‘योग’ शब्द ‘युज’ घातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में ‘युज्’ धातु दो हैं। एक का अर्थ है – जोडना, संयोजित करना। और दूसरे का अर्थ है-समाधि, मन स्थिरता।
‘योग’ मनुष्य के अंदर सुप्त प्रायः पड़ी अंतर्दृष्टि को प्रबोधित और आंदोलित करता है। अंतर्दृष्टि से रहित व्यक्ति विकास से विश्राम (विश्रांति) तक का प्रकाशमान राजपथ पंकड़ने की अपेक्षा विलास से विनाश तक जाने वाला लोभनीय लेकिन कंटकाकीर्ण मार्ग पकड़ लेता है। वह न इहलौकिक को साध पाता है न पारलौकिक को। ‘योग’ दुराग्रह, सनक, मिथ्याचार और अहंभाव से ग्रसित बुद्धि, जो न केवल अपने लिए अपितु संपूर्ण मानव समाज के लिए पड़े-पड़े संकट खड़े करती है, को समाहित कर दिव्यता से संपूरित कर देता है। ‘योग’ का संस्पर्श बुद्धि को पर्वत से भी दृढ़ और समुद्र से भी गंभीर बना देता है। अवसाद के क्षणों में ‘योग’ का साहचर्य सघन विश्रांति देने वाला हैं। यह शंकालु चित्त को निःशंक कर दिव्य प्राप्तियों के आश्वासन से पूरित कर देने वाला है। संसार का इतिहास योगानुष्ठान द्वारा आत्मदर्शी बने उन महामनाओं की यशोगाथाओं से भरा पड़ा है। जिन्होंने मानव समाज में विद्यमान ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवृत्तियों और सुख-दुख आदि द्वंद्दों को दूर कर पृथ्वी पर शांति का साम्राज्य स्थापित स्थापित किया है।
कल्याण योगतत्त्वांक (1991) के अनुसार, योग केवल साधना नहीं, बल्कि एक ऐसी दिनचर्या है जो मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करती है। प्रातःकालीन ध्यान, प्राणायाम और सूर्यनमस्कार जैसे अभ्यास दिनभर के कार्यों में मानसिक स्पष्टता, संयम और ऊर्जा बनाए रखते हैं। योगिक दिनचर्या में भोजन, निद्रा, जागरण और संयमित आचरण की प्रमुख भूमिका होती है। उदाहरण के लिए प्राचीन गुरुकुलों में ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान, जप, ध्यान, योगाभ्यास और स्वाध्याय को दैनिक दिनचर्या का अनिवार्य अंग बनाया गया था।
जीवन के हर पहलू का सूक्ष्मता से अध्ययन करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में योग स्थिरता का अभाव ही मनुष्य की असफलता का मूल कारण है। मावव के मन में, विचारों में एवं जीवन में एकाग्रता, स्थिरता एवं तन्मयता नहीं होने के कारण मनुष्य को अपने आप पर, अपनी शक्तियों पर पूरा भरोसा नही होता, पूरा विश्वास नहीं होता। उसके मन से, उसकी बुद्धि में सदा-सर्वदा- सन्देह बना रहता है। वह निश्चित विश्वास और एक निष्ठा के साथ अपने पथ पर बढ़ नही पाता। यही कारण है कि वह इतस्तत भटक जाता है, ठोकरें खाता फिरता है और पतन के महागर्त में भी जा गिरता है। उसकी शक्तियों का प्रकाश भी धूमिल पड जाता है। अतः अनन्त शक्तियों को अनावृत्त करने, आत्म-ज्योति को ज्योतित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य तक पहुँचने के लिए मन, वचन और कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, तन्मयता एवं स्थिरता लाना आ्रवश्यक है। आ्रत्म-चिन्तन में एकाग्रता एवं स्थिरता लाने का नाम ही ‘योग’ है।
भारतीय संस्कृति का विशेष प्रतीक योगदर्शन हिन्दू जाति की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक निधि है। भारतवर्ष में योग का सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से जो वैज्ञानिक अध्ययन हुआ, वह अन्यत्र कहीं पर भी दुर्लभ है। योग एक विज्ञान है और विज्ञान के साथ ही इसके तथ्यों की व्यावहारिक प्रयोग द्वारा सत्यता निर्धारित की गई है। योग का विषय इतना आवश्यक तथा उपादेय है कि अनादिकाल से ऋषि-मुनि ध्यानपूर्वक इसका अनुष्ठान करते थे। न केवल श्रुति-स्मृति पुराणेतिहासों में ही अपितु न्याय आदि दर्शनों में भी योग का महत्त्व स्वीकृत है। अनेक उपनिषदों में योग के विषय में उत्तमोत्तम विचार प्रगटित किए गए हैं। श्रीमदभगवतगीता का ऐसा कोई अध्याय नहीं है जिसमें किसी योग का वर्णन न हो। योग दर्शन सदृश ज्ञान गौरव का परिचय जितना भारतीय दार्शनिकों ने दिया है उतना किसी पाश्चात्य विद्वान ने नहीं दिया है।
आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व-चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग के सभी पहलुओं पर गहराई से सोचा-विचारा है, चिन्तन-मनन किया है। अतः इस बात पर प्रकाश डालना आवश्यक हैं कि योग की परपरा क्या है? योग के सम्बन्ध मे भारतीय विचारक क्या सोचते हैं ? और उसका कैसा योगदान रहा है?
योग न केवल मानसिक और आत्मिक लाभ देता है, बल्कि शारीरिक रोगों के निवारण में भी उपयोगी है। कपालभाति, भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम, और त्राटक जैसे अभ्यास तनाव, मोटापा, अनिद्रा, मधुमेह, थायरॉइड आदि में लाभकारी माने गए हैं।
योग दिवस और विश्व में योग
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयासों से ही आज विश्व भर में योग दिवस मनाया जाता है। इस के पीछे उनकी योग को लेकर दृढ संकल्प शक्ति को देखा जा सकता है। उन्होंने 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभ में अपने भाषण में विश्व समुदाय से एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को अपनाने की अपील की थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि “योग भारत की प्राचीन परम्परा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह केवल व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन-शैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को अपनाने की दिशा में काम करते हैं।“ — प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, (संयुक्त राष्ट्र महासभा)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और योग – एक समर्पित दृष्टिकोण
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार द्वारा की गई थी, जिनका उद्देश्य था राष्ट्रभक्ति, शारीरिक और मानसिक विकास और आत्मानुशासन के माध्यम से भारत के युवाओं को संगठित करना। योग को संघ के आद्यात्मिक और शारीरिक प्रशिक्षण के अनिवार्य भाग के रूप में अपनाया गया। संघ की शाखाओं में सूर्य नमस्कार, प्राणायाम, ध्यान और आसनों का नियमित अभ्यास कराया जाता है।
योग और संघ का संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मनियंत्रण, सामाजिक सेवा, समरसता और आध्यात्मिक जागरण से भी जुड़ा है। संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार स्वयं योग साधक थे और उन्होंने शाखा पद्धति में योग को अनिवार्य रूप से जोड़ा।
श्रीगुरुजी गोलवलकर ने भी योग को आंतरिक तप और अनुशासन के अंग के रूप में देखा। उनका कहना था, “यदि स्वास्थ्य-रक्षा तथा रोग-प्रतिकार करने के लिए योगासनों के अभ्यास की ओर लोगों ने ध्यान दिया तो सर्वसाधारण जनता के स्वास्थ्य में सुधार होकर उनका औषधियों पर होने वाला व्यय कम होगा तथा सब दृष्टि से उनका कल्याण होगा।“
योग केवल आत्मोन्नति का साधन नहीं बल्कि समाजोद्धार और राष्ट्रनिर्माण का भी पथ है। यही दृष्टिकोण संघ द्वारा अपनाया गया। संघ के प्रमुख शिक्षा वर्गों में योगासन और ध्यान की विधिवत शिक्षा दी जाती है। योग के माध्यम से स्वयंसेवकों में संयम, साहस और शारीरिक स्फूर्ति का विकास किया जाता है, ताकि वे सेवा कार्यों में तत्पर रह सकें।
आज भी संघ की हजारों शाखाओं में योगाभ्यास अनिवार्य गतिविधियों में शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं एक स्वयंसेवक के रूप में संघ से जुड़े रहे हैं। उनके द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा और उसे विश्व पटल पर स्थापित करना इस संघीय परंपरा की ही एक आधुनिक अभिव्यक्ति है। संघ का यह दृष्टिकोण “योग ही युक्ति है, योग ही शक्ति है, के सूत्र में संक्षेपित किया जा सकता है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा 2015 के अनुसार, “योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है।“
संघ द्वारा योग दिवस पर पारित प्रस्ताव : संयुक्त राष्ट्र की 69वीं महासभा द्वारा प्रति वर्ष 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने की घोषणा से सभी भारतीय , भारतवंशी व दुनिया के लाखों योग-प्रेमी अतीव आनंद तथा अपार गौरव का अनुभव कर रहे हैं । यह अत्यंत हर्ष की बात है कि भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा के अपने सम्बोधन में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का जो प्रस्ताव रखा उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। नेपाल ने तुरंत इसका स्वागत किया। 175 सभासद देश इसके सह-प्रस्तावक बनें तथा तीन महीने से कम समय में 11 दिसम्बर 2014 को बिना मतदान के, आम सहमति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती है कि योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है। ‘युज’ धातु से बने योग शब्द का अर्थ है जोड़ना तथा समाधि। योग केवल शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं है, महर्षि पतंजलि जैसे ऋषियों के अनुसार यह शरीर मन, बुद्धि और आत्मा को जोड़ने की समग्र जीवन पद्धति है। शास्त्रों में ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’, ‘मनः प्रशमनोपायः योगः’ तथा ‘समत्वं योग उच्यते’ आदि विविध प्रकार से योग की व्याख्या की गयी है, जिसे अपनाकर व्यक्ति शान्त व निरामय जीवन का अनुभव करता है। योग का अनुसरण कर संतुलित तथा प्रकृति से सुसंगत जीवन जीने का प्रयास करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, जिसमें दुनिया के विभिन्न संस्कृतियों के सामान्य व्यक्ति से लेकर प्रसिद्ध व्यक्तियों, उद्यमियों तथा राजनयिकों आदि का समावेश है। विश्व भर में योग का प्रसार करने के लिए अनेक संतों, योगाचार्यों तथा योग प्रशिक्षकों ने अपना योगदान दिया है, ऐसे सभी महानुभावों के प्रति प्रतिनिधि सभा कृतज्ञता व्यक्त करती है। समस्त योग-प्रेमी जनता का कर्तव्य है कि दुनिया के कोने कोने में योग का सन्देश प्रसारित करे।
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