स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का पूरा जीवन राष्ट्र चेतना और सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये समर्पित रहा। बालवय से जीवन की अंतिम श्वास तक, वे न कभी रुके, न कभी झुके। उनका अभियान केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं था। उनका लक्ष्य था एक ऐसे सशक्त और समृद्ध भारत का निर्माण करना, जैसा वह अतीत में रहा है। वे शौर्य और सामर्थ्य से युक्त ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना चाहते थे जो अपने पूर्वजों की परंपरा पर गर्व करते हुए भविष्य के भारत का निर्माण करे। सावरकर जी ने एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के लिये एक पूरी पीढ़ी तैयार की तो दूसरी ओर ऐसे कालजयी साहित्य की रचना की जो आने वाली पीढ़ियों का भी मार्गदर्शन कर सके। उनकी हर रचना में स्वत्व, स्वाभिमान और राष्ट्रबोध का प्रबल ज्वार दिखता है।

वरिष्ठ पत्रकार
किसी भी व्यक्तित्व का निर्माण उसके परिवार की पृष्ठभूमि और बालपन में मिले संस्कारों से होता है। परिवार का मानस जिस विचार और भाव की ओर झुका होता है, बच्चों की चिंतनधारा भी उसी ओर अपनी वैचारिक यात्रा आरंभ करती है। सावरकर जी के पूर्वज पीढ़ियों से भारत के सांस्कृतिक गौरव की स्थापना और चेतना के जागरण के लिये समर्पित रहे। पिता दामोदर सावरकर महाभारत और श्रीमद्भागवत के उद्भट विद्वान थे, इन ग्रंथों की कथाओं और प्रसंगों के माध्यम से समाज जागरण का कार्य कर रहे थे। परिवार की इस पृष्ठभूमि का प्रभाव सभी बच्चों पर पड़ा था। पूरा परिवार स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुआ और अवर्णनीय प्रताड़ना सहकर भी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया।
रचनाओं से जगाया समाज
सावरकर जी का जीवन और संघर्ष, दोनों बहुआयामी थे। उसी प्रकार उनका लेखन भी विविधता और निरंतरता से भरा है। उनका लेखन बालवय में ही आरंभ हुआ और उनके जीवन संघर्ष की भांति अनवरत चलता रहा। उनका जीवन किसी भी मोड़ पर रहा, लेखन कभी रुका नहीं। वे शालेय विद्यार्थी रहे हों या लंदन में वकालत के अध्येयता अथवा अंदमान में कालापानी जेल की कठोर यातनाओं के बीच, लेखन सतत चलता रहा। उनके लेखन में व्यक्तित्व की संकल्पशीलता, यथार्थता, दूरदर्शी चिंतन झलकता है।
गीत, कविता, लघुकथा, लेख, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधाओं में उनका लेखन उपलब्ध है। बालवय में उनका लेखन कब आरंभ हुआ, यह विवरण तो नहीं मिलता, लेकिन जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे, तब उन्होंने अपने विद्यालय में भारत के लौकिक स्वरूप पर आधारित एक स्वरचित कविता ‘स्वदेशी छाप’ सुनाई थी। रचना में यद्यपि अंग्रेजी शासन के प्रति कोई कटाक्ष नहीं था, अपितु भारत के प्राकृतिक स्वरूप के गौरव का चित्रण था। इसकी चर्चा पूरे विद्यालय में हुई और शिक्षकों की भृकुटियां तन गईं।
1902 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में बीए करने आये। कॉलेज में उनकी ओजपूर्ण कविताओं की धाक जम गई। उनकी रचनाएं ‘तलवार’ और ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। कुछ रचनाएं कलकत्ता के ‘युगान्तर’ में भी प्रकाशित हुईं। उनकी रचनाओं ने भारत के युवाओं में नये ओज का संचार किया। कलकत्ता का ‘युगान्तर’ क्रांतिकारियों में लोकप्रिय था। इसमें रचनाएं प्रकाशित होने से सावरकर जी सभी क्रांतिकारियों में लोकप्रिय हो गये। लेकिन जिस रचना ने पूरे यूरोप और भारत में तहलका मचाया था, वह थी 1857 की क्रान्ति पर उनका ग्रंथ। ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित संसार की यह पहली रचना थी जिसके प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया गया था। सावरकर जी ने 1857 के संघर्ष को भारतीय स्वतंत्रता के लिये ‘क्रांति’ लिखा था। उनसे पहले 1857 के संघर्ष को ‘गदर’ अथवा ‘सैनिक विद्रोह’ ही कहा जाता था। सावरकर जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इसे स्वतंत्रता का ‘जन संघर्ष’ माना और जन सहभागिता प्रमाणित की। इस ग्रंथ की रचना लंदन में हुई। सावरकर जी वकालत पढ़ने लंदन गये थे।
वे अपनी वकालत की निर्धारित पढ़ाई के समानांतर लंदन के संग्रहालय जाकर ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन भी करते थे। उन्होंने वहां 1857 से संबंधित सभी दस्तावेजों का अध्ययन किया और यह ग्रंथ ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ तैयार हुआ। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें वर्णित सभी घटनाक्रमों का आधार अंग्रेज सैन्य अधिकारियों की डायरियों को बनाया गया था।
सावरकर जी का ग्रंथ 1908 में पूरा हुआ था। इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई। वे तथ्यों का तो खंडन नहीं कर सकते थे लेकिन उन्होंने इसके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसीलिए ब्रिटेन और फ्रांस का कोई उसे छापने को तैयार न हुआ। अंततः यह ग्रंथ 1909 में नीदरलैंड से प्रकाशित हो सका। यह पुस्तक ‘पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स’ नाम से भारत भेज दी गई। तब सावरकर जी की आयु मात्र अट्ठाइस वर्ष थी। इसी वर्ष सावरकर जी ने वकालत परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन सावरकर जी ने ब्रिटेन की महारानी के प्रति वफादारी की शपथ लेने से इंकार कर दिया। इस कारण उन्हें वकालत की अनुमति नहीं मिली।
उन्हीं दिनों क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा ने लंदन में कर्जन वायली को गोली मार दी। सावरकर जी ने इस घटना पर एक लेख लिखा, जो लंदन टाइम्स में प्रकाशित भी हुआ। इस आलेख में उन्होंने जन सामान्य के उस गुस्से का संकेत किया था जो मदनलाल ढींगरा के माध्यम से प्रकट हुआ था। इस हत्याकांड में सावरकर जी को भी आरोपी बनाया गया। उन्हें 13 मई 1910 को लंदन में गिरफ्तार करके एम. एस. मोरिया नामक जहाज से भारत रवाना कर दिया गया। लेकिन सावरकर जी सीवर होल से समुद्र में कूद पड़े और तैरकर मार्सेली बंदरगाह पहुंच गए। वहां वह गिरफ्तार कर लिये गये। भारत लाकर उन्हें दो आजीवन कारावास की सजा सुनाकर अंदमान के पोर्ट ब्लेयर स्थित सेलुलर जेल में बंद कर दिया गया। यहां उन्हें ‘खतरनाक कैदी’ की श्रेणी में रखकर कठोर यातनाएं दीं गईं, कोल्हू चलवाया गया। इन अमानवीय यातनाओं के बीच भी उनका लेखन न रुका।
कैद में रहते हुए उन्होंने एक पुस्तक ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ की रचना की। हिंदुत्व की अवधारणा पर आधारित सामाजिक जीवन की यह पहली रचना मानी जाती है। इसमें सावरकर जी ने ‘हिंदू’ और ‘हिंदुत्व’ शब्द की व्याख्या की है। सावरकर जी की यह व्याख्या जाति, पंथ अथवा क्षेत्रीयता से परे है। उनके अनुसार जो व्यक्ति भारत को अपनी मातृभूमि और पितृभूमि मानता है वह हिंदू है। इस परिभाषा के अंतर्गत स्वयं को हिंदू मानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर संचारित स्वत्व एवं स्वाभिमान की चेतना हिन्दुत्व है। इस रचना में उन्होंने ‘भारतवर्ष’ नाम और उसकी सीमाओं का भी विवेचन किया है।
जेल में भी साहित्य सृजन
जिस प्रकार सावरकर जी ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर एक शोध ग्रंथ की रचना की, उसी प्रकार उन्होंने मराठा साम्राज्य और हिंदू पद पादशाही पर भी तथ्यात्मक ग्रंथ तैयार किया। इस ग्रंथ में वे उन विशेषताओं को सामने लाए कि कैसे शून्य से आरंभ होकर वह संघर्ष एक विशाल साम्राज्य बना और यह भी कि किन सावधानियों से उसका क्षय हुआ। उन्होंने अपने जेल जीवन पर आधारित आत्मकथा भी लिखी। इसमें गिरफ्तारी, मुकदमे से लेकर कारावास की दिनचर्या का भी विवरण है।
सेलुलर जेल में शुरू में उन पर बहुत कड़ाई बरती गई थी। वे कोयले से दीवारों पर लिखकर रचनाओं को याद कर लिया करते थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय जेल में अत्याचार कम हुए और उनका लेखन बढ़ा। विषमता कैसी भी रही हो, जेल की अथवा स्वास्थ्य की, उनका लेखन कभी नहीं रुका। कालापानी जेल में लिखी गई उनकी एक कविता ‘जयोस्तुते’ अद्भुत है। यह रचना स्वतंत्रता की देवी के लिये है। इसमें दर्द, ओज और संकल्प तीनों भाव समाए हैं-
जयोऽस्तु ते श्रीमहन्मंगले! शिवास्पदे शुभदे
स्वतंत्रते भगवती! त्वामहं यशोयुतां वंदे
राष्ट्राचे चैतन्यमूर्त तू नीती-संपदांची
स्वतंत्रते भगवती! श्रीमती राज्ञी तू त्यांची
परवशतेच्या नभांत तूची आकाशी होशी
स्वतंत्रते भगवती! चांदणी चमचम लखलखशी
वंदे त्वामहं यशोयुतां वंदे
गालावरच्या कुसुमी किंवा कुसुमांच्या गाली
स्वतंत्रते भगवती! तूच जी विलसतसे लाली
तू सूर्याचे तेज, उदधिचे गांभीर्यहि तूची
स्वतंत्रते भगवती! अन्यथा ग्रहण नष्ट तेची
वंदे त्वामहं यशोयुतां वंदे
मोक्ष-मुक्ति ही तुझीच रूपे तुलाच वेदांती
स्वतंत्रते भगवती! योगिजन परब्रम्ह वदती
जे जे उत्तम उदात्त उन्नत महन्मधुर ते ते
स्वतंत्रते भगवती! सर्व तव सहचारी होते
वंदे त्वामहं यशोयुतां वंदे
हे अधम-रक्तरंजिते, सुजन पूजिते, श्रीस्वतंत्रते
तुजसाठि मरण ते जनन, तुजवीण जनन ते मरण
तुज सकल चराचर शरण, चराचर शरण, श्रीस्वतंत्रते
वंदे त्वामहं यशोयुतां वंदे
अर्थात-
हे स्वतंत्रता की देवी, मैं आपसे सफलता का आशीर्वाद मांगता हूं। आप हमारी राष्ट्रीय भावना, हमारी नैतिकता और हमारी उपलब्धियों की मूर्त रूप हैं।
हे स्वतंत्रता की महिमामयी देवी, आप दासता के घोर अंधकार में भी धार्मिकता की रानी हैं।
हे स्वतंत्रता की देवी, आप आशा का चमकता तारा हैं।
चाहे गालों के कुसुम पर अथवा फूलों जैसे कोमल गालों पर, हे स्वतंत्रता की देवी, आप आत्मविश्वास की लालिमा हैं! आप सूर्य की चमक, सागर की महिमा हैं। हे स्वतंत्रता की देवी, परन्तु आपके लिए स्वतंत्रता का सूर्य ग्रहण ग्रस्त है।
कट्टर मजहबी राजनीति का विरोध
उनका अधिकांश लेखन मराठी में हुआ, लेकिन उन्होंने मराठी के अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में भी लिखा। भाषा की शुद्धि उनके लेखन की विशेषता थी। उन दिनों स्थानीय भाषा की रचनाओं में उर्दू या अरबी के शब्द आ जाते थे। लेकिन सावरकर जी के लेखन में उर्दू या अरबी के शब्द नहींमिलते। उन्होंने कुल 38 पुस्तकें लिखीं। इनमें सबसे प्रसिद्ध हैं ‘उषाय’, ‘संयतस्तखड्ग’ और ‘उत्तरक्रिया’ नाटक, ‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’, ‘हिंदू पदपादशाही’ और ‘माझी जन्मठेप’, ‘माई लाइफ-टर्म’, इटली के क्रांतिकारी जोसेफ माजिनी की जीवनी, ‘शिखांचा इतिहास’ (सिखों का इतिहास), ‘मला के त्याचे’ और ‘गोमांतक’।
इटली के क्रांतिकारी जोसेफ की जीवनी लिखकर सावरकर जी ने भारत के क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी तो मालाबार के नरसंहार पर ‘मोपला’ लिखकर सनातन हिन्दुओं के नरसंहार की ओर पूरे भारत का ध्यान आकर्षित किया। सावरकर जी के लेखन से ही 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविकता और अंदमान जेल में बरती जा रही अमानवीयता पूरे देश के सामने आ सकी। उनके लेखन में भारत की तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों की भी स्पष्ट झलक है। उनके आरंभिक लेखन में संपूर्ण भारतवासियों को एक सूत्र में बांधकर ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिये जाग्रत करने की लालसा दिखती है।
1924 के बाद के उनके लेखन में सामाजिक चुनौतियों से सतर्कता का आह्वान भी है। मुस्लिम लीग के गठन के बाद कट्टरपंथी मुस्लिम राजनीति और अंग्रेजी सरकार एवं चर्च के गठजोड़ से सावधान रहने का संदेश भी झलकता है। जेल से मुक्ति के बाद सावरकर जी के लेखन में हिंदुत्व भाव की जागृति और सावधानी का पक्ष बढ़ा। इसके लिये उन्होंने धर्म, भाषा और सांस्कृतिक चेतना को आवश्यक बताया। चूंकि 1931 में पाकिस्तान निर्माण की पूरी योजना सामने आ चुकी थी, सावरकर जी इसे मुस्लिम कट्टरपंथ और अंग्रेजी सत्ता का एक षड्यंत्र मानते थे। इसके प्रतिकार के लिए वे समूचे हिन्दू समाज को एकजुट और जागरूक करना चाहते थे। 1939 के बाद के उनके लेखन और संबोधनों में यही भाव झलकता है।
सावरकर जी के लेखन की कथावस्तु भारत राष्ट्र की महत्ता, सांस्कृतिक गौरव, स्वत्व बोध और एक सशक्त, सुसंस्कृत एवं आत्मनिर्भर पीढ़ी का निर्माण करने पर केन्द्रित रही। समय के साथ उनके नाटकों का मंचन भी हुआ है और साहित्य का हिन्दी व अंग्रेजी में अनुवाद भी। उनके कुछ गीतों को संगीतबद्ध भी किया गया। अतीत की असावधानियों से सतर्क होकर भविष्य के भारत के निर्माण के लिये सावरकर जी का साहित्य युवा पीढ़ी के सामने लाना आवश्यक है।
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