गत दिनों एआई इंजीनियर अतुल सुभाष ने एक लंबा सुसाइड नोट लिखकर तथा सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड कर आत्महत्या कर ली। अपनी मौत के लिए अतुल ने पत्नी, ससुराल वालों के साथ-साथ न्यायिक व्यवस्था को भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार ठहराया था।
बिहार के रहने वाले अतुल की शादी एक ‘मैट्रिमोनियल साइट’ के जरिए उत्तर प्रदेश के जौनपुर की एआई इंजीनियर निकिता से 2019 में हुई थी। दोनों का एक बेटा भी है। लेकिन विवाह के तीन वर्षबाद ही मतभेदों के चलते उनके वैवाहिक जीवन में दरार आ गई और दोनों अलग-अलग रहने लगे। अतुल बेंगलुरु में नौकरी करते थे, जबकि उनकी निकिता गुरुग्राम में। आरोप है कि लड़की पक्ष ने परेशान करने की नीयत से खुद को ‘पीड़ित’ बताकर 2022 में जौनपुर के न्यायालय में उनके खिलाफ 9 मुकदमे दायर किए।
जाना पड़ता था पेशी पर
बकौल अतुल झूठे आरोपों में उनके माता-पिता को भी फंसाया गया। पेशी के लिए अतुल को बेंगलुरु से बार—बार जौनपुर आना पड़ता था। वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए न्यायालय में हाजिर रहने की उनकी मांग पर कोई फैसला नहीं किया गया। ऐसा तब है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालयों में हाइब्रिड सुनवाई की जोरदार वकालत की है। अतुल के सुसाइड नोट के अनुसार, जौनपुर के न्यायालय में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। न्यायाधीश ने उनसे सीधे रिश्वत मांगी, न्यायाधीश का पेशकार भी भरी अदालत में रिश्वत मांगता है, दहेज विरोधी कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है इत्यादि। इन सब बातों के साथ ‘न्याय अभी बाकी है’ का उल्लेख करते हुए अतुल ने आत्महत्या का निर्णय कर लिया। उन्होंने अपनी आत्महत्या के लिए जिन पांच लोगों को जिम्मेदार ठहराया है, उसमें सबसे पहला नाम जौनपुर के परिवार न्यायालय की न्यायाधीश का है। इसके बाद पत्नी निकिता सिंघानिया, सास निशा सिंघानिया, साले अनुराग सिंघानिया और निकिता के चाचा सुशील सिंघानिया का नाम लिखा है।
जज पर रिश्वत मांगने का आरोप
पारिवारिक न्यायालय की न्यायाधीश का अतुल सुभाष से सीधे पांच लाख रु. की रिश्वत मांगने का आरोप न्यायिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर तो प्रश्नचिह्न खड़ा करता ही है, उक्त न्यायाधीश के व्यक्तिगत चरित्र पर भी सवालिया निशान लगाता है। यदि ये आरोप सही निकले तो निश्चित रूप से उस न्यायालय से न्याय की अपेक्षा तो नहीं ही की जा सकती। न्यायालय कानूनों के प्रभावी संचालन, विवादों के समाधान और न्याय सुनिश्चित करने के लिए ही होते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून का पालन किया जाए और किसी के भी अधिकारों का उल्लंघन न हो। कानून का दुरुपयोग न हो और हर व्यक्ति को न्याय मिले।
न्यायालयों के बिना समाज में अराजकता और अन्याय का प्रसार हो सकता है। लेकिन जब न्यायालय ही अराजक होने लगे तो पीड़ित न्याय की आस किससे करेगा? न्यायालय को इस बात को ध्यान रखना होता है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। परंतु अतुल सुभाष के मामले में न्यायालय के व्यवहार ने लोगों में निराशा का भाव भर दिया है।
कानूनों का उपयोग या दुरुपयोग
भारत में दहेज प्रताड़ना की बढ़ती घटनाओं ने ही सरकार को दहेज विरोधी कानून बनाने के लिए प्रेरित किया। महिलाओं के मान-सम्मान की रक्षा और इस सामाजिक बुराई से बचाना भी राज्य की ही जिम्मेदारी है। इसीलिए सरकार ने दहेज के खिलाफ दहेज निषेध अधिनियम,1961 जैसे कई कानून बनाए हैं। इनमें 21वें विधि आयोग की रिपोर्ट की सिफारिश पर कुछ दंडात्मक प्रावधान भी जोड़े गए।
दहेज के कारण मृत्यु दर को कम करने के उद्देश्य से सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कई शैक्षिक और जागरुकता कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं। इस क्रूर सामाजिक बुराई से निबटने के लिए धारा 304 बी (दहेज मृत्यु), धारा 498 ए (पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता यानी घरेलू हिंसा), धारा 113बी (दहेज मौत के बारे में अनुमान) को भारतीय दंड कानूनों में इस बुराई को मिटाने के उद्देश्य से ही शामिल किया गया। लेकिन कालान्तर में आरोप लगने लगे कि दहेज विरोधी कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है। पुलिस पर भी इसके दुरुपयोग को आरोप लगने लगे। वैवाहिक विवादों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है। लेकिन साधन संपन्न युवा अतुल सुभाष की आत्महत्या इन कानूनों के दुरुपयोग की खुली कहानी कह रही है।
घरेलू हिंसा के शिकार विवाहित पुरुषों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने, दिशा-निर्देश बनाने और पुरुषों की आवाज उठाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर ‘नेशनल कमीशन फॉर मेन’ के गठन की मांग भी की गई है। याचिका में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया है कि साल 2021 में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 81,063 लोग विवाहित पुरुष, जबकि 28,680 विवाहित महिलाएं थीं। कहना न होगा कि ये आंकड़े चिंताजनक हैं।
न्यायालयों ने भी इन कानूनों के दुरुपयोग की बात मानी है और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने तो इनके दुरुपयोग को रोकने के लिए समय-समय पर दिशानिर्देश भी जारी किए। हैं। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई अवसरों पर यह देखा है कि प्रतिशोध, धमकी या अनावश्यक उत्पीड़न के लिए इन कानूनों का दुरुपयोग किया गया है। राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2017) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि धारा 498ए का कुछ मामलों में दुरुपयोग हो रहा है। अदालत ने झूठे मामलों को रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए, जैसे- हर शिकायत की जांच के लिए परिवार कल्याण समिति का गठन और तत्काल गिरफ्तारी से बचने की सलाह दी।
सावित्री देवी बनाम रंजीत कुमार (2003) मामले में अदालत ने माना कि कुछ मामलों में दहेज कानूनों का उपयोग उत्पीड़न के लिए किया गया है और यह मूल उद्देश्य (महिलाओं की सुरक्षा) से भटक रहा है। न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि दहेज से संबंधित अपराध गंभीर हैं और इन कानूनों की जरूरत तो है, लेकिन इनका दुरुपयोग रोकने के लिए उचित जांच और संतुलन बनाए रखना भी आवश्यक है। झूठे मामलों में फंसे निर्दोष व्यक्तियों की रक्षा के लिए अदालतें सक्रिय भी रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने अर्नेश कुमार बनाम स्टेट आफ बिहार के मामले में कहा कि यह एक तथ्य है कि धारा 498 ए एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है जिसे असंतुष्ट पत्नियों द्वारा ढाल के बजाय एक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। यह परेशान करने का सरल तरीका है। बहुत से मामलों में विदेश में रहने वाले पति के बूढ़े और बिस्तर पर पड़े माता-पिता, उनकी बहन जो एक-दूसरे से कभी नहीं मिलते, उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसलिए शीर्ष अदालत ने आईपीसी की धारा 498 ए के तहत गिरफ्तारी से पहले ये निर्देश जारी किए कि राज्य सरकार पुलिस को बिना वारंट के गिरफ्तार न करने का निर्देश दे, जब तक कि आवश्यकता महसूस न हो और सी.आर.पी.सी. की धारा 41 के तहत निर्धारित सभी शर्तें पूरी न हों।
सभी पुलिस अधिकारी धारा 41(1)(बी) के तहत दिए गए उप-खंडों वाली एक जांच सूची प्रदान करेंगे और उन्हें गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कारण और सामग्री प्रस्तुत करनी होगी। मजिस्ट्रेट आरोपी को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत करते समय पुलिस द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का अध्ययन करेगा और इसकी संतुष्टि दर्ज करने के बाद ही हिरासत की कार्रवाई को पूरा कर सकता है। अर्नेश कुमार मामले के निर्णय के बाद वैवाहिक विवादों में अनायास गिरफ्तारी के मामलों में कमी आई है। न्यायालयों के द्वारा किसी भी कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए समय-समय पर दिशानिर्देश जारी किये ही जाते हैं।
न्याय व्यवस्था पर सवाल
अतुल सुभाष के सुसाइड नोट ने न्यायालयों की आंतरिक भ्रष्ट व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किए हैं। वैसे ये सवाल पहले से खड़े किए जाते रहे हैं इसीलिए न्यायालयों में कैमरे लगाने की मांग उठती रही है। सर्वोच्च न्यायालय में एक मामले की सुनवाई करते हुए वर्ष 2017 में न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति यू.यू ललित की पीठ ने देशभर के उच्च न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि जिला और सत्र न्यायालय तीन महीने के अंदर अदालत कक्षों में सीसीटीवी कैमरे लगाएं, लेकिन उसमें आवाज रिकार्डिंग न हो।
शीर्ष अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि सीसीटीवी फुटेज आरटीआई के तहत उपलब्ध नहीं होगी और संबंधित उच्च न्यायालय की अनुमति के बगैर वह किसी को नहीं दी जाएगी। उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के न्यायमूर्ति राजन राय और न्यायमूर्ति ओपी शुक्ला की खंडपीठ ने भी एक जनहित याचिका पर ऐसा ही आदेश पारित किया है। परन्तु अभी तक जिला न्यायालयों में कैमरे नहीं लग पाए हैं जिसके कारण बिना किसी रोकटोक के जिला न्यायालयों में आर्थिक भ्रष्टाचार के मामले धड़ल्ले से चल रहे हैं।
समाज में व्याप्त दहेज के अभिशाप व महिलाओं के विरुद्ध अन्य अपराधों के चलते अंकिता सिंघानिया जैसी कई विवाहिता या अन्य महिलाएं पीड़ित हो सकती हैं परन्तु दहेज कानूनों के प्रावधानों के दुरुपयोग के चलते अतुल सुभाष जैसे युवा ‘JUSTICE IS DUE’ अर्थात् ‘न्याय अभी बाकी है’ की गुहार लगाते हुए आत्महत्या के लिए विवश होते रहेंगे। वैश्विक स्तर पर भारत की त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली को सर्वोत्तम न्याय प्रणाली माना गया है परन्तु जिससे न्याय की अपेक्षा हो, वही न्यायाधीश पक्षपातपूर्ण व्यवहार करे, मामले को निबटाने के लिए रिश्वत मांगे, तब न्याय प्रणाली पर आम जन का भरोसा बनाये रखना एक कठिन चुनौती बना रहेगा।
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