सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: शरिया अदालत और फतवे कानूनी रूप से अमान्य
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सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: शरिया अदालत और फतवे कानूनी रूप से अमान्य

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि शरिया अदालत, दारुल कजा या काजी अदालत के फतवे और फैसले कानूनी रूप से मान्य नहीं हैं। 2014 के विश्व लोचन मदन मामले में कोर्ट ने कहा कि ये आदेश बाध्यकारी नहीं हैं।

by Kuldeep Singh
Apr 29, 2025, 10:05 am IST
in भारत
सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट

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शरिया और फतवों की वकालत करने वाले मौलवियों को बड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये स्पष्ट कर दिया है कि ‘शरिया अदालत’, ‘दारुल कजा’ या फिर ‘काजी अदालत’ किसी भी रूप में कानूनी तौर पर सही नहीं मानी जा सकती है। इसे कानून मान्यता नहीं मिली है। मतलब ये कि अगर शरिया अदालत किसी भी तरह का फैसला सुनाती है तो ये अवैध होगा।

रिपोर्ट्स के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय ने ये बात 2014 के विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ के मामले की सुनवाई करते हुए कही है। जस्टिस सुधांशू धूलिया और अहसानुद्दीन अमानतुल्लाह की पीठ ने साफ किया कि मुस्लिमों के द्वारा जारी किए जाने वाले फतवे अवैध होते हैं। जस्टिस अमानुल्लाह का कहना था कि इस प्रकार की अदालतों के तौर पर जाने जा रहे कथित निकायों की कोई कानून वैधता नहीं है। ऐसे में इनके द्वारा जारी किया गया कोई भी आदेश बाध्यकारी भी नहीं हो सकता है। ये संबंधित व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वो इसका पालन करता है या नहीं।

मामला क्या है

सर्वोच्च अदालत के इस मामले में निर्णय की तह तक जाने की कोशिश करें तो पाएंगे कि ये घटना 2002 की है, जब अपीलकर्ता पत्नी और प्रतिवादी पति दोनों न ही इस्लामिक तौर तरीके से अपना दूसरा विवाह कर लिया था। लेकिन, तीन साल के भीतर ही दोनों के बीच मामला बिगड़ गया। इसके बाद महिला के शौहर ने ‘काजी अदालत’ में तलाक के एक एप्लीकेशन फाइल कर दी। इसके बाद काजी अदालत में दोनों को ही समझाने के लिए बुलाया जाता है और समझौता होने के बाद 22 नवंबर 2005 को ही इस आवेदन को खारिज कर दिया जाता है।

3 साल तक किसी तरह से दोनों के बीच सुलह बनी रहती है और फिर तीन साल के बाद 2008 में शौहर जो है वह फिर काजी अदालत पहुंच जाता है वह तलाक मांगता है। वहीं दूसरी ओर उसकी बीवी भी आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अदालत में भरण-पोषण के लिए एक अर्जी फाइल कर देती है। लेकिन, पारिवारिक न्यायालय यह कहकर महिला की याचिका को खारिज कर देता है कि वह खुद ही वैवाहिक विवाद और उसके बाद अलग होने के लिए उत्तरदायी है। अत: वह भरण पोषण के लिए आवेदन नहीं कर सकती है।

2009 में मिला तलाक

इसके ठीक एक साल बाद पति की याचिका पर दारुल कजा के द्वारा दिए गए तलाक के बाद औपचारिक तौर पर तलाकनामा तैयार कर लिया गया। अब इसी मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया है कि संवैधानिक अदालतों के अलावा किसी भी प्रकार की शरिया अदालतों का फैसला बाध्यकारी नहीं हो सकता है। इसके साथ ही कोर्ट ने शौहर को उसकी पत्नी को 4000 रुपए प्रति माह का भरण पोषण देने का आदेश दिया है।

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