बांग्लादेश में अब पहचान का दवंद समाप्ति की ओर है और अब वह अपनी उसी पहचान की ओर दृढ़तापूर्वक कदम बढ़ा चुका है, जो उसने ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना के समय धारण की थी, और जो उससे शेख मुजीबुर्रहमान ने कुछ समय के लिए छीन ली थी। हालांकि अभी बंगाली नववर्ष के अवसर पर निकाली जाने वाली शोभायात्रा का नाम “वरशावरन आनंद शोभायात्रा” ही किया है, जो पहले मंगल शोभायात्रा के नाम से जानी जाती थी।
इस वर्ष के आयोजन को लेकर जो नाम में परिवर्तन हुआ है, उसे लेकर मुहम्मद यूनुस सरकार का यह कहना है कि इसका नाम समावेशी नीति के अंतर्गत बदला गया है। यदि “वरशावरन आनंद शोभायात्रा” समावेशीकरण है, तो मंगल शोभायात्रा में कौन सा ऐसा शब्द है, जिसमें समावेशीकरण नहीं हो रहा है। यह स्पष्ट है कि मंगल शब्द से समस्या है? परंतु मंगल शब्द से क्या समस्या है, मंगल शब्द का अर्थ तो कल्याण ही होता है। सबका मंगल हो, अर्थात सबका कल्याण हो! फिर मंगल शब्द में क्या ऐसा है, जिसे लेकर उसमें समावेशीकरण नहीं दिख रहा था?
मंगल शब्द भी संस्कृत मूल का है और आनंद भी। फिर आनंद में क्या ऐसा है जो मंगल में नहीं है?
इसे लेकर चारमोनाई के पीर मुफ्ती सैयद मुहम्मद फैजल करीम का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि “हिन्दुत्व के प्रतीकों, अवधारणाओं और अर्थों को पोहेला बैशाख के जश्नों से हटाया जाना चाहिए और मंगल भी उनमें शामिल है। मंगल को भी हटाया जाना चाहिए।“
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आनंद संस्कृत से आया हुआ शब्द अवश्य है, परंतु यह भी सत्य है कि वह किसी हिन्दू प्रतीक से जुड़ा हुआ नहीं है। जबकि मंगल शब्द का एक धार्मिक महत्व है। वह महत्वपूर्ण हिन्दू प्रतीक है। यही कारण है कि मंगल शोभायात्रा शब्द को समावेशीकरण के योग्य नहीं पाया गया।
हिंदुओं में मंगल एक ग्रह तो हैं ही, मगर साथ ही मंगल का प्रतीक पवनपुत्र हनुमान से भी है। मंगलवार के दिन हनुमान जी की पूजा होती है। मंगल को ज्योतिष में भी महत्व है। उन्हें क्रिया, ऊर्जा और महत्वाकांक्षा से संबंधित माना जाता है। मंगल की पूजा होती है। मंगल ग्रह की उत्पत्ति की भी कथा स्कन्द पुराण में है। स्वास्तिक के चिह्न को भी मंगल प्रतीक माना जाता है।
चूंकि मंगल से हिन्दू संस्कृति का बोध होता है, इसलिए मंगल शोभायात्रा का नाम बदलकर “वरशावरन आनंद शोभायात्रा” कर दिया गया है। इससे यह भी संकेत भेजने का प्रयास किया गया कि हिन्दुत्व के प्रतीकों में समावेशीकरण नहीं होता है। अर्थात जिस धर्म के प्रतीकों में ही समावेशीकरण नहीं होगा, तो उस धर्म में कैसे समावेशीकरण होगा?
वहीं इससे पहले बांग्लादेश के सबसे बड़े मजहबी समूह हिफाजत-ए-इस्लाम के अमीर अल्लामा मुहिबुल्लाह बाबूनागरी और सेक्रेटरी जनरल अल्लामा सजेदूर रहमान ने भी टिप्पणी करते हुए कहा था कि अतीत में, सार्वभौमिकता के नाम पर पोहेला बोइशाख उत्सव के हिंदू जन्माष्टमी धार्मिक अनुष्ठान को सभी पर थोप दिया गया है।
वहीं डेली स्टार के अनुसार मंगल शोभायात्रा का नाम दरअसल पहले आनंद शोभायात्रा ही था। वर्ष 1989 में जब पहली बार यह जुलूस निकाला गया था, तो उसका नाम आनंद शोभायात्रा था, जिसका अर्थ था कि एक खुशियों से भरा हुआ जुलूस। परंतु जब 1996 में बांग्लादेश में लोकतंत्र दोबारा स्थापित हुआ तो इसका नाम “मंगल शोभायात्रा” कर दिया गया।
वर्ष 1989 में बांग्लादेश मे सैन्य शासन था और उस समय वहाँ पर हुसैन मुहम्मद एरशद राष्ट्रपति थे। उस समय देश में तानाशाही थी और लोग तमाम समस्याओं से ग्रस्त थे। ऐसे समय में ढाका में विद्रोह हुआ और नूर हुसं सहित कई लोग मारे गए थे। ढाका यूनिवर्सिटी के फ़ैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स के विद्यार्थियों ने शासन का विरोध करने का निर्णय लिया और पाहेला बैशाख के दिन “आनंद शोभायात्रा” निकाली। द बिजनस स्टैन्डर्ड की 24 मरच की एक रिपोर्ट के अनुसार इसका नाम अगले ही वर्ष मंगल शोभायात्रा कर दिया गया था और वर्ष 1993 में इस नाम को आधिकारिक रूप से दस्तावेजों में दर्ज करवा दिया गया था।
यहाँ पर यह ध्यान रखने वाली है कि जब मंगल शोभायात्रा नाम किया गया था, तो उसे हिन्दू पहचान के दायरे में मंगल शोभायात्रा के रूप में नहीं बदला गया था, बल्कि एक गहरे सामाजिक-राजनीतिक संदेश के साथ इसका नाम यह किया गया था। वहीं मंगल शब्द का विरोध इस कारण हुआ क्योंकि इसमें लोगों को एक धर्म के प्रतीक की झलक दिखी।
वहीं इसे लेकर जब नाम के परिवर्तन की चर्चा आरंभ हुई थी तो मंगल शोभायात्रा के संस्थापक व्यवस्थापक अमीनुल हसन लिटू का यह कहना था कि चूंकि यह सरकारी आयोजन नहीं है, तो इसमें सरकार का क्या योगदान है?
“चूंकि सरकार इसके वित्तपोषण या आयोजन में कोई भूमिका नहीं निभाती, इसलिए उनके पास इसका नाम बदलने का भी कोई अधिकार नहीं है। वित्तपोषण से लेकर भागीदारी तक, यह पूरी तरह से लोगों की पहल है… मुझे इसके पीछे असली मकसद समझ में नहीं आता। अगर उन्हें नाम से कोई दिक्कत है, तो उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि ऐसा क्यों है। क्या हम जाने-अनजाने में कट्टरपंथियों के दबाव में आ रहे हैं?”
लोगों का यह भी कहना है कि यूनुस सरकार एक अस्थाई सरकार है, अत: उसके पास ऐसे आयोजनों के नाम बदलने का अधिकार नहीं है। नाम बदलने का अधिकार चुनी हुई सरकार के पास होता है।
इस वर्ष नाम तो बदला ही है, परंतु साथ में इस वर्ष इस आयोजन की थीम भी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष जो जुलूस निकला है, उसका विषय था है “नए वर्ष की सिंफनी- फासीवाद का अंत”। आनंद शोभायात्रा में जुलाई के विद्रोह के भाव को दिखाया गया है और साथ ही फिलिसतीं के लोगों के प्रति अपने साथ को अभिव्यक्त किया गया है। जो झाँकियाँ निकाली जा रही हैं, उनमें “फासीवाद की तस्वीरें” भी थीं, जिनमें निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना का चेहरा था और शांति के प्रतीक के रूप में फाख्ता थी।
कहने के लिए यह कदम कथित रूप से जड़ों की ओर लौटने की तरह देखा जा रहा है, परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि विरोध “मंगल” नाम को लेकर था, क्योंकि मंगल हिन्दुत्व का प्रतीक है।
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