शिवाजी महाराज का जीवन साहस, संगठन, धर्मनिष्ठा और दूरदर्शिता का अद्भुत उदाहरण है। जब भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों का अंधकार छाया हुआ था, तब शिवाजी ने हिंदवी स्वराज्य की मशाल जलाकर भारतीय समाज को नई चेतना और आत्मगौरव का मार्ग दिखाया। उनके जीवन, संघर्ष और आदर्शों पर अनेक इतिहासकारों, लेखकों और समकालीन कवियों ने अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला है।
सत्रहवीं सदी का भारत विदेशी आक्रमणों, जबरन कन्वर्जन, सांस्कृतिक विनाश और मंदिरों के विध्वंस से आहत था। मुस्लिम शासकों के अत्याचारों ने हिंदू समाज को भय, असुरक्षा और अपमान के गर्त में डाल दिया था। मुगल स्त्रियों के सम्मान का हनन, उनकी हत्या, जबरन कन्वर्जन करते थे, मंदिरों को घ्वस्त कर दिया जाता था। ऐसे समय में शिवाजी ने न केवल तलवार उठाई, बल्कि हिंदू समाज को संगठित कर उसे आत्मगौरव और स्वाभिमान का मार्ग दिखाया।
प्रख्यात इतिहासविद् जी.एस. सरदेसाई लिखते हैं, “शिवाजी की वाणी में गजब का प्रभाव था। वे अपने साथियों को बार-बार यह समझाते थे कि मुस्लिम शासन ने किस प्रकार देश और धर्म पर अत्याचार किए हैं। उन्होंने अन्याय के विरुद्ध प्रतिशोध को अपना कर्तव्य माना और उसी के अनुरूप कार्य आरंभ किया। वहीं आर.सी. मजूमदार लिखते हैं, “शिवाजी ने बहुत जल्दी लोगों के दिल जीत लिए। वे सदैव सतर्क रहते थे और किसी भी खतरे व उसके परिणामों का सामना करने में सबसे आगे रहते थे। वे अपने साथियों के साथ गुप्त बैठकों का आयोजन करते और अत्यंत गंभीरता के साथ इस बात पर विचार करते कि अपनी मातृभूमि को मुस्लिम शासन से कैसे मुक्त कराया जाए, ताकि हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों का अंत किया जा सके।”
बचपन और संस्कार
शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ। उनकी माता जीजाबाई असाधारण क्षमताओं और दृढ़ संकल्प वाली महिला थीं। उन्हीं के मार्गदर्शन में शिवाजी के मन में धर्म, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति प्रेम और गौरव का भाव उत्पन्न हुआ। जीजाबाई ने उन्हें भारतीय संस्कृति, धार्मिक सहिष्णुता और न्यायप्रियता का पाठ पढ़ाया।
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार गजानन भास्कर मेहेंदले अपनी पुस्तक ‘शिवाजी: हिज़ लाइफ एंड टाइम्स’ में लिखते हैं, ‘उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही स्वयं को वास्तविक शासक की तरह प्रस्तुत किया। इसका साक्ष्य उनकी मुहर में मिलता है। यह मुहर 28 जनवरी 1646 की है, जब शिवाजी मात्र सोलह वर्ष के थे।’ उन्होंने लिखा है, “शिवभारत के लेखक परमानंद शिवाजी के समकालीन थे। वह उनके साथ आगरा भी गए थे। शिवभारत महाकाव्य की रचना स्वयं शिवाजी के आदेश पर की गई थी, इसलिए इसे शिवाजी की आधिकारिक जीवनी माना जा सकता है।’
सैन्य संगठन और दुर्ग नीति
शिवाजी ने लगभग 240 किलों पर अधिकार किया और कई नए किले भी बनवाए। उन्होंने मुगलों के खिलाफ आजीवन संघर्ष में रक्षात्मक युद्ध करने के लिए इन किलों का उपयोग किया। उनकी सैन्य नीति में अनुशासन, गुणवत्ता और देशभक्ति सर्वोपरि थी।
उनकी सेना संख्या में भले ही कम थी, लेकिन संगठन, अनुशासन और रणनीति के बल पर वे अत्यंत प्रभावी थी। शिवाजी ने किलों के प्रशासन के लिए तीन अधिकारियों की व्यवस्था की—हवलदार, सबनीस और सर्णोबत। सभी अलग-अलग जातियों के होते थे, जिससे सत्ता का दुरुपयोग न होने पाए। शिवाजी सैन्य व्यवस्था में अत्यन्त कुशल थे। संख्या में अपने शत्रुओं से कहीं कम होने के बावजूद, उन्होंने इस कमी को गुणवत्ता से पूरा किया। उनकी सेना भले छोटी थी तो उनका सैन्य प्रबंधन शानदार था। इन पहाड़ी किलों के लिए जो स्वभाव से अजेय थे, उन्हें मजबूत दुर्ग-रक्षकों की जरूरत नहीं थी, वहां कम सैनिक होते थे, केवल कुछ विशेष मामलों में अधिक ताकत दी जाती थी। किसी एक अधिकारी को कभी भी पूरे किले और उस गढ़ की पूरी जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। स्कॉट-वारिंग लिखते हैं, “शिवाजी महाराज ने चार सौ मील लंबी और एक सौ बीस मील चौड़ी भूमि पर अपनी सत्ता स्थापित की थी, और उनके किले पश्चिमी तट की पर्वत शृंखलाओं में फैले थे, जिससे शत्रु की गति बाधित होती थी। भारतीय जनता उन्हें अपने भाग्य को बदलने वाले नायक के रूप में देखती थी।
प्रशासनिक और सामाजिक सुधार
शिवाजी केवल युद्ध के नायक नहीं, बल्कि दूरदर्शी प्रशासक भी थे। उन्होंने प्रशासन, कृषि, मुद्रा, भाषा और धार्मिक व्यवस्था में भारतीय परंपराओं के अनुरूप सुधार किए। उनके शासन में सभी जातियों और धर्मों को समान अवसर, निष्पक्ष न्याय और सुरक्षा मिली। व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नौसेना का विकास किया गया, जिससे समुद्री मार्गों की सुरक्षा और व्यापार का विस्तार संभव हुआ।
मराठों का दिल्ली पर कब्जा
जब 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उसके बारह साल के भीतर मराठों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। मालवा और बुंदेलखंड पर अधिकार के बाद मराठों ने 1751 में ओडिशा पर हमला किया और बंगाल व बिहार से कर वसूला। 1757 में मराठों ने अमदाबाद को जीत लिया और 1758 में पंजाब के अटक किले पर मराठा ध्वज फहराया।
मराठों ने विदेशी शत्रुओं से लड़ने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली हुई थी। उन्होंने उत्तर कोंकण को पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त कराया और अफगानिस्तान के आक्रमणकारियों को भगाने के लिए पानीपत की युद्धभूमि में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए।
केंद्रीय शासन व्यवस्था
शिवाजी महाराज ने हिंदवी साम्राज्य की स्थापना के बाद इस तरह की व्यवस्था बनाई थी कि राज्य के सर्वोच्च पद पर राजा विराजमान होगा, जिसे राज्य परिषद सहयोग करेगी। इस परिषद को अष्टप्रधान मंडल कहा जाता था क्योंकि इसमें आठ मंत्री सम्मिलित थे। बाद में मराठा साम्राज्य में यही व्यवस्था रही। यह इस प्रकार थी :
- मोरो पंत (पेशवा), प्रशासनिक कार्यों का संचालन करना, आधिकारिक पत्रों व दस्तावेजों पर मुहर लगाना, सेना के साथ अभियानों पर जाना, जीते हुए प्रदेशों की रक्षा करना इनका काम था।
- नारो नीलकंठ एवं रामचंद्र नीलकंठ (अमात्य)- दोनों पूरे राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा देखते थे।
- पंडित राव : इन्हें धार्मिक मामलों पर अधिकार प्राप्त था। वे धर्म के अनुसार न्याय करते और सही-गलत का निर्णय कर दंड निर्धारित करते थे।
- हंबीर राव मोहिते (सेनापति)- सेना का प्रबंधन करते थे तथा युद्ध और अभियानों का नेतृत्व करते थे।
- दत्ताजी त्र्यंबक (मंत्री)- राज्य के राजनीतिक और कूटनीतिक मामलों का सावधानीपूर्वक संचालन करते थे।
- रामचंद्र पंत (सुमंत)- ये दूसरे राज्यों से संबंधों की जिम्मेदारी संभालते थे।
- अण्णाजी पंत (सचिव)-ये राजकीय पत्राचार की सावधानीपूर्वक जांच करते थे और यदि कोई पत्र छूट जाए तो उसकी विषयवस्तु में आवश्यक संशोधन करते थे।
- निराजी रावजी (न्यायाधीश)- इन्हें राज्य के सभी न्यायिक मामलों पर अधिकार प्राप्त था।
अष्टप्रधानों को उनके पदनाम के अनुसार निर्धारित स्थानों पर खड़ा किया जाता था। उनके समय में प्रधानों की नियुक्ति आजीवन नहीं होती थी। उन्हें कभी भी पद से हटाया जा सकता था। वे अपने पद को अपने पुत्रों या भाइयों को नहीं सौंप सकते थे।
धर्म और सहिष्णुता
शिवाजी ने धर्म के प्रति अपने कर्तव्यों को गंभीरता से निभाया। उन्होंने न केवल हिंदू मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया, बल्कि मुस्लिम मस्जिदों को भी पूर्व अनुदान जारी रखा। हालांकि, नए अनुदान मुख्यतः हिंदू धार्मिक संस्थाओं को ही दिए गए। उनकी नीति थी कि सभी को सम्मान मिले, लेकिन हिंदू समाज की रक्षा और पुनरुत्थान उनकी प्राथमिकता था।
मराठी और संस्कृत का प्रयोग
जब शिवाजी महाराज ने हिंदी साम्राज्य की स्थापना की तब पत्राचार में फारसी शब्दों का प्रयोग ज्यादा होता था। उन्होंने आधिकारिक पत्राचार में फारसी शब्दों की जगह संस्कृत शब्दों के उपयोग के लिए शब्दकोश बनाने का आदेश दिया। शिवाजी विदेशी और बाहरी प्रभाव को स्वीकार करने या सहन करने के लिए कतई तैयार नहीं थे। उन्होंने फारसी और उर्दू की जगह मराठी को प्राथमिकता दी। उन्होंने आधिकारिक कार्यों के लिए संस्कृत को अपनाया। इसके लिए ‘राज्य व्यवहार कोष ‘ नामक एक विशेष शब्दकोश तैयार करवाया गया। इस कोष को रघुनाथपंत हनुमंते के निर्देशन में विभिन्न विद्वान पंडितों द्वारा पूरा किया गया।
शिवाजी का राज्याभिषेक
शिवाजी का राज्याभिषेक भारतीय इतिहास की एक ऐतिहासिक घटना थी। 6 जून, 1674 को रायगढ़ किले में विधिवत वैदिक रीति से उनका राज्याभिषेक हुआ। तब तक मुगलों द्वारा किए गए फैसलों, उनके द्वारा की गई संधियों को सर्वोच्च माना जाता था, लेकिन उन्होंने हिंदवी साम्राज्य की स्थापना की, और एक हिंदू शासक के तौर पर सिंहासन पर बैठे, उन्हें छत्रपति की उपाधि दी गई। राज्याभिषेक के लिए बनारस के प्रसिद्ध वेदांताचार्य गागा भट्ट को आमंत्रित किया गया था। वे चारों वेदों और हिंदू शास्त्रों के अद्वितीय ज्ञाता थे। गागा भट्ट ने शिवाजी का राज्याभिषेक वैदिक विधि से संपन्न कराया। राज्याभिषेक के लिए सात पवित्र नदियों का जल रायगढ़ लाया गया। ग्यारह हजार ब्राह्मण और उनके परिवारों सहित पचास हजार लोग समारोह में शामिल हुए। शिवाजी ने अपने गुरु समर्थ रामदास और माता जीजाबाई का आशीर्वाद लिया, भवानी देवी की पूजा की और हिंदवी सम्राज्य की स्थापना की। शिवाजी महाराज मात्र एक योद्धा या शासक नहीं थे, बल्कि वे भारतीय संस्कृति, धर्म, स्वाभिमान और संगठन शक्ति के अमर प्रतीक हैं। उनका जीवन और कार्य आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्रेरणा स्रोत रहेंगे। उनका आदर्श युगों-युगों तक भारतीय मानस को आलोकित करता रहेगा।
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