भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर के केंद्र में स्थित अयोध्या का राम जन्मभूमि स्थल कई सदियों से भारतीय जनमानस की आस्था और गौरव का प्रतीक रहा है। लेकिन इस गौरव को बहाल करने के लिए संघर्षों की लंबी गाथा भी जुड़ी हुई है, जो संघर्ष केवल भूमि के लिए नहीं, बल्कि आस्था और पहचान के लिए था।
राम मंदिर आंदोलन, जिसे 9 नवंबर, 2019 को आज ही के दिन सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए रामलला जन्मभूमि के 2.77 एकड़ की विवादित जमीन को 2.77 एकड़ की विवादित जमीन को मंदिर पक्ष को सौंपते हुए 500 वर्षों के संघर्षों को विराम दिया था। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद हुई भारतीय जनमानस के गौरव की जीत के पीछे ऐसे असंख्य गुमनाम नायकों के बलिदान और योगदान से परिपूर्ण है, जिन्होंने इस आंदोलन को जीवित रखा।
इन नायकों ने अपनी आस्था और संकल्प के बल पर आंदोलन को कभी थमने नहीं दिया, चाहे वह महंत रघुबर दास द्वारा 1885 में मंदिर निर्माण का दावा हो या फिर परमहंस रामचंद्र दास द्वारा चलाया गया ताला खोलो आंदोलन। इनकी परिश्रम और तपस्या ने राम जन्मभूमि संघर्ष को एक व्यापक जन आंदोलन में बदल दिया, जिसका असर केवल अयोध्या तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने भारत के कोने-कोने सहित विश्व भर में सांस्कृतिक और धार्मिक एकता का बीज बोया।
इस आलेख में, हम उन गुमनाम नायकों के योगदान का स्मरण करेंगे जिन्होंने अपनी अनमोल आहुति दी। चाहे वे निहंग बाबा फकीर सिंह हों, जिन्होंने 1858 में बाबरी ढांचे पर कब्जा किया, या अशोक सिंघल जैसे पुरोधा, जिन्होंने 1984 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की नींव रखी, ये सभी नायक अपने योगदान से राम मंदिर आंदोलन की नींव बन गए। इनके त्याग, बलिदान और संघर्षों की यह गाथा बताती है कि यह केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि अपने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को पुनर्स्थापित करने का दृढ़ संकल्प था।
यह रिपोर्ट वर्ष 1858 से 2019 तक के ‘राम मंदिर आंदोलन’ से जुड़े सहस्रों बलिदानियों में से 26 प्रमुख गुमनाम नायकों के योगदान व उनके पराक्रम पर आधारित है।
1. निहंग बाबा फकीर सिंह , (30 नवंबर, 1858) :
वर्ष 1858 में निहंग बाबा फकीर सिंह के नेतृत्व में 25 निहंग सिखों ने बाबरी मस्जिद की ढांचे पर कब्जा कर लिया था। 25 दिनों तक वह यहां रुके रहे। इस दौरान निहंग सिखों ने यहां भगवान राम की पूजा की और हवन किया। बाबा फकीर सिंह के कब्जे को छुड़ाने के लिए 30 नवंबर 1858 को तत्कालीन अवध थाने में FIR दर्ज की गई, जो कि निहंग बाबा फकीर सिंह और उनके साथियों के खिलाफ थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी 9 नवंबर 2019 को दिए गए अपने फैसले में 30 नवंबर 1858 को दर्ज हुई एफआईआर का हवाला दिया, जोकि पहला कानूनी दस्तावेज था।
2. महंत रघुबर दास, (19 जनवरी 1885) : 1857 के विद्रोह की आग में देश जल ही रहा था। दूसरी तरफ, अयोध्या में जन्मभूमि के लिए हिंदू-मुस्लिम के झगड़े बढ़ते जा रहे थे। इससे तंग आए अंग्रेजी शासन ने विवादित स्थल को तारों के बाड़ से घेर दिया। हिंदू और मुस्लिम दोनों को पूजा और नमाज की इजाजत दे दी गई। 19 जनवरी 1885 तक का समय ऐसे ही बिता, तभी बाबरी ढांचे के पास एक ऊंचा मंच बनाया गया, जिसे हिंदुओं ने बनाया था। इसके बाद मुस्लिम पक्ष ने फैजाबाद जिला मजिस्ट्रेट के यहां विरोध दर्ज कराया। इसी मंच पर निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवर दास ने मंदिर का निर्माण शुरू किया, जिसे मुस्लिम पक्ष की आपत्ति के बाद जिला मजिस्ट्रेट ने रुकवा दिया। इसके बाद महंत रघुवर दास ने चबूतरे के निर्माण और उसके मालिकाना हक का दावा करते हुए फैजाबाद के उपन्यायधीश की अदालत में 25 मई 1885 को मुकदमा दायर कर दिया।
3. परमहंस रामचंद्र दास (22 दिसंबर 1949) :
22 दिसंबर 1949 को अयोध्या में अचानक प्रभु श्री रामजी की मूर्तियां प्रकट हुईं, जो इस पूरे राम मंदिर मामले में बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम साबित हुआ। इस पूरे प्रकरण में परमहंस रामचंद्र दास जी की प्रमुख भूमिका रही। 16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में हिंदू पक्ष की ओर से मुकदमा दायर कर जन्मभूमि पर स्थापित भगवान राम और अन्य मूर्तियों को न हटाए जाने और पूजा की इजाजत देने की मांग की गई। 1985 को कर्नाटक के उडुपी में हुई दूसरी धर्मसंसद में रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास ने ऐलान किया था कि 8 मार्च 1986 को महाशिवरात्रि तक जन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खोला गया तो ‘ताला खोलो आंदोलन’ को ‘ताला तोड़ो आंदोलन’ में बदल देंगे। उनके तल्ख तेवर के चलते ही 1 फरवरी 1986 को ताला खोल दिया गया।
महंत अवैद्यनाथ- गोरखपुर :
गोरक्षपीठ के ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ ने साल 1934 से 1949 तक लंबी लड़ाई लड़ी। वर्ष 1949 में विवादित जगह में जब रामलला प्रकट हुए तो मालूम पड़ा कि बाबा अभिराम दास के साथ महंत दिग्विजय नाथ ने रामलला की मूर्ति को वहां तक पहुंचाया था। महंत दिग्विजय नाथ के ब्रह्मलीन होने के बाद महंत अवैद्यनाथ ने राम मंदिर आंदोलन की कमान संभाली और फिर राम जन्मभूमि मुक्त यज्ञ समिति बनाई गई। इसकी पहली यात्रा महंत अवैद्यनाथ की अगुवाई में बिहार के सीतामढ़ी से अयोध्या तक निकाली गई। महंत अवैद्यनाथ के अगुवाई में ही 1984 में राम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ था। महंत अवैद्यनाथ न्यास के पहले अध्यक्ष चुने गए।
ठाकुर गुरुदत्त सिंह- (प्रयागराज) :
22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में रामलला के प्राकट्य के समय ठाकुर गुरुदत्त सिंह सिटी मजिस्ट्रेट थे। शासन-प्रशासन पर मूर्ति हटाने का दबाव पड़ने लगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत की ओर से गुरुदत्त सिंह को मूर्ति हटाने का आदेश दिया गया। मूर्ति को न हटाकर गुरुदत्त सिंह ने जिम्मेदार एवं संवेदनशील अधिकारी होने का परिचय दिया। सिविल लाइंस स्थित उनका आवास कालांतर में रामजन्मभूमि आंदोलन का शुरुआती केंद्र बना। आंदोलन से जुड़े बड़े नेताओं का पहला पड़ाव रामभवन ही होता था।
गोपाल सिंह विशारद :
16 जनवरी 1950 : हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद और दिगंबर अखाड़े के महंत परमहंस रामचंद्रदास ने अदालत में याचिका दायर कर जन्मस्थान पर स्वामित्व का मुकदमा ठोंका था। गोपाल सिंह विशारद ने 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के बाद हिंदू महासभा की ओर से रामलला दर्शन और पूजन के व्यक्तिगत अधिकार के लिए 1950 में फैजाबाद न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। 2019 में रामलला के हिंदूओं के पक्ष में निर्णय आने के साथ ही गोपाल सिंह बिसारद को भी उनकी मृत्यु (मृत्यु 1986) के 33 वर्ष बाद जाकर रामलला विराजमान की पूजा का व्यक्तिगत अधिकार दिया गया।
अशोक सिंहल – प्रयागराज :
श्री अशोक सिंघल जी विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अध्यक्ष थे। वह राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के अग्रणी नेता थे।
1984 में अशोक जी ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का श्रीगणेश किया था। सिंघल जी ने 6 दिसंबर 1992 को कारसेवा का आह्वान किया था। कारसेवकों ने बाबरी भूमि को समतल कर अस्थायी राम मंदिर का निर्माण कर दिया था।
मोरोपंत पिंगले- नागपुर :
रामजन्मभूमि आन्दोलन के रणनीतिकार पिंगले ही थे। राम जानकी रथ यात्रा जो 1984 में निकाली गई, उसके वे संयोजक थे। उनकी बनाई योजना के तहत देशभर में करीब तीन लाख रामशिलाएँ पूजी गई। गॉंव से तहसील, तहसील से जिला और जिलों से राज्य मुख्यालय होते हुए लगभाग 25 हजार शिला यात्राएँ अयोध्या के लिए निकली थीं। 40 देशों से पूजित शिलाएँ अयोध्या आईं थीं। अयोध्या के शिलान्यास से छह करोड़ लोग सीधे जुड़े थे। 1992 (बाबरी विध्वंस) के समय संघ के तीन प्रमुख नेताओं एचवी शेषाद्रि, केएस सुदर्शन और मोरोपंत पिंगले, 3 दिसंबर, 1992 से ही अयोध्या में डेरा डाले हुए थे।
देवकीनंदन अग्रवाल- प्रयागराज :
राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन को सफल बनाने में जिन नायकों को इतिहास कभी नहीं भुला नहीं पाएगा, उनमें एक नाम इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस (स्व.) देवकीनंदन अग्रवाल का भी है। राम मंदिर मामले में 1989 को रामलला को खुद पक्षकार बनाए जाने में उनका प्रमुख योगदान रहा, क्योंकि रामलाल बाल स्वरूप में थे इसलिए उनका प्रतिनिधि जस्टिस देवकीनंदन ने स्वयं को रामसखा के रूप में प्रस्तुत किया और सिविल सूट नंबर पांच दाखिल किया। रामलला विराजमान को पक्षकार बनाए जाने का नतीजा यह हुआ की विवादित स्थल का फैसला रामलाल के पक्ष में आया और सरकार बिना किसी बाधा के मंदिर के लिए भूमि अधिग्रहण कर सकी। वह 8 अप्रैल 2002 को निधन होने तक रामसखा बने रहे।
बीएल शर्मा “प्रेम”- दिल्ली, ( Baikunth Lal Sharma) :
1983 में “प्रेमजी” को इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद का महामंत्री बनाया गया। 1985 में प्रेम जी ने श्री राम जन्मभूमि के आंदोलन की शुरुआत कर दी थी, जिसमें हिन्दुओं के जागरूकता के लिए रथ यात्राएं और जन शिला पूजन के कार्यक्रम किए गए। 1989 में वोट क्लब पर विशाल रैली आयोजित की गई, जिसमें देश के सभी धार्मिक गुरु, शंकराचार्य, मठाधीश, और संतों को एक मंच पर लाकर श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति का संकल्प लिया गया, जो पूरे देश में चर्चा का विषय बना था। 6 दिसंबर 1992 को प्रेम जी कार्यकर्ताओं के साथ अयोध्या में उपस्थित थे। जैसे ही ढांचा गिरा, एक कारसेवक मित्र ने रामलला की मूर्ति प्रेम जी को पकड़ा दी, जिसे उन्होंने गोद में रख लिया। वही मूर्ति जिसे 1949 में उनके सामने स्थापित किया गया था। बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरने के बाद सरकार ने उन पर भी केस चलाया।
शरद कोठारी और रामकुमार कोठारी-कोलकत्ता :
कोलकाता से पैदल चलकर कारसेवा के लिए अयोध्या पहुंचे कोठारी बंधु (शरद और रामकुमार) 30 अक्टूबर को गुंबद पर झंडा लहराने वाले पहले व्यक्ति थे। शरद और रामकुमार 2 नवंबर 1992 को विनय कटियार के नेतृत्व में दिगंबर अखाड़े की तरफ से हनुमानगढ़ी की तरफ जा रहे थे, तब पुलिस ने सभी को घेरकर गोलियां चलानी शुरू की और दोनों भाईयों को गोली मार दी गई।
वासुदेव गुप्ता :
मूल रूप से अयोध्या निवासी वासुदेव गुप्ता बजरंगबली के परम भक्त थे। जब राम मुक्ति आंदोलन चला, तब देश के विभिन्न हिस्सों से राम भक्तों का अयोध्या पहुंचना शुरू हुआ और राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए वासुदेव गुप्ता भी एक कारसेवकों के जथे के साथ घर से बाहर निकले, वासुदेव को जन्मभूमि के पास ही अमरकोट में गोली मार दी गई थी। कार सेवक वासुदेव गुप्ता के बलिदान के बाद उनके परिजनों को हिजबुल मुजाहिदीन की तरफ से मिली थी धमकी: “तीन पन्नों के पत्र में लिखा था, ‘एक को भेज चुकी हो, दूसरे को संभाल कर रखना, सरयू नदी को शरीफ नदी और अयोध्या को अयूबाबाद बनाया जाएगा।’
राजेन्द्र धरकार :
कारसेवक राजेंद्र धारकर सिर्फ 17 साल के थे जब 1990 में अयोध्या में पुलिस फायरिंग में गोली लगने से उनकी मौत हो गई थी। उस वर्ष का 30 अक्टूबर महत्वपूर्ण था। यह दो दिनों में पहला दिन था जब मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार के आदेश के तहत पुलिस ने कारसेवकों पर गोलियां चलाईं। दूसरी घटना 2 नवंबर को हुई। एक हेलीकॉप्टर ऊपर दिखाई दिया। इसने लाल सिग्नल दिया और, लगभग तुरंत ही, जमीन पर मौजूद पुलिसकर्मियों ने भीड़ पर आंसू गैस के गोले और गोलियां चलाईं। गोली राजेंद्र को लगी और वह जमीन पर गिर पड़े। उसने भागने की कोशिश की लेकिन पास के एक गहरे, सूखे कुएं में गिर गए और उनकी मृत्यु हो गई।
रमेश पांडेय – अयोध्या :
30 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों पर भयंकर गोलीबारी के बाद मुलायम सरकार को लगा कि उन्होंने राम जन्म भूमि आंदोलन को कुचल दिया है। ऐसे में 2 नवंबर 1990 को हनुमानगढ़ निवासी रमेश कुमार पांडे, जो एक छोटे श्रद्धालुओं के जत्थे के साथ भगवान राम के दर्शन करने के लिए जा रहे थे, मुलायम सिंह सरकार के आदेश के अनुसार उन्हें घेर कर गोलियां बरसा दी गईँ। जिसमें श्रद्धालुओं का नेतृत्व कर रहे रमेश कुमार पाण्डेय के सर में गोली लगी और उनकी मृत्यु हो गई।
संजय कुमार सिंह :
राजस्थान के बाँसवाड़ा के संजय कुमार सिंह को 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवा के लिए घर में दो दुधमुँही बच्चियों और अपनी पत्नी को छोड़कर चुपचाप घर से निकल गए थे। संजय कुमार सिंह ने 2 नवंबर 1990 को मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा किए गए नरसंहार में स्वयं का बलिदान दे दिया था।
अविनाश माहेश्वरी :
राजस्थान के अजमेर में 19 वर्षीय संघ के स्वयंसेवक, अविनाश महेश्वरी, अयोध्या में कारसेवा के लिए पहुंचे थे। जहां 6 दिसंबर 1992 को अविनाश ने स्वयंसेवकों पर पुलिस द्वारा फेंके गए एक बम को अपने हाथों में लपक लिया, बम फटने से उनकी मृत्यु हो गई।
बलराज यादव :
कारसेवकों के एक छोटे समूह का नेतृत्व करने वाले बलराज यादव, 6 दिसंबर को सुरक्षा का उल्लंघन करने और बाबरी पर चढ़ने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे। 16 दिसंबर 1992 को हैदराबाद में मुस्लिमों ने इसके लिए उनकी चाकू से हत्या कर दी।
दाऊ दयाल खन्ना :
जब भी श्री राम मंदिर की चर्चा होगी तो दाऊदयाल खन्ना के नाम का उल्लेख अवश्य होगा। 6 मार्च 1983 को मुज़फ्फरनगर में एक लाख से ज्यादा लोगों को संबोधित करते हुए अयोध्या, मथुरा और काशी के कब्जाए हुए मंदिरों को मुक्त कराने का प्रस्ताव दाऊदयाल खन्ना ने रखा था। मुरादाबाद निवासी दाऊदयाल खन्ना जिन्होंने कांग्रेस में रहते हुए संगठन की तमाम बंदिशों को दरकिनार कर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए पत्र लिखा था। वर्ष 1983 में उन्होंने इस विषय को उठाया। इसके साथ ही काशीपुर और मुजफ्फरनगर में हुई जनसभा में उन्होंने इस विषय को रखा था। इस सभा में पूर्व गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे रज्जू भैया भी उपस्थित थे। खन्ना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। वर्ष 1962-1967 तक वह उत्तर प्रदेश सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी थे।
स्वामी वामदेवजी महाराज- वृंदावन :
स्वामी वामदेव जी (वृन्दावन) विश्व हिंदू परिषद से जुड़े एक भोले भाले विनम्र संत थे।
1. अयोध्या में 26 जुलाई 1992 को मंदिर निर्माण के लिए की गई कार सेवा रोके जाने के पश्चात् श्री राम कार सेवा समिति के अध्यक्ष और राम जन्मभूमि आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ रहे स्वामी वामदेव जी महाराज ने अब से 28 वर्ष पूर्व 4 दिसम्बर 1992 को स्पष्ट रूप से यह घोषणा की थी कि ‘खून खराबा होने पर भी इस बार कार सेवा नहीं रुकेगी और राम मंदिर का निर्माण होगा’।
2. स्वामी वामदेव की ही अध्यक्षता में साल 1984 में अखिल भारतीय संत-सम्मेलन का आयोजन जयपुर में हुआ था, जिसमें राम जन्मभूमि आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए 15 दिनों तक लगातार 400 साधु-संतों के साथ गहन विचार-विमर्श किया गया।
3. 30 अक्टूबर, 1990 को विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में कारसेवा का आह्वान किया था। स्वामी वामदेव अपनी वृद्धावस्था के बावजूद सभी बाधाओं को पार करते हुए अयोध्या पहुंचे थे।
आचार्य गिरिराज किशोर- दिल्ली :
आचार्य गिरिराज किशोर ने वर्ष 1995 में श्रीराम जन्मभूमि न्यास के गठन के बाद प्रयागराज में हुई मार्गदर्शक मंडल की बैठक में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण तक दाढ़ी-बाल न कटवाने का संकल्प लिया था। 15 अक्टूबर 2003 को लखनऊ में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा राम मंदिर निर्माण के लिए शुरू होने वाली शोभा यात्रा से पहले पुलिस ने विहिप उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर समेत दो हजार विहिप कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
जगद्गुरू पुरूषोत्तमाचार्य- अयोध्या :
जगद्गुरु स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी राम मन्दिर आंदोलन के अगुवा और श्रीराम जन्मभूमि न्यास के वरिष्ठ सदस्य थे। स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी रामजन्मभूमि न्यास के सदस्य और केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल के भी सदस्य थे। अयोध्या में विहिप की स्थापना और 1984 में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में उनके मठ और महाराज श्री की केंद्रित भूमिका थी।
ओंकार भावे- दिल्ली :
ओंकार भावे 14 वर्ष की अवस्था में वह स्वयंसेवक बने थे। भावे जी 1984 में ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ तथा ‘धर्मस्थान मुक्ति यज्ञ समिति’ के वरिष्ठ मंत्री थे। जन्मभूमि का ताला खुलने पर रामजानकी रथों को शासन ने बंद कर दिया। उनकी मुक्ति के लिए हुए आंदोलन का नेतृत्व भी भावे जी ने किया था। 2 नवम्बर, 1990 को अयोध्या में हुई कारसेवा में उन्होंने एक जत्थे का नेतृत्व किया था।
श्रीश चंद्र दीक्षित – लखनऊ :
यूपी के रिटायर्ड डीजीपी श्रीश चंद्र दीक्षित की राम मंदिर आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने में उनकी खास भूमिका थी। पुलिस प्रशासन से नजरें बचाकर कारसेवकों को अयोध्या पहुंचाने में इनका प्रमुख योगदान था। 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई। इसके बाद पुलिस ने कारसेवकों पर गोली चला दी तो कारसेवकों के ढाल बनकर श्रीश चंद्र दीक्षित सामने आए पूर्व डीजीपी को सामने देख पुलिस वालों ने गोली चलाना बंद कर दिया। अक्टूबर-नवंबर 1990 में अयोध्या में कारसेवा के दौरान उनको गिरफ्तार भी किया गया था।
केशव पाराशरण जी :
केशव पारासरण जी अयोध्या मामले में रामलला विराजमान के वकील थे।
उन्होंने 92 साल की उम्र में भी घंटों अदालत में खड़े होकर बहस कर फैसला मंदिर के पक्ष में करने में अहम भूमिका निभाई। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने 2019 अगस्त में नियमित रूप से अयोध्या केस की सुनवाई शुरू की तो केशव पारासरण 40 दिनों तक लगातार घंटों बहस में भाग लेते रहे।
- केशव पारासरण देवी-देवताओं और धर्म-कर्म से जुड़े मुकदमों की पैरवी में काफी रुचि और उत्साह से भाग लेते रहे हैं।
- राम मंदिर से पहले वह सबरीमाला मामले में भगवान अयप्पा के वकील रहे।
- वहीं UPA सरकार के दौरान उन्होंने रामसेतु का भी केस लड़ा था।
इस तरह के केस लड़ने के कारण उन्हें ‘देवताओं का वकील’ भी कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट में हिंदू पक्ष की पैरवी करने वाले पारासरण जी को भी 15 सदस्यीय ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ ट्रस्ट में जगह दी गई व उनके आवास को ही ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ ट्रस्ट का आधिकारिक (आर-20, ग्रेटर कैलाश, पार्ट 1, नई दिल्ली) कार्यालय बनाया गया।
हरिशंकर जैन एवं विष्णु शंकर जैन :
1978-79 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच से प्रैक्टिस शुरू की, 1989 में अयोध्या विवाद में हिंदू महासभा के वकील नियुक्त होने पर हरि शंकर को राष्ट्रीय पहचान मिली। बेटे विष्णु शंकर जैन ने अयोध्या विवाद की पैरोकारी से 2016 से करियर की शुरुआत की। हिंदूओं से संबंधित करीब 102 मामले ऐसे हैं जिनमें हरिशंकर जैन और विष्णु जैन में से कोई एक या फिर दोनों अदालत में पेश हुए हों। इनमें सबसे पुराना मामला साल 1990 का है।
मथुरा में श्री कृष्ण जन्मभूमि का मामला सबसे बड़े मामलों में से एक है जिसे इस पिता-पुत्र जोड़ी ने संभाला है। इसके अलावा कुतुब मीनार बनाने के लिए मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए 27 हिंदू और जैन मंदिरों का केस। ताजमहल के शिवमंदिर होने का दावा, और वर्शिप एक्ट औक वक्फ एक्ट 1995 को चुनौती देने का मामला भी यही दोनों संभाल रहे हैं। हरिशंकर जैन और विष्णु जैन ने भारत के संविधान की प्रस्तावना में जो सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द शामिल किया गया है उस संशोधन की वैधता को भी चुनौती दी।
ऐतिहासिक समयरेखा
अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि स्थल का संघर्ष एक लंबा और चुनौतीपूर्ण इतिहास रहा है। भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास के केंद्र में स्थित यह स्थल सदियों से असंख्य योद्धाओं, संतों और राजाओं के साहसिक प्रयासों का गवाह रहा है। श्रीराम जन्मभूमि की रक्षा के लिए सम्राट विक्रमादित्य से लेकर कई असाधारण व्यक्तियों ने कठिन परिश्रम और बलिदान किया। इस भूमि को धर्म, आस्था और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक बनाने के लिए इनके प्रयास आज भी भारतीय जनमानस में गर्व और प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं।
सम्राट विक्रमादित्य : अयोध्या का पुनर्निर्माण
करीब 2500 वर्ष पहले, उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने अयोध्या की खोज कर उसे पुनः बसाया। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीराम की जन्मभूमि को पुनर्जीवित करने का कार्य विक्रमादित्य ने अपनी गहरी आस्था और भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर किया। इस पवित्र भूमि का जीर्णोद्धार करते हुए उन्होंने यहां पर भव्य राम मंदिर का निर्माण करवाया। उनकी इस पहल ने अयोध्या को एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। सम्राट विक्रमादित्य के इस कार्य ने अयोध्या को एक बार फिर से भारतीय आस्था के केंद्र में ला खड़ा किया।
मीर बांकी का आक्रमण और श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस (1525 ई.)
हालांकि, वर्ष 1525 ई. में जब मुगल आक्रांता बाबर ने भारत पर आक्रमण किया, तो उसने अपने सेनापति मीर बांकी को अयोध्या भेजा। मीर बांकी ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त कर वहां एक मस्जिद का निर्माण करवाया, जिसे बाद में बाबरी मस्जिद के नाम से जाना गया। यह घटना हिंदुओं के लिए गहरी पीड़ा का कारण बनी और इसके बाद से ही इस पवित्र स्थल को पुनः प्राप्त करने की इच्छा हिंदू समुदाय में जाग्रत हो उठी।
स्वर्गीय राजा रणविजय सिंह की महारानी जयकुमारी का बलिदान
वहीं हुमायूं के शासनकाल में, हसवर के राजा रणविजय सिंह की रानी, महारानी जयकुमारी ने अपने 30,000 स्त्री सैनिकों के साथ श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर पुनः अधिकार करने का साहसिक प्रयास किया। उनके गुरु स्वामी रामेश्वरानंद के नेतृत्व में उन्होंने हिंदू जागरण की अलख जगाई। उनके साहस और बलिदान ने उस समय की धार्मिक धरोहर को सहेजने का महत्वपूर्ण कार्य किया। हालांकि, तीन दिनों के भीतर हुमायूं की सेना ने फिर से उस स्थान पर कब्जा कर लिया। इसके बाद भी, अकबर के समय में हिंदू योद्धाओं ने बीस बार इस स्थल को मुक्त कराने का प्रयास किया। उनमें से उन्नीस बार यह प्रयास असफल रहे, लेकिन अंततः बीसवीं बार महारानी जयकुमारी और उनके गुरु ने अपने प्राणों की आहुति देकर राम मंदिर स्थल पर पुनः अधिकार कर लिया। उनके इस त्याग के बाद, हिंदू योद्धाओं ने चबूतरे पर कब्जा कर वहां मंदिर का निर्माण किया।
स्वामी वैष्णवदास और चिमटाधारी साधुओं का प्रतिरोध
औरंगजेब के शासनकाल के दौरान, उसने जांबाज नामक एक सेनापति के नेतृत्व में सेना को श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर भेजा। लेकिन स्वामी वैष्णवदास के नेतृत्व में 10,000 चिमटाधारी साधुओं ने आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए अपने शिविर सोहावल स्टेशन के पास स्थापित किए। साधुओं ने अपनी आस्था और साहस का परिचय देते हुए शत्रु सेना के सामने डटकर प्रतिरोध किया। इन साधुओं के बलिदान ने अयोध्या के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा को और भी प्रबल किया।
ठाकुर परशुराम सिंह और श्री गणराज सिंह का प्रतिरोध
राम मंदिर की रक्षा के लिए खिलजी के समय में भी स्थानीय हिंदू समाज ने अप्रतिम साहस का परिचय दिया। खिलजी के आक्रमण से मंदिर का बाहरी भाग ध्वस्त हो गया, लेकिन जब मुख्य भाग पर हमला हुआ, तो स्थानीय जनता ने ठाकुर परशुराम सिंह और श्री गणराज सिंह के नेतृत्व में आक्रमणकारियों का जोरदार प्रतिरोध किया। उनके साहस के सामने खिलजी की सेना को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। इन योद्धाओं का साहस, धैर्य और देशभक्ति की भावना अयोध्या के इतिहास में आज भी स्मरणीय है।
इतिहास में अमर रहेगा इन गुमनाम नायकों का योगदान
राम जन्मभूमि स्थल के लिए किए गए इन योद्धाओं और संतों के प्रयासों ने संघर्ष और आस्था की जो मिसालें कायम की हैं, वे आज भी प्रेरणादायक हैं। असंख्य रामभक्तों ने समय-समय पर अपने जीवन, धन और मन के समर्पण का अर्पण किया है। राम मंदिर आन्दोलन के दौरान सभी रामभक्तों के अथक प्रयासों ने न केवल धार्मिक आस्था को प्रबल किया, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का संदेश भी दिया।
ऊपर बताए गए ये सभी नायक किसी एक व्यक्ति के संघर्ष की कहानी नहीं, बल्कि पूरे समाज के समर्पण और साहस की कहानी हैं। उनके बलिदान और साहस ने इस भूमि को पुनः स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई और इस स्थल के लिए किए गए संघर्षों को जनमानस में एक विशेष स्थान दिया। राम जन्मभूमि स्थल का संघर्ष इन गुमनाम नायकों के योगदान के बिना अधूरा होता। उनके त्याग और दृढ़ संकल्प ने अयोध्या को धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में पुनः स्थापित किया, जिसे आने वाली पीढ़ियां भी सदा याद रखेंगी।
Shivam Dixit started his career in journalism from 2015. He first worked as Special Correspondent in Mansukh Times (Weekly Newspaper) and later came to Delhi and worked as Digital Editor in Sanchar Times Media Group.
After this he joined the News Network of India (NNI) and held the post of Reporter Coordinator in India's paper here. After successfully launching India's Paper Project, Shivam Dixit started his new innings as Social Media In-charge at News1India, Dainik Hint and Niwan Times.
After working in various media organizations for many years, Shivam Dixit is currently working in the national weekly 'Panchjanya' continuously since 1948.
Talking about his achievements, he managed 500 websites of various newspapers of "India's Papers" as manager in NNI. Talking about the output of this project, this project was registered in Limca Book of Records.
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