स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘’यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा; कारण कि विदेशी तिथियों पर आश्रित रहने वाला समाज अपना आत्म गौरव खो बैठता है।‘’ हिन्दू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है। यानी वर्षभर का सबसे उत्तम दिन। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने धरती पर जीवों की रचना के लिए इसी शुभ दिन का चयन किया था और एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन समूचे जीव जगत की रचना की थी। इसीलिए देश के सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी इस पुण्य तिथि को भारतीय नववर्ष के रूप में अत्यंत गौरव से हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस तिथि के साथ हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान बेहद गहराई से जुड़ी हुई है। हम भारतीयों के सभी सामाजिक उत्सव, पर्व-त्योहार व महापुरुषों की जयंतियां आज भी भारतीय कालगणना के हिसाब से ही मनायी जाती हैं। इसे सुखद संयोग कहें या वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले हमारे ऋषियों का दूरदर्शी चिंतन कि उन्होंने चैत्र मास की इस पुनीत प्रतिपदा तिथि को मां शक्ति की आराधना से जोड़कर और देवत्वपूर्ण बना दिया। इस वर्ष भारतीय नववर्ष / नवसंवत्सर (विक्रमी संवत 2082) का शुभारम्भ 30 मार्च से हो रहा है। इस सुअवसर पर प्रस्तुत हैं चैत्र शुक्ल प्रतिपदा और भारतीय नवसंवत्सर से जुड़े विविध महत्वपूर्ण पौराणिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक सन्दर्भ; ताकि हमारी युवा पीढ़ी भारत की अमूल्य परम्पराओं की वैज्ञानिकता को जानकर उनका अनुसरण कर सके।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जुड़ी भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियां
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार लोकपालक श्रीहरि विष्णु ने सृष्टि के प्रथम जीव के रूप में इसी दिन मत्स्यावतार लिया था। त्रेता युग में लंका विजय के बाद अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक इसी शुभ दिन हुआ था। द्वापर काल में महाभारत के युद्ध में विजय के उपरान्त धर्मराज्य युधिष्ठिर भी इसी दिन राजगद्दी पर बैठे थे। कालांतर में इसी विशेष तिथि को ही सिंधी समाज के महान संत झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुण देव के अवतार माने जाते हैं। सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगददेव का जन्म भी इसी पावन दिन हुआ था। हिन्दू हृदय सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी मुगल आक्रांतों को परास्त कर चैत्र प्रतिपदा की पुनीत तिथि को हिन्दू पदशाही का भगवा विजय ध्वज लहराकर हिंदवी साम्राज्य की नींव रखी थी। समाज से आडम्बरों का विनाश करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के लिए चैत्र प्रतिपदा का तिथि निर्धारित की थी। इतना ही नहीं, देश की एकता, अखंडता एवं एकात्मता के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने वाले डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा और भारत का अप्रतिम खगोलशास्त्र
भारत के महान खगोलशास्त्रियों ने तारों, ग्रहों, नक्षत्रो, चाँद, सूरज आदि की गति का गहन अध्ययन कर छह ऋतुओं और 12 महीनों पर आधारित जिस भारतीय पांचांग का निर्धारण किया था, वह वाकई अद्भुत है। आज भी इसका कोई सानी नहीं है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए प्रथम भारतीय पंचांग की रचना की थी। इस भारतीय कैलेंडर की गणना का आधार सूर्य के स्थान पर चंद्रमा की गति को बनाया जाना उनकी दूरदृष्टि का परिचायक है। चंद्रमा को गणना का आधार बनाने का उनका आधार यह था कि उस समय सूर्य की रोशनी में नक्षत्रों को देखने का कोई साधन नहीं था; जबकि रात के समय नक्षत्रों से होकर गुजरते चंद्रमा की गति को देखकर अनपढ़ आदमी भी समय व तिथि का अनुमान सहज ही सकता था। यह कालगणना युगों बाद भी पूरी तरह सटीक साबित हो रही है। यह इतनी सामंजस्यपूर्ण है कि तिथि वृद्धि, तिथि क्षय, अधिक मास, क्षय मास आदि व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाते, तिथि घटे या बढ़े, लेकिन सूर्यग्रहण सदैव अमावस्या को होगा और चन्द्रग्रहण सदैव पूर्णिमा को ही होगा। हमारे खगोलशास्त्रियों ने इस कालगणना के आधार पर दिन-रात, सप्ताह, पखवारा, महीने, साल और ऋतुओं का निर्धारण किया और 12 महीनों और छह ऋतुओं के पूरे एक चक्र यानी पूरे वर्ष की अवधि को “संवत्सर” का नाम दिया था।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ विक्रमी व शक संवत का शुभारंभ
गौरतलब हो कि देश में विक्रमी संवत का शुभारम्भ चैत्र प्रतिपदा की तिथि को ही हुआ था। कहा जाता है कि आज से 2080 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन उज्जैन (उज्जयिनी) के नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रांता शकों से भारतमाता की रक्षा की और शक, यवन, हूण, पारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहराई। उसी महाविजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को विक्रम संवत का शुभारम्भ हुआ। अपने नाम की संवत चलाने के लिए विक्रमादित्य ने शास्त्र विहित परम्परा का पालन करते हुए राष्ट्र के सभी नागरिकों का कर्ज अपने कोष से चुकाया था। ऐसा उदाहरण दुनिया के इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता। धन्वंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार को अपने राजसभा के नवरत्नों में शुमार करने वाले भारतीय इतिहास के इस यशस्वी शासक की गणना ऐसे शूरवीर, प्रजावत्सल, न्यायप्रिय व संस्कृति प्रेमी कुशल प्रशासक के रूप में होती है, जिसकी विद्वता व साहस की अनेक कहानियां आज भी भारतीय जनमानस में प्रचलित हैं। ज्ञात हो कि इसी चक्रवर्ती सम्राट द्वारा शुरू की गयी विक्रमी संवत की सर्वग्राहृयता का मूल कारण इसका किसी संकुचित विचारधारा या किसी देवी, देवता, महापुरुष, जाति अथवा संप्रदाय विशेष के नाम के स्थान पर विशुद्ध रूप से प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित होना है।
भारतीय नववर्ष का आध्यात्मिक व प्राकृतिक उल्लास
वसंत ऋतु के खुशनुमा वातावरण में चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को विभिन्न रूपों में होने वाला हिन्दु नववर्ष का अयोजन भारत की ऋषि संस्कृति की वैज्ञानिक दृष्टि का तो परिचायक है ही, इसके विविध रूप रंग हमारी बहुरंगी उत्सवधर्मिता के भी प्रतीक हैं। उत्तर भारत में इस अवसर पर नवरात्रों में देवी मंदिर गुंजायमान दिखते हैं, “मानस” व “सप्तशती” पाठ की धूम रहती है। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक इसे “युगादि पर्व”(युग†आदि- नये युग की शुरुआत) के रूप में मनाया जाता है। कश्मीर में “नवरेह” सिन्ध में “चेटीचंड उत्सव”,पूर्वोत्तर के असम में “बिहू”(नयी फसल का पर्व) तथा महाराष्ट्र में इस दिन को “गुड़ी पड़वा” के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष प्रतिपदा प्राकृतिक रूप से अत्यधिक समृद्ध है। इस समय प्रकृति का नवश्रृंगार देखते ही बनता है। समूची प्रकृति नवपल्लव धारण कर नवसंरचना के लिए ऊर्जस्वित दिखती है। मानव,पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। पुरातनता व जड़ता का त्याग व नवीनता व सक्रियता का स्वागत। यही है इस पर्व का मूल आधार, इसका गूढ़ संदेश। इसी समय पहाड़ों में बर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आ जाता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है। यही वह समय होता है जब फसल पक जाती है। इस समय किसानों के चेहरे पर उनके मेहनत का फल मिलने की खुशी देखने वाली होती है। चैत्र मास में पेड़-पौधों पर नई पत्तियों आ जाती हैं। खेत खलिहानों में नया अनाज भी तैयार हो जाता है जिसका उपयोग सभी देशवासी वर्षभर करते हैं। हमारे अन्नदाता प्रसन्न रहें, धरती माता की उर्वरता को कोई कुदृष्टि न लगे, सभी देशवासियों का स्वास्थ्य उत्तम बना रहे, कोई आपदा-महामारी न आये, पूरे वर्ष में आने वाले सुख-दुःख सभी मिलकर झेल सकें, इन्हीं शुभभावों के साथ भारतीयता का यह नववर्ष मनाया जाता है।
स्वास्थ्य संचेतना का संदेश देता है “गुड़ी पड़वा”
अन्याय पर न्याय और विकार पर संयम की विजय के प्रतीक रूप में मराठी समाज द्वारा वर्ष प्रतिपदा के स्वागत में मनाया जाने वाला “गुड़ी पड़वा” पर्व स्वास्थ्य संचेतना का भी अनूठा संदेश देता है। हम पृथ्वीवासी सृष्टि के पालनहार सूर्यदेव की तेजस्विता को अपने भीतर धारणकर ऊर्जावान बन सकें; इस कामना के साथ इस दिन सूर्य को जल चढ़कर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। साथ ही सुंदरकांड, रामरक्षास्तोत्र और देवी भगवती के मंत्रजप भी किये जाते हैं। इस दिन गुड़ी (ध्वजा) पूजन का भी विशेष महत्व होता है। गुड़ी पड़वा के दिन श्रीखंड, पूरणपोली और नीम के विचित्र संयोग से निर्मित अनूठा नैवेद्य (प्रसाद) चढ़ाकर आरोग्य, समृद्धि और पवित्र आचरण की कामना की जाती है। शरीर विज्ञानियों का कहना है कि इस प्रसाद का निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है क्यूंकि इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में इस अवसर पर पूरनपोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम आदि चीजें मिलायी जाती हैं। गुड़-मिठास का, नीम के फूल तिक्तता का और इमली व आम जीवन का खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक है। इस दिन घर-घर में विजय के प्रतीक स्वरूप गुड़ी लटकायी जाती है। इस गुड़ी को लकड़ी की छड़ के ऊपरी सिरे पर तांबा आदि शुभ धातु के लोटे का मुखौटा बनाकर उसे नवीन वस्त्राभूषण से सजाया जाता है। पारम्परिक मराठी परिवारों में इस विजय पताका को सजाने का आकर्षण देखते ही बनता है।
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