसे यह देखने की फुरसत थी कि नाला किनारे एक पेड़ के नीचे कब एक मौलवी आकर हरी चादर डाल गया? कौन ईटें और सीमेंट पटक गया? किसने कब्र बना दी? साल भर बाद कोई एक साइन बोर्ड भी टांग गया। फिर लौबान का धुआं उड़ने लगा। हरी चादरों के ठेले सज गए। सजदा करने वाले तो कभी कम थे ही नहीं। कुछ सालों बाद जब आसपास बाजार बढ़े, कारोबार चमके तो कब्र की किस्मत भी जागने लगी। मौलवी का कैश काउंटर अब अगली अंगड़ाई के लिए तैयार था। देखते ही देखते आसपास की खाली जमीन को नाले तक नाप दिया। पांच मंजिला कांक्रीट का ढांचा तनकर खड़ा होने लगा।
एक सुबह हरे पेंट से पुती ईटें और पत्थर बाहर सड़क पर नजर आए। पेड़ गायब था और कब्र को उखाड़ दिया गया था। गुमटी अब चार मंजिला शोरूम में बदल गई, जिस पर चारों दिशाओं में टंगे लाउड स्पीकर पांचों वक्त अपनी फतह का ऐसा ऐलान करने लगे कि आसपास के कार्यालयों में बैठना मुहाल हो गया। जुमे के दिन सड़क से निकलना भी मुश्किल हो गया, जबकि यह पूरा कॉम्पलेक्स हिंदू, सिंधी और सिख कारोबारियों का है। कोई मुस्लिम कॉलोनी नहीं है। लेकिन शोरूम और गैराज, ठेलों और गुमटियों पर अपनी आजीविका कमाने वालों को एक शानदार इबादतगाह बिल्कुल वहीं उनके ही हिसाब से मिल गई। मौलवी फरमाते हैं कि अल्लाह सबका हिसाब रखता है। वह सब्र करने वालों का साथ देता है।
पता चला कि मौलवी ऐसी पांच दरगाहों के नेटवर्क में अपने पूरे परिवार को लगाए हुए है। कहीं घोड़े वाले पीर, कहीं झब्बू बाबा, कहीं रंगीले-छबीले का मजार, कहीं छोटे मियां-बड़े मियां की दरगाह। मौलवी के रिश्ते सेकुलर पार्टियों में ही नहीं, सांप्रदायिक पार्टियों में भी बराबर हैं। पहली बीवी का तीसरा बेटा सियासत में दांव आजमा रहा है। एमएलए का दायां हाथ है। इस नए रसूख का ही जलवा है कि शौक के मुताबिक अफसरों को उनका हिस्सा फार्म हाऊसों की दावतों में मुहैया करा दिया जाता है। मौलवी तो सबके लिए दुआ मांगते हैं। ‘रहमतउल्ला अलैह’ की मेहरबानी है। दुआ-खैर में सबको सब याद कर लेते हैं। जलेसर से लेकर जबलपुर तक और मुरादाबाद से लेकर मुर्शिदाबाद तक, अहमदाबाद से लेकर हैदराबाद तक सब कुछ यूं ही आबाद है।
खुशगवार माहौल में सब कुछ चल रहा है, आंखों के सामने। अब तक धीमी आंच पर उबलते मेंढक की तरह भारतीय समाज को बस अपने खत्म होने का इंतजार अब नहीं रहा है। उसके सामने से हर परदा हट रहा है। हर नकाब उतर गई है। हसीन चेहरे के पीछे छिपा वहशी विचार उजागर है। इतना ही क्या कम है कि वह सच को जान गया है। जब जान गया है तो देर-अबेर संभल भी जाएगा। नहीं भी संभला और खत्म भी होना पड़ा तो उसे मरते वक्त याद रहेगा कि असलियत यह थी और मैं इसके खिलाफ खड़ा हुआ था!
अपवादस्वरूप जो रहीम, रहमत और पठान साब के मददगार और रहमदिल किरदार होंगे भी तो उन्हें सलीम और जावेद फिल्मों के ओवरडोज में दिखा ही चुके हैं। कश्मीर में तो 1990 में रामनवमी के जुलूस नहीं निकले थे। सिंध में आज भी कौन जयश्री राम के नारे लगा रहा है? बांग्लादेश में किसने मंदिर वहीं बनाने की मांग की? अफगानिस्तान में किस वजह से गुरु ग्रंथ साहिब को सिर पर रखकर निकलना पड़ा? न्यूयॉर्क या लंदन में कौन से बजरंग दली सक्रिय थे? ये ऐसे सवाल हैं, जिन्हें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। जवाब संसार में सबके संज्ञान में आ गए हैं।
मैंने यहां नाम बदले हैं। वह महात्मा गांधी मार्ग की जगह एमजी रोड भी हो सकता है और जवाहरलाल नेहरू पथ की जगह बाबर या हुमायूं रोड भी हो सकता है। नाम में क्या रखा है। वह तो कम्बख्त एक इशारा भर है!
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