बांग्लादेश में 12 दिसंबर को एक रैली का आयोजन “मुस्लिम कंज्यूमर राइट्स काउंसिल” द्वारा किया गया। इसमें बांग्लादेश की मुस्लिम पहचान पर जोर देते हुए उन सभी रेस्टोरेंट्स का बहिष्कार करने की अपील की गई, जो अपने मेन्यू में बीफ अर्थात गौमांस नहीं दे रहे हैं। यह रैली उसी परिदृष्य की बात करती है, जिसके विषय में पांचजन्य ने शेख हसीना के जाने के बाद से लगातार लिखा है।
जब शेख हसीना बांग्लादेश छोड़कर गई थीं और शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमाओं और स्मारकों को तोड़ना आरंभ हुआ था, तभी पांचजन्य ने यह लिखना आरंभ किया था कि यह जो भी आंदोलन है, वह और कुछ नहीं बल्कि बांग्लादेश की उस मुस्लिम पहचान की तरफ वापसी है, जिस पहचान के साथ अस्तित्व में आया था और वह वैसा मुस्लिम समूह था, जिसे अपनी हिंदू पहचान से घृणा है।
12 दिसंबर की रैली में मुख्य मुद्दा मुस्लिम उपभोक्ता के अधिकारों का है न कि बांग्लादेशी नागरिकों के अधिकारों का। जब बांग्लादेश की बात की जाती है, तो उसमें हिंदू भी आते हैं और वे हिंदू जो उसी बंग भूमि के मूल निवासी हैं, जिनका अस्तित्व महाभारत काल से है। शेख हसीना के जाने के बाद जिस प्रकार से हिंसा हुई थी, उसे कई लोगों ने राजनीतिक हिंसा कहा, तो किसी किसी ने धार्मिक हिंसा, मगर पांचजन्य ने इसे हमेशा मुस्लिम पहचान पाने की लड़ाई कहा। जो धीरे-धीरे स्पष्ट होती गई। लोगों ने कहा कि शेख मुजीबुर्रहमान की विरासत पर हमला है तो किसी ने कहा कि बांग्लादेश का इतिहास मिटाने की साजिश है। मगर पांचजन्य आरंभ से ही इस बात को लेकर आश्वस्त था कि यह और कुछ नहीं बल्कि केवल और केवल बांग्लादेश की उसी पहचान को वापस पाने की लड़ाई है जो पहचान मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ उसे मिली थी।
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जिन लोगों ने शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियाँ तोडी थी, उन्होनें शेख मुजीबुर्रहमान का डायरेक्ट एक्शन डे का इतिहास भी भुला दिया था। उन्होनें बस इतना याद रखा कि ये शेख मुजीब ही थे, जिन्होंने इस पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश कर दिया। हाल ही में जाकिर नाईक जब पाकिस्तान गया था, तो उसने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, जिसे लेकर 12 दिसंबर की रैली को और स्पष्टता से समझा जा सकता है। जाकिर ने कहा था कि पाकिस्तान एकलौता ऐसा मुल्क है, जो इस्लाम के नाम पर बना है। और फिर उसने यह भी बाद में कहा था कि पाकिस्तान में रहकर जन्नत के चांस ज्यादा हैं।
बांग्लादेश में जिस प्रकार से पाकिस्तान से नजदीकियाँ बढ़ रही हैं और जिस प्रकार से मुस्लिम उपभोक्ताओं के अधिकारों की बात पर रैली की है, क्या इससे यह और अधिक प्रमाणित नहीं होता कि बांग्लादेश “बांग्ला” पहचान पर नहीं बल्कि “मुस्लिम” पहचान पर जोर देता है? पहचान की ही सारी लड़ाई होती है और पहचान हमेशा ही धार्मिक या पंथ की पहचान होती है। बांग्लादेश में वर्तमान में मुस्लिम पहचान की लड़ाई चल रही है, जिसमें अपनी उस पहचान से पीछा छुड़ाना है जो उस भूमि से जुड़ी है। जितना जटिल यह विषय है, उतना ही सरल इसे समझना है कि बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान अर्थात उस जमीन की पहचान पाने को लालायित है जो उसके मजहब अर्थात इस्लाम के नाम पर बनी थी और जिसे शेख मुजीबुर्रहमान ने वर्ष 1971 में उससे छीनकर केवल बांग्ला तक सीमित कर दिया था।
12 दिसंबर की रैली में काउंसिल ने तर्क दिया कि कुछ रेस्टोरेंट बीफ परोसने से इनकार करते हैं जो मुस्लिम उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं के अनुकूल नहीं है। काउंसिल के कन्वीनर ने ढाका ट्रिब्यून से बात करते हुए कहा कि “गोमांस खाना अनिवार्य (फर्द) नहीं है, लेकिन यह इस्लामी पहचान का प्रतीक है। जब हिंदू मान्यताओं की बात आती है, तो गोमांस खाना आस्था का हिस्सा बन जाता है और इसलिए अनिवार्य हो जाता है।” उन्होंने कुरान के सूरह अल-बकराह की आयत 208 का हवाला देते हुए इसके संदर्भ को समझाया: “हालाँकि ऊँट का मांस खाना अनिवार्य नहीं है, लेकिन यहूदी आहार कानूनों से जुड़े होने के कारण यह मुसलमानों के लिए ज़रूरी हो गया। इसी तरह, हिंदू मान्यताओं के संदर्भ में, गोमांस खाना मुसलमानों के लिए आस्था की घोषणा बन जाता है।”
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बीफ अर्थात गौमांस न परोसने वाले रेस्टोरेंट को भारतीय एजेंट करार देने की धमकी भी काउंसिल के कन्वीनर आरिफ़ ने दी और कहा कि ऐसा न करने वालों को हिन्दुत्व से जुड़ा हुआ और भारत का एजेंट माना जाएगा और उसे पूरे मुल्क में पाबंदियाँ झेलनी पड़ेंगी। बांग्लादेश अपनी मुस्लिम पहचान की लड़ाई में आगे बढ़ रहा है, जिसे पांचजन्य ने 5 अगस्त की घटना के बाद से ही समझ लिया था और लगातार यही कहा था कि यह मुस्लिम पहचान की लड़ाई है।
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