साल 2024 में ‘आमार बांग्ला बोई’ पुस्तक में ‘आमार बाडीज काज’ (हमारे घर के काम) शीर्षक से छपी कहानी में पुरुष और महिला, दोनों को घर के काम करने वाला बताया गया था। आज की सोच भी यही है कि पुरुष और महिला दोनों मिलकर घर के काम करते हैं। लेकिन अब जो नया संस्करण छपकर आया है उसमें दिखाया गया है कि घर के ज्यादातर काम महिला करती हैं। यह बेशक एक रूढ़ीवादी सोच ही है।
नोबुल पुरस्कार प्राप्त मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में बांग्लादेश का इतना पतन हो जाएगा, यह शायद किसी ने सोचा भी न होगा। वैसे, असल में तो यूनुस सिर्फ सजावटी नेता ही रखे गए हैं, असली उन्मादी हुकूमत तो उन जतामियों और खालिदा जिया के लोगों की चल रही है जो ‘छात्र आंदोलन’ के रास्ते कुर्सी पर जमे हैं। यूनुस सरकार ने इस साल की स्कूली किताबों जिस तरह के बदलाव किए हैं उससे लगता है, भारत का यह पड़ोसी इस्लामी देश तालिबान की शरियाई राह पर चलने को उतावला है।
इस्लामी राज में महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिक मानते हुए उन पर अनेक प्रकार की पाबंदियां थोप दी जाती हैं। अफगानिस्तान में गद्दी पर जमे बैठे तालिबान के ज्यादातर फरमान भी महिलाओं पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाने वाले होते हैं। ठीक वैसे ही संकेत बांग्लादेश में स्कूली किताबों में किए गए बदलाव दे रहे हैं।
पिछले वर्ष तक पढ़ाई जाती रहीं पाठ्यपुस्तकों में जो चीजें बच्चे पढ़ रहे थे उनमें भारी बदलाव दिखता है। उदाहरण के लिए अब तक बच्चों को पढ़ाया जाता था महिला और पुरुष समान हैं, लिंगभेद जैसा कुछ नहीं होता, दोनों में समानता होनी चाहिए। परन्तु ताजा प्रकाशित पुस्तकों में महिलाओं को सिर्फ घर गृहस्थी के काम करने वाली दिखाया गया है। जाहिर है लैंगिक समानता की वकालत करने वाले उदारवादी वर्ग को इससे परेशानी होगी। इसके विरोध में कुछ आवाजें भी उठी हैं। महिलाओं के अधिकारों को लेकर चिंता पैदा हुई है।
बांग्लादेश में इससे पहले जिन शेख हसीना की सरकार थी, वह कुछ हद तक बीच के रास्ते पर चलती दिखती थी। लेकिन आज की मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार की लगाम स्पष्ट रूप से मजहबी उन्मादियों के हाथ में दिखती है। जाहिर है कि अब फैसले और नीतियां उनके हिसाब से तय होती हैं। सरकार के कामकाज पर उनकी सीधी नजर रहती है। इस वजह से सरकार के ही विभिन्न ‘सलाहकारों’ में खींचतान भी देखने में आई है। अब यह महिला—पुरुष में भेद करने का सबक देने की बात भी बहस को जन्म दे चुकी है। महिला अधिकारों के पैरोकार खासे नाराज हैं।
बांग्लादेश से निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन तो कह भी चुकी हैं कि आज बांग्लादेश अफगानिस्तान की तालिबान हुकूमत की नकल करते हुए उसी रास्ते पर बढ़ रहा है। मोहम्मद यूनुस ने तस्लीमा नसरीन की इस टिप्पणी पर एतराज जताते हुए उसे बेबुनियाद बताया था। लेकिन स्कूली किताबों में आया बदलाव तस्लीमा के कहे को पुष्ट करता है। उदारवादी सोच के बांग्लादेशी मानते हैं कि सच में उनका देश तालिबानी राह पकड़ रहा है।
बांग्लादेशी अखबार ‘ढाका ट्रिब्यून’ की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में ‘आमार बांग्ला बोई’ पुस्तक में ‘आमार बाडीज काज’ (हमारे घर के काम) शीर्षक से छपी कहानी में पुरुष और महिला, दोनों को घर के काम करने वाला बताया गया था। आज की सोच भी यही है कि पुरुष और महिला दोनों मिलकर घर के काम करते हैं। लेकिन अब जो नया संस्करण छपकर आया है उसमें दिखाया गया है कि घर के ज्यादातर काम महिला करती हैं। यह बेशक एक रूढ़ीवादी सोच ही है।
इस पर सवाल उठाने वालों का कहना है कि बीते जमाने का यह सबक देकर यूनुस सरकार तालिबानी सोच दर्शा रही है। शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे जानकारों का मानना है कि स्कूली किताबों में महिला और पुरुष में समानता का सबक दिया जाना चाहिए। बांग्लादेशी समाज में महिलाओं को आगे आने के लिए अवसर दिए जाने चाहिए, उनको बराबर का महत्व दिया जाना चाहिए।
लेकिन बांग्लादेश का दुर्भाग्य है कि आज वहां आधुनिक सोच की बजाय पाषाणकालीन सोच हावी हो रही है, समाज में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की जहरीली सोच रोपी जा रही है। यूनुस सरकार तालिबान हुकूमत बनने को उतावली है। डर यह है कि आगे यह सरकार महिलाओं के विरुद्ध फतवे जैसे न जारी करने शुरू कर दे जैसा कि अफगानिस्तान में हो रहा है।
टिप्पणियाँ