यूक्रेन—रूस और इ्स्राएल—हमास के बीच जारी सैन्य संघर्ष के बीच पश्चिम एशिया पर भी युद्ध के बादल मंडराने लगे हैं। इस्राएल ने ईरान के तानाशाह राजनीतिक नेतृत्व के ‘अक्खड़ रवैए’ के विरुद्ध जंग छेड़ दी है, जिसमें ईरान ने भी जवाबी कार्रवाई की है। इस सबके चलते दुनिया के इस हिस्से में भी सैन्य तनाव चरम पर पहुंचता जा रहा है। 13 जून यानी कल इस्राएल द्वारा “ऑपरेशन राइजिंग लॉयन” के तहत ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर किए गए हवाई हमलों ने इस तनाव और भड़का दिया है। इस कार्रवाई के बाद इस्राएल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई वैश्विक नेताओं से फोन पर बात करके पूरी स्थिति की जानकारी दी है। यहां सवाल खड़ा होता है कि क्या यह एक पूर्ण युद्ध की शुरुआत है? दूसरे, इसमें अमेरिका की क्या भूमिका है?
इस्राएल और ईरान के बीच यह तनाव कोई नया नहीं है, यह इन दोनों देशों के बीच कई दशक से सुलगते रहे आक्रोश का ही एक परिणाम है, विशेषकर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर इस्राएल दुनिया को लगातार आगाह करता आ रहा है। इस्राएल का दावा है कि ईरान गुप्त रूप से परमाणु हथियार तैयार कर रहा है, जबकि ईरान अपनी इस गतिविधि को ‘शांतिपूर्ण उद्देश्यों’ के लिए आवश्यक बताता आ रहा है। पिछले कुछ महीनों में ईरान ने इस्राएल के खिलाफ तीखे बयान दिए हैं और क्षेत्रीय चरमपंथी समूहों को उसे समर्थन देने की अपीलें की हैं। यह स्थिति इस्राएल को सुहा ही नहीं सकती थी और उसने अनेक अवसरों पर इसके विरुद्ध ईरान को चेताया भी है।

इस्राएली वायुसेना ने इस ‘ऑपरेशन राइजिंग लॉयन’ में ईरान के यूरेनियम संवर्धन केंद्रों, मिसाइल निर्माण इकाइयों और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के ठिकानों को निशाना बनाया है। रिपोर्ट बताती हैं कि इस हमले में रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के प्रमुख हुसैन सलामी की मौत हो चुकी है। इस्राएल ने इसे आत्मरक्षा में उठाया गया कदम बताया है और कहा है कि यह ‘अस्तित्व की लड़ाई’ है।
ईरान ने इस हमले को ‘युद्ध की मुनादी’ करार देते हुए जवाबी मिसाइल हमले शुरू करके इस्राएल को सावधान किया है। तेहरान ने कहा है कि वह अपने नागरिकों और संप्रभुता की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएगा। इस जवाबी कार्रवाई में इस्राएल के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों में नुकसान की खबरें आई हैं, जिससे बहुत हद तक, दोनों देशों के बीच सीधा सैन्य टकराव शुरू हो गया है।

प्रधानमंत्री मोदी को नेतन्याहू ने फोन पर स्थिति की जानकारी दी, जिसके बाद मोदी ने सार्वजनिक रूप से क्षेत्र में शांति और स्थिरता की आवश्यकता पर बल दिया है। भारत ने इस संघर्ष में तटस्थ रुख अपनाते हुए कूटनीतिक समाधान की वकालत की है। भारत की यह स्थिति उसकी पारंपरिक विदेश नीति के अनुरूप है, जिसमें वह पश्चिम एशिया में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता आ रहा है।
उधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस्राएल को ‘पूर्ण समर्थन’ देने की घोषणा की है। अमेरिका ने इस्राएल के आत्मरक्षा के अधिकार को उचित ठहराया है और ईरान पर ‘आक्रामक गतिविधियों’ का आरोप लगाया है। उन्होंने एक बार फिर ईरान को परमाणु समझौते को मान लेने की कड़े शब्दों में हिदायत दी है। दूसरी तरफ, रूस और चीन ने इस्राएल की इस कार्रवाई की आलोचना की है और इसे अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया है।
अमेरिका की यह भूमिका इस संघर्ष को और जटिल बना देती है, क्योंकि इससे पश्चिमी और पूर्वी शक्तियों के बीच कूटनीतिक ध्रुवीकरण तेज हो सकता है। अमेरिका की मध्य-पूर्व नीति पहले से ही विवादों में रही है, और यह नया घटनाक्रम उसे और अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के लिए मजबूर कर सकता है।
बेशक, इस संघर्ष का असर केवल पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रहने वाला है। तेल की कीमतों में उछाल देखा जा रहा है, वैश्विक शेयर बाजारों में गिरावट देखी गई है, और कई एयरलाइनों ने क्षेत्र में उड़ानें स्थगित कर दी हैं। संयुक्त राष्ट्र ने तत्काल युद्धविराम की अपील की है, लेकिन उसकी तरफ से इस बयान को छोड़कर अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है।

हर दृष्टि से, इस्राएल और ईरान के बीच यह टकराव अब केवल सीमित सैन्य कार्रवाई नहीं रह गया है, बल्कि यह एक व्यापक क्षेत्रीय युद्ध में बदलने की आशंका पैदा कर रहा है। अमेरिका की खुली समर्थन नीति, रूस और चीन की आलोचना, और भारत जैसे देशों की शांति की अपील, ये सभी गतिविधियां इस संघर्ष को वैश्विक कूटनीति का केंद्र बना रही हैं।
आने वाले दिनों में यह संकट और गहराएगा या कूटनीतिक प्रयासों से थमेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वैश्विक शक्तियां कितनी सक्रियता और संतुलन के साथ दोनों देशों को बातचीत की मेज पर लाने के लिए हस्तक्षेप करती हैं। भारत जैसे देशों की भूमिका इस समय निर्णायक हो सकती है, जो दोनों पक्षों के साथ संवाद बनाए रखने की स्थिति में हैं।
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