संघ

भारत में लोकविज्ञान की संस्कृति

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हितेश शंकर

(संदर्भ : पं. दीनदयाल उपाध्याय का समग्र दर्शन)

हितेश शंकर

25 सितंबर यानी एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता, ‘पाञ्चजन्य’ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्मदिवस। इस 25 सितंबर को हम पंडित जी की 108वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। इस अवसर पर हमें मौका मिलता है उनके समग्र दर्शन को याद करने का। भारतीय संस्कृति की उदात्त परंपराओं का स्मरण करने का। अपने उत्कृष्ट लोकविज्ञान के विवेचन का। अपने समाज की सामूहिकता का। अपने हर कर्म में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अभिव्यक्ति का। कार्यकुशलता का। वैभव के साथ-साथ मितव्ययिता का।

पंडित जी ने लिखा है, ‘‘भारत का यदि कोई इतिहास है तो वह समस्त विश्व की मंगलकामना का ही है। विश्व के विभिन्न देशों में प्राप्त भारतीय इतिहास के अवशेष आज भी इसी तथ्य की घोषणा कर रहे हैं कि भारत ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए ही प्रयत्न किए हैं। इसलिए सत्य तो यह है कि विश्व के परस्पर संघर्ष, विद्वेष, प्रतिद्वंद्विता के आधार पर प्रकट हो रही पश्चिमी ‘नेशनलिज्म’ की विभीषिकाओं से विश्व को बचाना है तो उसके लिए भारत के सशक्त राष्ट्रभाव को ही संगठित और सक्षम बनाकर खड़ा करना होगा। यही विश्व-कल्याण का मार्ग है।’’

विद्वेष और संघर्ष से मुक्ति का सूत्र सुनने-बोलने में अच्छा लगता है, किंतु इसके सांस्कृतिक संदर्भ क्या हैं!
इसके ‘रिसोर्स पर्सन’ कौन हैं?
विश्व कल्याण का यह मार्ग कैसा है?
विभिन्न राज्य व्यवस्थाओं के संचालन की प्रक्रियाओं के यह कैसे सूत्र देता है?
व्यवस्था और व्यवहार में समाज और सरकार को किस प्रकार देखता है?

इसे सरलता से समझिए-
पंडित जी ने सरकार के ऊपर समाज की ताकत का मंत्र दिया। समाज आत्मनिर्भर होगा, तभी स्वाभिमानी होगा। जब स्वाभिमानी होगा, तभी स्वावलंबी होगा। उन्होंने हमें ‘स्थानीय’ ताकत का बोध कराया। वे हमें यह भी याद दिलाते रहे कि हमें देशानुकूल होने के साथ-साथ युगानुकूल भी होना है। पंडित जी ने स्वदेशी का मंत्र फूंका तो उसके साथ यह भी रेखांकित किया कि विदेशी की नकल नहीं करनी है, उससे भी श्रेष्ठ होना है।

विदेशी की नकल और उसी को ‘अकल’ मानने वाली औपनिवेशिक मानसिकता के जाले झाड़ने का काम दीनदयाल जी का यह दर्शन करता है।

विदेशी विचार की विसंगतियों को भारतीय संदर्भ में न लागू किया जा सकता है, न ही भारतीय राष्ट्र को विदेशी चश्मे से देखना चाहिए, ऐसा दीनदयाल जी मानते थे।

उनका कहना था कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रभाव और यूरोपीय राष्ट्र-राज्य में आधारभूत अंतर है। यूरोप में राष्ट्र-राज्य के विचार में तमाम युद्ध हुए। भारत में नहीं। पंडित जी ने लिखा है- ‘‘यूरोप के देशों में ‘नेशनलिज्म’ के कारण विनाश हुआ, इसीलिए भारत के राष्ट्रभाव को भी विनाशकारी कहना ‘दूध का जला छाछ को फूंक-फूंक कर पीता है’ वाली कहावत चरितार्थ करना है। इसलिए जिन राष्ट्रों ने मानव के लिए संकट पैदा किया, गलत कार्य किया, वैसा ही परिणाम हमारी राष्ट्रीयता से भी निकलेगा, यह निष्कर्ष ही गलत है। यह केवल घोषणा की बात नहीं। भारत की राष्ट्रीयता का सहस्रों वर्षों का इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करता है। विश्व के इन देशों ने जहां विगत हजार-पांच सौ वर्ष में भीषण विनाश के दृश्य उपस्थित किए, वहां भारत के लंबे इतिहास में मानव को पीड़ा पहुंचाने का उल्लेख करने वाला एक भी पृष्ठ नहीं है।’’

दीनदयाल जी ने सांस्कृतिक राष्ट्रभाव का हमें बोध कराया तो सिर्फ उसके वैचारिक पक्ष से नहीं, बल्कि ऐसे बहुत से उदाहरण दिए कि हमारा समाज इस विचार को कैसे जीता है। विविधता में एकता नहीं, बल्कि एकता में विविधता की बात उन्होंने हमें सरलता से समझाई। हमारा समाज इसी एकता में विविधता की सहज, सरल और सरस छवि है।

दीनदयाल जी के दर्शन को राजनीति की पालेबंदी और पूर्वाग्रहों से परे जाकर समझना आवश्यक है। आवश्यक है कि इसे पुस्तक के पन्नों से जमीन पर उतारने वाले अनुभवों के माध्यम से समझा जाए। ‘पाञ्चजन्य’ की
इस सप्ताह की आवरण कथा इसी दिशा में एक प्रयास है।

दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं ने गांवों में काम करते हुए पिछले 46 वर्ष में अपने भोले-भाले समाज के ज्ञान का साक्षात्कार किया है। उसकी विद्वता को करीब से समझा है। प्रकृति के साथ उसकी एकात्मता के दर्शन किए हैं। प्रकृति से उसके भावनात्मक लगाव का अनुभव किया है। संस्थान के साथ जुड़ी शोधकर्ताओं की एक टीम ने पिछले एक दशक में तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गहन अध्ययन किया।
उसके ‘रिसोर्स पर्सन’ थे हमारे समाज के आमजन-बुजुर्ग, महिला, सभी लोग। वही उस शोध के ‘रेफरेंस पॉइंट’ भी थे। ये तीन विषय थे-
-जल संस्कृति
-पोषण संस्कृति
-देशज ज्ञान परंपरा के माध्यम से सुशासन।

इन तीनों विषयों के निष्कर्ष यह बताने को पर्याप्त हैं कि पंडित जी का एकात्म मानवदर्शन सचमुच कालजयी है। भारत के समाज की एकात्मता का आईना है।

इस सप्ताह के आयोजन में साक्षात्कार करते हैं इस देश की मिट्टी, पानी, पोषण और प्रशासन की संस्कृति का, ज्ञान की उस परंपरा का जिसके बारे में दीनदयाल जी जीवन भर बताते रहे। आपको हमारा यह आयोजन कैसा लगा, अवश्य बताइएगा!

@hiteshshankar

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