बलिदानियों के शिरोमणि और ब्रह्मज्ञानी गुरु अर्जन देव जी
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बलिदानियों के शिरोमणि और ब्रह्मज्ञानी गुरु अर्जन देव जी

श्री गुरु अर्जन देव जी के बलिदान की गाथा, जिन्होंने मुगल बादशाह जहाँगीर के अत्याचारों का सामना करते हुए सिख धर्म और मानवता की रक्षा की। उनके जीवन, गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन और सिख इतिहास में उनके योगदान के बारे में जानें।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Apr 20, 2025, 10:32 am IST
in संस्कृति
Guru Arjan dev ji

गुरू अर्जन देव जी

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‘तेरा कीआ मीठा लागे।
हरि नामु पदारथ नानक मांगे॥’

ये शबद गुरु अर्जन देव ने उस समय कहे थे , जब अय्याशी के सरताज़ जहाँगीर के आदेश पर उन्हें प्रकारांतर से इस्लाम मजहब कबूल करने के लिए, रुह कंपा देने वाली यातनाएं दी जा रही थीं। भयानक यातनाओं के बाद भी आतातायी मुगल, गुरु अर्जन देव को उनके धर्म से तिल भर भी ना डिगा सके और इस तरह यातनाओं के अतिरेक से उनका “स्व” के लिए महा बलिदान हुआ। ऐसी हुतात्माओं की जीवनी और मुगलों के कुकृत्यों के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए! ताकि भावी पीढ़ी को भी तो पता चले कि तथाकथित सेक्युलरों, वामपंथियों और परजीवी इतिहासकारों ने क्या छुपाया है? क्या गुनाह किया है?

गुरु अर्जन देव मानवीय आदर्शों पर अडिग रहने के लिए, अडिग रहने का उपदेश देते थे। गुरु जी एक महान आत्मा थे। उनके भीतर धार्मिक और मानवीय मूल्यों, निर्मल प्रवृत्ति, सहृदयता, कर्तव्यनिष्ठा जैसे गुणों को देखकर उनके पिताजी श्री गुरु रामदास जी ने सन 1581 में श्री गुरु अर्जुन देव जी को पांचवा सिख गुरु के रूप में “गुरु गद्दी” पर सुशोभित किया था। इस समय गुरु अर्जुन देव जी की उम्र 18 साल और साढ़े चार महीने की थी।

मानवता के सच्चे सेवक, धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी श्री गुरु अर्जुन देव जी अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे। वह दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह सम्मान था। उनका बलिदान सिख धर्म के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि इसके बाद ही सिख छठवें गुरु हरगोविंद जी के नेतृत्व में एक महान सैनिक शक्ति के रुप में परिवर्तित होते हैं। अपनी मृत्यु के पूर्व गुरु अर्जन देव ने अपने पुत्र हरगोविंद को यही संदेश भेजा था कि “उससे कहना कि वह शोक न मनाए और न पुरुषत्वहीन व्यक्ति की भांति रोए बल्कि ईश्वर की प्रार्थना करे। वह अपने सिंहासन पर पूर्ण शस्त्र धारण करके बैठे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार बड़ी से बड़ी सेना रखे।”

श्री गुरु अर्जन देव का जन्म वैशाख बदी 7 सम्वत 1620, तदनुसार, तत्समय, 15 अप्रैल सन् 1563 को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। तत्कालीन संदर्भ में उनकी जयंती नानकशाही जंतरी (पंचांग) संवत 557 के अनुसार, वैशाख कृष्ण सप्तमी 20 अप्रैल को है। उनके पिता का नाम श्री गुरु रामदास जी और माता का नाम बीवी भानी जी था। आपका पालन-पोषण गुरु अमरदास जी (गुरु अर्जुन देव जी के नाना जी) जैसे गुरु तथा बाबा बुड्ढा जी जैसे महापुरुषों की देख-रेख में हुआ। आप जी बचपन से ही बहुत शांत स्वभाव तथा पूजा भक्ति करने वाले थे। आपके बाल्यकाल में ही गुरु अमरदास जी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बहुत बाणी की रचना करेगा। गुरु जी ने कहा था ‘दोहता बाणी का बोहेथा’। आप के दो भाई बड़े पृथ्वीचंद और महादेव जी थे। वे गुरु रामदासजी की तीसरे व सबसे छोटे पुत्र थे।

जब गुरु अर्जन देव जी की उम्र 16 वर्ष की हो गई तो 1579 ई० (23 आषाढ़ संवत) को उनका विवाह श्री कृष्ण चंद जी की पुत्री गंगा जी से हुआ। उनका विवाह जिस स्थान पर हुआ था वहां पर आज भी एक सुंदर गुरुद्वारा बना हुआ है। गुरु रामदास जी ने अपने पुत्र गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर भेजा था। वहां से गुरु अर्जन देव जी ने अपने पिता को 3 चिट्ठियां लिखी थी, जिसमें उन्होंने पिता से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। गुरु रामदास जी यह चिट्ठी पाकर बहुत खुश हुए। उन्होंने हर प्रकार से गुरु अर्जन देव जी को गद्दी के योग्य समझा। उन्होंने अपने भाई गुरदास और बाबा बुड्ढाजी से भी इसके लिए परामर्श लिया।

गुरु रामदास जी ने सिख संगत के सामने गुरु अर्जन देव जी को गुरुनानक देव जी द्वारा चलाई गई रीति के अनुसार, पांच पैसे दिए। गुरु अर्जन देव जी ने पैसे और नारियल लेकर तीन परिक्रमा करके गुरु नानक जी की गद्दी को माथा टेक दिया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी को गुरु गद्दी मिली। उन्होंने समस्त सिख समुदाय के साथ-साथ मानवता की भलाई करने का प्रण लिया था।

मुग़ल बादशाह अकबर के बाद में उसका विलासी पुत्र जहाँगीर सिहांसन पर बैठा। वो बहुत बड़ा नशेड़ी था। जहाँगीर नूरजहां गुट के साथ शेख़ अहमद सरहिंदी और शेख़ फ़रीद बुखारी से प्रभावित था। इसी कारण जहाँगीर सिर्फ़ एक कठपुतली बन गया और असली बादशाह तो नूरजहां गुट बना हुआ था। बादशाह जहाँगीर केवल अय्याश था, विलासिता के कारण शराब में डूबा रहता था। ऐसी दशा के कारण शहजादा खुसरो ने अपने पिता के विरुद्ध बगावत कर दी और वो गुरु अर्जुन देव जी के पास आ गया।

शेख़ अहमद सरहिंदी ने खुसरो की इस घटना से लाभ उठाने की योजना बनाई। जिसके अनुसार इस्लाम के विकास में बाधक, श्री गुरु अर्जुन देव जी को समाप्त करवाने का विचार बनाया। उसने गुरुजी पर दोष आरोपित किया कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की सेना को भोजन इत्यादि से सहायता की थी, गुरुजी ने अपने ग्रंथ में इस्लाम की तौहीन (निन्दा) लिखी है। इसलिए गुरु जी को दरबार में पेश होने को बोला और साथ में गुरु ग्रंथ साहिब जी को भी लाने को बोला। गुरुजी, गुरु ग्रंथ साहिब जी और कुछ सिखों के साथ लाहौर में पहुंच गए। वहाँ पर उन्हें खुसरो को संरक्षण देने के आरोप में बाग़ी घोषित कर दिया था, दूसरे आरोप में कहा कि वे इस्लाम के विरुध्द प्रचार करते हैं। इसके उत्तर में गुरुजी ने सभी बातों का खंडन करते हुए कहा कि गुरुनानक के दर पर कोई भी व्यक्ति आ सकता है, वहाँ राजा व रंक का भेद नहीं किया जाता। आपके पिता अकबर अपने समय पर इस दर पर आये थे।

गुरुजी का उत्तर सुनकर जहाँगीर तो सन्तुष्ट हो गया, किन्तु शेख अहमद सरहिंदी ने कहा कि उनके ग्रंथ में इस्लाम का अपमान क्यों किया है,जबकि उसमें हज़रत मुहम्मद साहब की तारीफ़ की जानी चाहिए, इस पर बादशाह ने गुरु ग्रंथ साहिब जी की व्याख्या करने को कहा, लेकिन गुरु ग्रंथ साहिब में किसी भी धर्म के विरुद्ध कुछ भी नहीं मिला। इस पर बादशाह शांत हो गया, लेकिन शेख़ अहमद सरहिंदी और शेख फ़रीद बुखारी जो कि पहले से आगबबूला हुए बैठे थे। उन्होंने अय्याश बादशाह जहांगीर को अपनी बातों में लपेटकर, उसे गुरुजी को दंड देने के लिए राज़ी कर लिया। इस तरह बादशाह ने दो लाख रुपए दंड का आदेश दिया, और बादशाह वहाँ से चला गया। गुरुजी ने भुगतान करने से मना कर दिया क्योंकि जब कोई अपराध ही नहीं किया तो दण्ड क्यों भरा जाए?

गुरु जी को विलासी जहांगीर ने जानबूझकर, लाहौर के सूबेदार मुर्तजा खान के हवाले कर दिया था और मुर्तजा ने गुरुजी को मारने के लिए दीवान चंदू शाह के हवाले कर दिया। चंदू शाह भी यही चाहता था, क्योंकि अपनी लड़की की शादी गुरुजी के पुत्र से करना चाहता था, जिसके लिए गुरु जी ने पहले ही मना कर दिया था। दीवान चंदू लाल सोचता था कि गुरु जी को मनाने में वह सफल हो जाएगा। लेकिन गुरु जी ने उसकी बात मानने से मना कर दिया। गुरु जी ने उसके घर का अन्न-जल भी स्वीकार न किया। चंदू ने बहुत उल्टे-पुल्टे हथकंडे अपनाये। अंत मे उसने गुरु जी को भूखे-प्यासे ही एक कमरे में बंद कर दिया।

बस फ़िर क्या था सरकारी शैतानों को निर्धारित षड्यंत्र के अनुसार कार्य करने का अवसर प्राप्त हो गया। उन्होंने चन्दू को मोहरा बनाकर अपने विश्वास में ले लिया और गुरु जी को लेकर लाहौर के क़िले में आ गए। इस तरह शेख अहमद सरहिंदी ने परदे की ओट में रह कर ,शाही काजी से गुरुजी के नाम का फ़तवा जारी कर दिया। फ़तवे में कहा गया कि गुरु अर्जुन देव जी दण्ड की राशि अदा नहीं कर सके। अत: वह इस्लाम कबूल करले अन्यथा मृत्यु के लिए तैयार हो जाये। गुरु जी ने कहा कि यह शरीर तो नाशवान है। फ़िर मोह कैसा। आपने जो मनमानी करनी है उसे कर डालो। इस पर काजी ने इस्लामी नियमावली के अनुसार यासा के कानून के अंतर्गत मृत्यु दण्ड का फ़तवा दे दिया। वस्तुत: यासा कानून, चंगेज खान के समय मंगोलों में प्रचलित हुआ था, और फिर तुर्कों में आया था, जिसमें बिना रक्त बहाए, भयानक यातनाएं देकर मारा जाता है।

शेख अहमद सरहिंदी ने अपने रचे षडयंत्र के अनुसार, गुरुजी को यातनाएं देकर इस्लाम करवा लेने की योजना बनाई। गुरु जी को किले के आंगन में कड़कती धूप में खड़ा कर दिया, किन्तु वे तो आत्मबल के सहारे अडिग खड़े रहे। जल्लाद भी गुरु जी दबाव डाल रहा था कि इस्लाम स्वीकार कर लो, क्यो अपना जीवन व्यर्थ में खोते हो। परंतु गुरुजी ने साफ इनकार कर दिया। दुष्टों ने गुरु जी को एक लोह (रोटी बनाने का एक बहुत बड़ा तवा) पर बिठा दिया जो उस समय जेठ माह की कड़ाके की धूप में आग जैसी गर्म थी, फिर भी गुरुजी अडिग रहे। जैसे कोई आदमी तवे पर नहीं, बल्कि कालीन पर विराजमान हो।

गुरुजी पर जब कोई असर ना हुआ, तो जल्लादों ने गुरुजी को चुनौती देकर कहा कि अब भी समय है सोच विचार कर लो, अभी भी जान बख्शी जा सकती है। इस्लाम स्वीकार कर लो। गुरुजी के मना करने पर गुरु जी के सिर में गर्म रेत डालनी आरंभ कर दी, जिसके कारण गुरु जी के नाक से खून निकलने लगा और वे बेसुध हो गए। जल्लादों ने देखा कि उनका काम तो यासा क़ानून के विरुद्ध हो रहा है तो उन्होंने ने गुरुजी के सिर में खौलता पानी डाल दिया, ताकि यासा के अनुसार, दण्ड देते समय खून नहीं बहना चाहिए। सिर में पानी डालने से जब कोई परिणाम न निकला तो जल्लादों ने परेशान हो कर उनको उबलते पानी के देग में बिठा दिया।

‘ज्यों जलु में जलु आये खटाना त्यों ज्योति संग जोत समाना’ के महावाक्य के अनुसार गुरु जी ने जब अपना शरीर छोड़ दिया तो अत्याचारियों ने इस जघन्य हत्याकांड को छिपाने के लिए गुरु जी के पार्थिव देह को रात्रि के अंधकार में रावी नदी के जल में बहा दिया। इस जघन्य पाप को छुपाने के लिए कोतवाल ने दीवान चन्दू को बुलाकर उसको अपने पक्ष में लेकर पुनः मोहरा बनाया। दीवान चन्दू से कहा गया क्योंकि हमने गुरु जी को तुम्हारे यहाँ से हिरासत में लिया था, इसलिए यह अफवाह फैला दो, कि गुरु जी ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी, इसलिये वह नदी में बह कर शायद डूब गए अथवा बह गए होंगे, परंतु सच तो यह है कि उनका शरीर आलोप हो गया था। 30 मई 1606 ई० (ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी) अर्जुन देव जी का सिख धर्म की ओर से प्रथम बलिदान था। जिस स्थान पर गुरु अर्जुन देव जी का शरीर रावी नदी में विलुप्त हुआ था, वहां गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। दीवान चंदू शाह को अपने किए की सजा मिली। श्री गुरु अर्जुन देव जी को उनकी विनम्रता के लिए याद किया जाता है। ऐसा सर्वश्रुत है कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में किसी को दुर्वचन नहीं कहा था।

गुरु अर्जन देव जी की बानी (उपदेश) गुरु ग्रंथ साहिब में 30 रागों में संकलित है। गणना की दृष्टि से सबसे अधिक बानी (उपदेश) पांचवे गुरु श्री अर्जन देव जी की है। गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल 31 राग हैं जिसमें जय जयवंती राग को छोड़कर बाकी सभी रागों में गुरु अर्जन देव जी की गुरबाणी (उपदेश) दर्ज हैं। यह 2218 श्लोक के रूप संकलित है। उनकी मुख्य रचनाएँ –1. गौउडी सुखमनी 2. बारामाह माझ 3. बावन अखरी आदि 15 मुख्य रचनाएँ है।

गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर नगर का निर्माण कार्य आगे बढ़ाया था। उन्होंने अमृत सरोवर का निर्माण करवाया और उसमें हरमिंदर साहिब की स्थापना करवाई। गुरु अर्जन देव जी के समय में तरनतारन नगर बसाया गया था। गुरु अर्जन देव जी ने सभी जातियों के उद्धार के लिए सामाजिक कार्य किए थे। गुरु हरगोबिंद जी गुरु अर्जन देव जी के पुत्र थे। वह सिखों के छठे गुरु बने। हिन्द की चादर और सिखों के नवम गुरु तेग बहादुर जी गुरु अर्जुन देव जी के पोते थे।

गुरु अर्जन देव जी ने सभी गुरुओं की बानी (उपदेश) को एक स्थान पर एकत्रित करने का महान कार्य किया था। गुरु ग्रंथ साहिब में 36 महापुरुषों की वाणी: गुरु ग्रंथ साहिब में 6 गुरु साहिबान, 15 भक्तों, 11 भाटों एवं 4 निकटवर्ती सिखों यानी कुल 36 महापुरुषों की वाणी संकलित है। यह कार्य सन 1601 से सन 1604 की अवधि के बीच पूरा करवाया गया था (गुरु तेगबहादुर जी की वाणी बाद में दर्ज करी गई) 30 अगस्त 1604 ई० को दिव्य ग्रंथ को पहली बार दरबार साहिब में प्रकाशित किया गया था।

संपादन कला के गुणी गुरु अर्जन देव जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया था। उन्होंने रागों के आधार पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कुल 5894 शबद हैं जिनमें से 2216 शबद श्री गुरु अर्जुन देव जी के हैं।

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