बांग्लादेश में कथित छात्र आंदोलन के नेताओं ने यह घोषणा की है कि वे 31 दिसंबर 2024 को एक “जुलाई घोषणापत्र” जारी करेंगे जो 1972 के संविधान को दफन कर देगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वे बांग्लादेश में संविधान के स्थान पर अपनी ही नई व्यवस्था चाहते हैं।
29 दिसंबर को ढाका में हुई एक प्रेस कान्फ्रन्स में इस कथित आंदोलन के संयोजक हसनत अब्दुल्ला ने कहा कि इस घोषणापत्र को बहुत पहले ही जारी कर दिया जाना चाहिए था, इसमें हुई देरी के चलते शेख हसीना और अवामी लीग के नेताओं को इस आंदोलन पर सवाल उठाने का अवसर दिया है।
कथित भेदभाव विरोधी छात्र आंदोलन के संयोजक ने कहा कि 31 दिसंबर को 3 बजे हम जुलाई क्रांति की घोषणा करेंगे। यह बांग्लादेश के नए लक्ष्यों, सपनों और आकांक्षाओं की घोषणा होगी और 31 दिसंबर को शहीद मीनार पर यह घोषणा जुलाई क्रांति की कानूनी मान्यता होगी। इसके बाद जो कहा वह गौर करने लायक है।
यह कहा गया कि “हम मुजीब-बादी संविधान को दफनाना चाहते हैं।“
इस प्रेस कान्फ्रन्स में इन कथित छात्रों ने इस संविधान को ही देश की तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया। और यह कहा कि “हम संविधान को सुधारना या निरस्त करना चाहते हैं, क्योंकि इसने बांग्लादेश में फासीवाद का रास्ता बनाया है।“
बांग्लादेश में अगस्त में जब से शेख हसीना को अपना पद छोड़कर जाना पड़ा था, तब से ही पांचजन्य ने यह कहा है कि यह आंदोलन केवल शेख हसीना को सत्ता से बाहर निकालने का नहीं था, बल्कि यह और कुछ था। यह बांग्लादेश की संवैधानिक व्यवस्था को पूरी तरह से बदलना था। बांग्लादेश की उस पहचान से छुटकारा पाना था जो उसे शेख मुजीबुर्रहमान ने दिलाई थी। यह पूरी लड़ाई केवल और केवल बांग्लादेश की हर उस पहचान को नष्ट करने की थी जो उसने अपने लाखों नागरिकों के बलिदान के बाद पाई थी। लाखों नागरिकों ने अपनी बांग्ला पहचान को पाने के लिए पूरे परिवारों का ही बलिदान दे दिया था।
इस संविधान को पाने के लिए जो लड़ाई हुई थी उसमें न जाने कितनी लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ था। मगर अब उसी संविधान को “मुजी-बादी” संविधान कहकर खारिज किया जा रहा है और उसे बदलने की बात की जा रही है। क्या यह उन लाखों लोगों के बलिदानों का अपमान नहीं है?
क्या बांग्लादेश की अंतरिम सरकार इस कदम का समर्थन करती है या फिर देश की अन्य मुख्य राजनीतिक शक्तियां इस कदम का समर्थन करती हैं कि असंख्य बलिदानों के बाद पाई हुई आजादी और संविधान को नकार दिया जाए? क्या वह आजादी आजादी नहीं थी? वह संविधान किसी एक व्यक्ति ने तो नहीं बनाया होगा?
कथित छात्र आंदोलन आखिर किसके खिलाफ था? क्या इसका उद्देश्य केवल और केवल भारत विरोध ही था? ऐसा इसलिए प्रश्न उठ रहा है कि इन कथित छात्र नेताओं ने कहा कि भारतीय आक्रमण की शुरुआत 1972 के संविधान के सिद्धांतों के माध्यम से हुई थी (और) यह घोषणा यह स्पष्ट कर देगी कि कैसे मुजीबवादी संविधान ने लोगों की आकांक्षाओं को नष्ट कर दिया और वास्तव में हम इसे कैसे बदलना चाहते हैं।
क्या इस कथित आंदोलन के मूल में भारत या कहें अपनी हिंदू जड़ों से विरोध ही केवल शामिल था या यही केवल इसका मूल तत्व था? बांग्लादेश कैसे भारत से अलग हो सकता है जबकि उसकी जड़ें तो भारत तक ही आती हैं? अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने की इतनी बेचैनी इस कथित छात्र आंदोलन में है कि इसने अपने ही बलिदानियों के बलिदान को नकार दिया है?
संविधान को नकारने वाले यह नहीं जानते हैं कि इस संविधान की स्थापना संविधान सभा के सदस्यों की सलाह के अनुसार हुई थी। क्या ये लोग यह कहना चाहते हैं कि उस समय संविधान सभा के सदस्यों की कोई योग्यता नहीं थी?
वहीं इस कदम को लेकर बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने बहुत ही कठोर प्रतिक्रिया दी है। बीएनपी के नेताओं ने इस कदम को ही फासीवादी बताया है। बीएनपी के वरिष्ठ नेताओं ने इस वक्तव्य को गैर जरूरी बताते हुए कहा है कि 1971 के संविधान के लिए लाखों लोगों ने अपना बलिदान दिया है और ऐसे बयान कि “इसे दफना दिया जाए, मार दिया जाए” अपने आप में फासीवादी भाषा को बताता है। बीएनपी के स्टैन्डिंग कमिटी के सदस्य मिर्जा अब्बास ने कहा कि ऐसे बयानों से भ्रम फैलेगा।
वहीं बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने इस कदम से अपने आपको दूर कर लिया है। सरकार ने कहा है कि उसका इस “जुलाई घोषणा” से कोई भी संबंध नहीं है।
बीएनपी के एक और सदस्य रुहुल कबीर रिजवी ने कुछ ऐसे राजनीतिक समूहों पर आरोप लगाया कि वे अपने मुनाफे के लिए मौजूदा राजनीतिक माहौल का फायदा उठाया रहे हैं, जो मुक्ति आंदोलन के विरोधी रहे थे।
बांग्लादेश में जो भी हो रहा है, अर्थात संविधान का विरोध, शेख मुजीबुर्रहमान की दी गई पहचान का विरोध और उसे हटाने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं, उनके विषय में पांचजन्य ने आरंभ से ही लिखा है।
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