बस्तर संभाग के नारायणपुर जिला अस्पताल में इस बात की गहमागहमी थी कि माओवादी संगठन के महासचिव बसवा राजू का शव उसके कथित परिजनों को सौंप दिया जाना चाहिए। इसे लेकर कानूनी लड़ाई भी चल रही थी और नक्सल समर्थक संगठन प्रशासन और पुलिस पर इसके लिए दबाव भी बना रहे थे। अबूझमाड़ के जंगलों में 21 मई, 2025 को सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में डेढ़ करोड़ का इनामी बसवा राजू अपने 27 साथियों के साथ मारा गया। सुरक्षाबलों की यह सफलता इस बात का द्योतक है कि लाल-आतंकवाद के ताबूत में आखिरी कील ठोकी जा रही है।

वरिष्ठ पत्रकार
विचारधारा की लड़ाई जारी रखने व महिमामंडन करने की मंशा से बसवा राजू के शव की मांग की जा रही थी। संभव था कि तेलंगाना ले जाकर लाव-लश्कर के साथ उसकी अंतिम यात्रा निकाली जाती, ‘कॉमरेड अमर रहे’, ‘लाल सलाम’ के नारे गूंजते और लड़ाई को आगे बढ़ाने की कसमें खाई जातीं। स्मरण रहे, अमेरिका ने कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन के शव को समुद्र में क्यों दफनाया था? इसलिए कि यदि उसे किसी निश्चित स्थान पर दफनाया जाता तो उसके समर्थक उसकी कब्र को स्मारक बना देते। भारत में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु का शव भी उसके परिजनों को नहीं सौंपा गया था, बल्कि जेल परिसर में ही कहीं दफना दिया गया। बसवा राजू जैसे मानवता के शत्रुओं के साथ ऐसा व्यवहार अपेक्षित था। हालांकि उसका शव कतिपय तकनीकी कारणों से उन लोगों को नहीं सौंपा गया, जो खुद को उसका परिजन बता रहे थे। बसवा और उसके कुछ साथियों के सड़ रहे शवों को प्रशासन ने नारायणपुर के पास के जंगलों में अंतिम संस्कार कर दिया।
बसवा राजू : मानवता का हत्यारा
महत्वपूर्ण है बसवा राजू का मारा जाना। वह कौन था? किस पृष्ठभूमि का था? कितना पढ़ा-लिखा था? ये सारे प्रश्न बेमानी हो जाते हैं, क्योंकि मानवता के हत्यारों की उनकी क्रूरता से अलग न तो कोई पहचान होती है, न ही होनी चाहिए। इस लाल-आतंकवादी का वास्तविक नाम नंबाला केशव राव था। नक्सली अपने वास्तविकनाम से जाने नहीं जाते। बसवा राजू के भी अनेक नाम थे जैसे-गगन्ना, प्रकाश, कृष्णा, विजय, केशव, प्रकाश, नरसिंहा, आकाश आदि।
तेलंगाना में श्रीकाकुलम के निकट जियान्नापेट गांव का रहने वाला बसवा राजू एक स्कूल मास्टर का बेटा था। आतंकी मसूद अजहर हो या बुरहान वानी इनके पिता भी स्कूल मास्टर ही थे। कहा जाता है कि बसवा राजू वॉलीबॉल और कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था। वारंगल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान वह रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन, फिर वामपंथी संगठनों और उनकी गतिविधियों की ओर आकर्षित हुआ। बी-टेक पूरा करने के कुछ समय बाद वह भूमिगत हो गया और प्रतिबंधित नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़ गया। साधारण कैडर से 1992 में वह संगठन में केंद्रीय कमेटी का सदस्य बना। 2000 में उसे पोलित ब्यूरो में शामिल किया गया। 2005 में विभिन्न नक्सली संगठनों का विलय हुआ और वे सभी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) की छतरी के नीचे आ गए।
संगठन की रीढ़ टूटी
माओवादी संगठन के महासचिव का मारा जाना बड़ी घटना है। इससे संगठन को गहरा आघात लगा है। नक्सलियों को अब तक का बड़ा नुकसान कर्रेगुट्टा की पहाड़ी पर हुए संघर्ष में हुआ। छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र के सुरक्षाबलों ने संयुक्त नक्सल विरोधी अभियान चलाया, जो 21 दिन चला। इसमें 31 नक्सली मारे गए। इसके बाद नक्सली बहुत कमजोर हो गए हैं। उनके संगठन की लड़ने की क्षमता भी समाप्त हो गई है। अब वे किसी भी क्षेत्र को अधिकार के साथ अपना आधार इलाका नहीं कह सकते।
नक्सलियों का आधार इलाका वह भौगोलिक क्षेत्र होता है, जहां वे संगठित होकर अपनी समानांतर सत्ता स्थापित करते हैं। ये इलाके आमतौर पर दुर्गम जंगलों, पहाड़ों और ग्रामीण क्षेत्रों में होते हैं, जहां शासन की उपस्थिति कमजोर होती है। इन आधार क्षेत्रों में नक्सली प्रशिक्षण शिविर, शस्त्र निर्माण व अन्य गतिविधियां चलाते हैं। साथ ही, ये उनके लिए हथियारों, रसद आपूर्ति और गुरिल्ला युद्ध के लिए रणनीतिक ठिकाने भी होते हैं।
सुरक्षित ‘किला’ नहीं बना सके
नक्सलियों ने देश के अनेक क्षेत्रों को आधार इलाका बनाने के प्रयास किए, जहां वे सुरक्षित रह कर सत्ता को चुनौती दे सकें। लेकिन अधिकतर मामलों में वे असफल रहे। इनमें सबसे पहले झारखंड-बिहार में पलामू, लातेहार और गया जैसे वनाच्छादित परिक्षेत्र थे, लेकिन इन क्षेत्रों में प्रभाव बनाने के बावजूद वे आधार क्षेत्र नहीं बना सके। पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम व पुरुलिया जैसे क्षेत्रों में भी कोशिश की, पर वहां भी विफल रहे। ओडिशा के कोरापुट, मल्कानगिरी, कंधमाल आदि क्षेत्रों में भी नक्सली बहुत सक्रिय रहे, पर वहां भी सुरक्षित पनाहगाह नहीं तलाश सके। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के मुलुगु के जंगलों में इसका प्रयास किया तो ग्रेहाउंड्स फोर्स के अभियानों ने उनकी कमर तोड़ दी। नक्सलियों का सबसे बड़ा सपना दंडकारण्य क्षेत्र को ‘लिबरेटेड जोन’ बनाने का था। इसमें छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के आपस में जुड़े घने जंगल और दुर्गम पर्वतीय हिस्से आते थे। लेकिन यहां भी वे विफल रहे।
गढ़ में भी सुरक्षित नहीं
वास्तव में, अब तक केवल अबूझमाड़ के जंगल ही नक्सलियों के लिए सुरक्षित ठिकाने थे। इसका मतलब यह है कि इस आधार क्षेत्र से धकेले जाने के बाद पूरी तरह से नक्सलियों का खात्मा किया जा सकता है। बीते चार दशक के दौरान कई हमले कर नक्सलियों ने बड़ी संख्या में स्वचालित हथियार लूटे, हथियारों की तस्करी की और अपने कारखाने में हथियार बनाते रहे हैं। इस कारण कई विशेषज्ञ कहते थे कि अब तक सुरक्षाबलों का सामना नक्सलियों से आमने-सामने की लड़ाई में नहीं हुआ है। जब भी ऐसा होगा तो जंगल-पहाड़ों से पूरी तरह वाकिफ होने के कारण नक्सली गुरिल्ले सुरक्षाबलों के जवानों पर भारी पड़ सकते हैं।
नक्सलियों को हमेशा यह लगता था कि अबूझमाड़ में लड़ाई सबसे अंत में होगी। लेकिन सुरक्षाबलों की बदली रणनीति को देखकर लगता है कि जहां नक्सली आखिरी लड़ाई मान रहे थे, पहल वहीं से हुई। बेहद आक्रामकता के साथ आपसी संयोजन करते हुए सीआरपीएफ, एसटीएफ, बीएसएफ, बस्तर बटालियन, बस्तर फाइटर और डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड जैसे विविध सैन्य बल माओवाद की रीढ़ पर प्रहार करने के लिए अबूझमाड़ के भीतर बढ़ चले हैं। कर्रेगुट्टा की पहाड़ी के चारों ओर लगाई गई बड़ी मात्रा में आईईडी, इसका प्रमाण था कि नक्सलियों ने पूरी तैयारी कर रखी थी। फिर नक्सलियों का गढ़ कैसे ध्वस्त हुआ? क्या वे अब भी लड़ने की स्थिति में हैं?
वार्ता की गुहार
लगभग 60 किलोमीटर में फैली कर्रेगुट्टा की पहाड़ी में नक्सल दुर्ग ध्वस्त होने से पहले ही यह स्पष्ट होने लगा था कि नक्सली अब बैकफुट पर आ गए हैं। उन्होंने अपने बैकडोर चैनल खोल दिए थे। उनके समर्थक अर्बन नक्सली कैडर छटपटा कर तेलंगाना में सभाएं कर बातचीत करने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे थे, ताकि सुरक्षाबल अपने अभियान रोक दें। छत्तीसगढ़ में भी नक्सलियों ने अनेक बार पर्चे जारी किए, पत्रकार को साक्षात्कार देकर अपनी बात शासन तक पहुंचाने की कोशिश की। उन्होंने पूरी कोशिश की कि सरकार उनके या अर्बन नक्सलियों के साथ बातचीत के लिए तैयार हो जाए और सुरक्षाबलों की कार्रवाई रुक जाए। दरअसल, वार्ता तो केवल बहाना था। वे अपने बिखरते संगठन और ताकत को समेटने के लिए समय चाहते थे।
यदि ऐसा होता तो नक्सलियों को ऊर्जा मिल जाती। लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने दृढ़ता दिखाई। इस बीच, नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले एक बड़े वकील नक्सल उन्मूलन को इस बात से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं कि इसके बाद वनवासी समाज पलायन करेगा, सरकार जमीनें छीन लेगी आदि। इस तरह की टूल किट को हल्के में लेना ठीक नहीं है। सच यह है कि नक्सलवाद के कारण बस्तर से बड़ी संख्या में जनजातीय समाज पलायन कर पड़ोसी राज्यों में चला गया। यही नहीं, कथित तौर पर उनके हक के लिए लड़ने वाले नक्सलियों ने ही अनेक जनजातीय परिवारों को घर और जमीन से बेदखल किया है।
हालांकि, राज्य तथा केंद्र की सरकारों ने नक्सलियों और उनके समर्थकों द्वारा खड़े किए जा रहे अवरोधकों को सूझ-बूझ से पार किया और नक्सलियों को केवल आत्मसमर्पण का विकल्प देते हुए अभियान जारी रखा। हर तरफ से हताश नक्सलियों ने एक पर्चे के जरिए पुलिस से कार्रवाई न करने की अपील की है। लाल-हत्यारे उसी पुलिस के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं, जिन्हें अभी तक वे कुछ नहीं समझते थे। नक्सलियों ने असंख्य सिपाहियों की गला रेत कर हत्या कर दी या बारूदी सुरंग विस्फोट कर। कई ऐसे ग्रामीण हैं जिन्हें अपना घर-बार इसलिए छोड़ना पड़ा, क्योंकि उनके परिजन पुलिस में हैं। किसी ने गलती से भी पुलिस वाले से बात की तो नक्सलियों ने उन्हें मुखबिर बताकर मार डाला।
अभियान समाप्त होने पर सुरक्षाबलों को नक्सलियों के पास से न केवल इंसास, बीजीएल, मेगा स्नाइपर, एसएलआर जैसे हथियार मिले, बल्कि 450 आईईडी, 818 बीजीएल सेल, 899 बंडल कारडेक्स, डेटोनेटर सहित भारी मात्रा में विस्फोटक मिले हैं। सुरक्षाबलों ने नक्सलियों की चार तकनीकी इकाइयों को भी नष्ट किया है, जिसका उपयोग बीजीएल सेल, आईडी आदि के निर्माण के लिए किया जाता था। कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों पर नक्सलियों की उपस्थिति कितनी मजबूत रही होगी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 250 से अधिक प्राकृतिक व मानवनिर्मित बंकर नष्ट किए गए। ऐसी अनेक गुफाएं मिलीं, जिनका प्रयोग नक्सली छिपने और गतिविधि संचालन के लिए करते थे। इन गुफाओं में 12,000 किलो से अधिक राशन छिपाकर रखे गए थे।

लालकिले का सपना
बीते लगभग 6 दशकों में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू नक्सलवाद विकराल हो गया था। इसने पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारा बना लिया था। अनेक माओवादी दस्तावेजों में इस बात की हुंकार थी कि 2050 तक लालकिले पर लाल निशान लगा दिया जाएगा। 2008 में जब माओवादी नेपाल में राजशाही का अंत कर सत्ता पाने में सफल हुए, तब उनकी संकल्पना को ठोस धरातल भी मिलने लगा था। लेकिन सुरक्षाबल हर कुछ अवधि में नक्सल आधार क्षेत्र को घेरते, नक्सल प्रभावित क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करते हुए आगे बढ़ते रहे। 2024 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने के साथ ही नक्सलियों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़ दी गई। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, ओडिशा, झारखंड जैसे राज्यों में ही नक्सली उन्मूलन अभियान नहीं चल रहा है, अपितु सुदूर जंगल, छोटे-छोटे ठिकाने भी अछूते नहीं हैं।
कर्नाटक, जो लाल गलियारे का महत्वपूर्ण हिस्सा था, वह नक्सल मुक्त हो चुका है। वहां 1980 के दशक में नक्सलवाद ने पैर जमाया और पश्चिमी घाट के चिक्कमंगलुरु, उडुपी, दक्षिण कन्नड़, शिमोगा और कोडागु जिलों में अपने खूनी पंजे मजबूत किए। पश्चिमी घाट उनके लिए रिजर्व क्षेत्र की तरह था। लेकिन लगातार सफल अभियानों के कारण 8 जनवरी, 2025 को यहां सक्रिय आखिरी नक्सली समूह ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। इनमें नक्सल नेता वंजाक्षी सहित 5 अन्य नक्सली शामिल थे, जबकि शेष दो फरार हो गए थे।
मौका नहीं दे रहे सुरक्षाबल
नक्सली हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सुरक्षाबलों से कोई चूक हो। 6 जनवरी, 2025 की घटना इसका उदाहरण है। बीजापुर में नक्सल अभियान में पांच नक्सलियों को ढेर करने के बाद डीआरजी के जवान कैंप लौट रहे थे। उन्हें लाने के लिए जो पिक-अप वाहन भेजी गई थी, वह नक्सलियों का निशाना बन गई। कुटरू क्षेत्र में अंबेली ग्राम के निकट नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट किया। यह धमाका इतना शक्तिशाली था कि वाहन के परखचे उड़ गए और सड़क में दस फीट से अधिक गहरा गड्ढा बन गया। इसमें एक चालक और दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान बलिदान हो गए थे।
2024-25 में सुरक्षाबलों ने अभियान में अतिरिक्त सतर्कता बरतनी शुरू की। सटीक कार्रवाई और समन्वय के परिणाम भी दिख रहे हैं। इस दौरान अनेक बड़ी घटनाएं हुईं, मुठभेड़ हुए, लेकिन इनमें जवानों को कोई नुकसान नहीं हुआ, बल्कि बड़ी संख्या में नक्सली मारे जा रहे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा 10 अप्रैल, 2025 को जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, “वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या अप्रैल 2018 में 126 से घटकर 90, जुलाई 2021 में 70 और अप्रैल 2024 में 38 हो गई। नक्सलवाद प्रभावित जिलों में से सर्वाधिक प्रभावित जिलों की संख्या 12 से घटकर अब 6 हो गई है, जिसमें छत्तीसगढ़ के चार जिले (बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर और सुकमा), झारखंड का एक (पश्चिमी सिंहभूम) और महाराष्ट्र का एक (गढ़चिरौली) शामिल है।’’ इसका सामान्य सा अर्थ है कि माओवाद आखिरी सांसें गिन रहा है और तय समयसीमा में इसका खात्मा किया जा सकता है।

अर्बन नक्सलियों की तड़प
विचारधारा की लड़ाई में अंतिम विजय तभी मिल सकती है, जब नक्सलियों को मिलने वाला समर्थन और खाद-पानी पूरी तरह बंद कर दिया जाए। याद कीजिए, कर्रेगुट्टा की पहाड़ी पर जब सुरक्षाबल के जवान नक्सलियों से लोहा ले रहे थे, उसी समय तेलंगाना में विपक्षी दल बीआरएस के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव नक्सलियों से शांति वार्ता की मांग कर रहे थे। इस समय तेलांगना में कई नक्सल समर्थक समूह सक्रिय हैं, जिन्होंने सिविल सोसाइटी का मुखौटा पहन रखा है।
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ है, जहां सरकार वामपंथी बौद्धिक मोर्चे को उसी के तरीके से जवाब दे रही है। इसी क्रम में सितंबर 2024 को बस्तर से 55 नक्सल पीड़ित दिल्ली पहुंचे और जंतर-मंतर पर अपनी व्यथा देश के सामने रखी। उसी दिन शाम को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने छात्रों को अपनी व्यथा सुनाई। उनका कहना था कि अध्ययनशील और विचारवान लोगों को समस्या की पहचान होनी चाहिए, न कि उन्हें किसी विचारधारा अथवा एजेंडा के बहाव में आना चाहिए। जिस जल, जंगल और जमीन के नारों की आड़ में नक्सलवाद को जायज ठहराया जाता है, उसी के कारण आज वे अपने ही जंगल में जाने से डरते हैं। न जाने कब, किस पेड़ के नीचे लगाया गया कोई आईईडी या प्रेशर बम फट जाए और वे जान गंवा दें। ग्रामीणों ने बताया कि नक्सलियों ने किस तरह स्कूलों को नष्ट कर उनकी पीढ़ी को अनपढ़ बनाना चाहा, सड़कों और संचार के माध्यमों को नष्ट कर उन्हें शेष दुनिया से काट कर रखा। कई पीड़ित जो अब चल-फिर नहीं सकते, उन्होंने छात्रों से पूछा कि बौद्धिक जमात उस अन्याय की बात क्यों नहीं करता जो नक्सिलयों द्वारा कथित जनअदालत लगा कर बस्तर के जंगलों में की जाती है।
नक्सलवाद ने देश, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के बस्तर परिक्षेत्र को लाशों के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया है। आज जब यह अपनी सांसें ले रहा है, तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस नासूर का रत्ती भर हिस्सा भी न बचे। अनेक नक्सल समर्थक संगठन, जो समाजसेवी या मानवाधिकार जैसे कवच धारण किए हुए हैं, नक्सलवाद को किसी तरह जीवित रखने के लिए सरकार पर बातचीत के लिए दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए नक्सल प्रभाव में रहे ग्रामीणों का भी सहारा लिया जा रहा है, ताकि यह धारणा बने कि स्थानीय लोग नक्सलियों के पक्षधर हैं। अर्बन नक्सलियों के इस नैरेटिव को समझना होगा। वामपंथी एक्टिविस्ट सीमा आजाद ने ब्लॉग में लिखा, “पिछले दो महीने से माओवादी हथियार रखकर सरकार से शांति वार्ता की अपील कर रहे हैं। ढेरों मानवाधिकार संगठन और बुद्धिजीवी शांतिवार्ता के लिए सरकार से अपील कर रहे हैं। ऐसे समय में भी उनसे बातचीत न करके उन्हें मारते जाना गैर न्यायिक हत्या और मानवाधिकार का उल्लंघन ही माना जाएगा।”
प्रश्न है क्या सरकार बात करने के लिए कभी तैयार नहीं हुई? छत्तीसगढ़ के उप-मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री विजय शर्मा ने जुलाई 2024 में कहा था कि सरकार नक्सलियों से बात करने के लिए तैयार है। राज्य सरकार वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से भी बात करने के लिए तैयार थी। तब नक्सली और अर्बन नक्सली क्यों खामोश थे? सच यह है कि वे वार्ता के लिए तब इसलिए आगे नहीं आए, क्योंकि स्वयं को अजेय मान रहे थे। वे यह मान कर चल रहे थे कि सैन्यबल कुछ भी कर ले, उनके आधार क्षेत्र यानी ‘अबूझमाड़’ तक नहीं पहुंच सकते। अब जबकि संगठन छिन्न-भिन्न हो गया है तो बातचीत करने का अर्थ है नक्सलियों को फिर से खड़ा होने का अवसर देना।
बसवा के लिट्टे से संबंध
बसवा राजू लिबरेशन टाईगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) से भी जुड़ा और इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) का प्रशिक्षण लिया। दो आतंकी संगठनों के मिलने से नक्सलवाद बेहद क्रूर और वीभत्स रूप में उभरा। बसवा राजू ने रानीबोदली (2007), एर्राबोर (2007), मदनवाड़ा (2009), ताड़मेटला (2010), गादीरास (2010), धौड़ई (2010), झीरम (2013), चिंतागुफा (2017), किस्टरम (2018), श्यामगिरी (2019), मिनपा (2020), टेकुलगुड़ेम (2021) आदि अनेक नक्सली हमलों में निर्दोष ग्रामीणों और जवानों के लहू से बस्तर की धरती को लाल किया था। 2018 में जब संगठन के महासचिव रहे गणपति ने बढ़ती उम्र के कारण पद छोड़ा, तब से बसवा राजू ही संगठन को संभाल रहा था। नक्सली संगठन में महासचिव सर्वोच्च पद होता है। बसवा राजू आतंकी रणनीति बनाने में माहिर था। संगठन के महासचिव रहे कोंडपल्ली सीतारमैया, गणपति और बसवा राजू ने चार दशक तक बस्तर संभाग में आतंक फैलाया। लेकिन बसवा राजू की मौत के बाद माओवाद की दशा-दिशा क्या होगी, यह देखना होगा। लेकिन यह तो तय है कि संगठन लाचार हुआ है। विचारणीय यह है कि केंद्र और राज्य की संयुक्त राजनीतिक इच्छाशक्ति ने तय किया है कि 31 मार्च, 2026 तक देश से नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा। बसवा राजू की मौत के बाद असंभव-सा लगाने वाला लक्ष्य अब पूर्ति के निकट आ पहुंचा है।
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