16 अगस्त, 1604 का पवित्र दिन। पाँचवें गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव की पंद्रह वर्ष की तपस्या पूर्ण हुई और आदि ग्रंथ का संपादन पूर्ण हुआ। पूरे चौदह सौ तीस पृष्ठ वाले इस विशाल और महान् आध्यात्मिक ग्रंथ को धूमधाम और पूर्ण धार्मिक मर्यादा के साथ हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर, अमृतसर) में स्थापित किए जाने (सामान्य सिख शब्दावली में जिसे प्रकाश करना कहते हैं) की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। आदि ग्रंथ को एक जुलूस की शक्ल में हरिमंदिर साहिब ले जाया जा रहा था। गुरु अर्जुनदेव के निष्काम सेवक बाबा बुड्डाजी ने आदि ग्रंथ को अपने सिर पर उठा रखा था। उनके पीछे सैकड़ों श्रद्धालु सतनाम वाहेगुरु का जाप और आदि ग्रंथ पर फूलों की वर्षा करते हुए चल रहे थे। हरिमंदिर साहिब के भीतर पहुँचकर पवित्र ग्रंथ को मंजी साहिब (छोटा खटोला) पर सम्मान के साथ रखा गया और उसपर सुंदर रूमाले (वस्त्र) सजाए गए। इसके बाद गुरु अर्जुन तथा अन्य सभी श्रद्धालु आदि ग्रंथ को नमन करके उसके समक्ष श्रद्धा के साथ बैठ गए। गुरु अर्जुन ने बाबा बुड्डाजी को आदि ग्रंथ में से हुक्मनामा (पवित्र ग्रंथ में से एक पद्य पढ़ना) लेने के लिए कहा। बाबा बुड्डाजी ने आदि ग्रंथ को खोलकर प्रथम हुक्मनामा लिया तो निम्नलिखित शबद (पद्य) आया –
‘संता के कारजि आप खलोइआ
हरि कंमु करावणि आइआ राम…’।
इस प्रकार आदि ग्रंथ का हरिमंदिर साहिब में धार्मिक मर्यादा के साथ प्रथम प्रकाश हुआ। बाबा बुड्डाजी को गुरु अर्जुन ने ग्रंथ साहिब का पहला ग्रंथी नियुक्त किया। आदि ग्रंथ को गुरु अर्जुनदेव हमेशा ऊँचे आसन पर सुशोभित करते और स्वयं नीचे जमीन पर सोते। इतना अधिक सम्मान देते थे वे इस पवित्र ग्रंथ को।
भारत ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों की धरती है। यहाँ वेद, गीता, रामचरितमानस जैसे कई धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। विश्व के प्रमुख धर्मग्रंथों में सबसे नवीन है गुरु ग्रंथ साहिब। न केवल आकार की दृष्टि से, बल्कि सामग्री के लिहाज से भी यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें ईश्वर और मोक्ष के अलावा जीवन के प्रत्येक पहलू के बारे में व्यक्ति को मार्गदर्शन मिलता है ।
उद्देश्य
गुरु ग्रंथ साहिब की रचना के पीछे गुरु अर्जुनदेव का उद्देश्य संसार का उद्धार करना था। राग मुंदावणी में रचित अपने निम्नलिखित शब्द (सबद) में गुरुजी बताते हैं –
थाल विचि तिनि वस्तु पईओ, सतु संतोखुविचारो ।
अमृत नाम ठाकुर का पइओ, जिसका सभसु अधारो ।
जे को खावै जे को भुंचे, तिसका होइ उधारो ।
ऐह वस्त तजी नह जाई, नित नित रखु उरिधारो ।
तम संसारु चरन लग तरीऔ, सभु नानक जी ब्रह्म पसारो ॥
अर्थात् मैंने विश्व की आध्यात्मिक भूख की शांति के लिए गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में एक बहुमूल्य थाली में तीन वस्तुएँ परोसकर रख दी हैं। ये वस्तुएँ हैं — सत्य , संतोष तथा प्रभु के अमृत नाम का विचार। जो भी प्राणी इन वस्तुओं को खाएगा और पचाएगा (यानी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को पढ़ेगा तथा जीवन में उसपर अमल करेगा) उसका उद्धार होगा (जिस प्रकार जीवनपर्यंत मनुष्य भोजन करता है उसी प्रकार) । प्राणी को सदा इन वस्तुओं को हृदय में बसाना होगा, तभी उसके मन से अज्ञान का अंधकार दूर होगा और ब्रह्मज्ञान का प्रकाश होगा।
सबका साँझा ग्रंथ
गुरु ग्रंथ साहिब समूची मानव जाति का साँझा गुरु है। गुरु अर्जुनदेव ने इस महान् ग्रंथ का संकलन और संपादन करते समय ‘खत्री, ब्राह्मण, सूद, वैस, उपदेसु चहुँ वर्णा कउ साँझा’ के धार्मिक समता तथा समन्वयकारी उद्देश्य को सामने रखा।
रामसर में हुई रचना
गुरु ग्रंथ साहिब की रचना के लिए गुरु अर्जुनदेव ने अमृतसर में घने वृक्षों की छायावाले एकांत क्षेत्र रामसर को चुना, कश्मीर से विशेष कागज मँगवाया और स्याही भी खास तैयार करवाई ।
वाणी को लिपिबद्ध यानी लिखने का कार्य किया भाई गुरदास ने। वे जो-जो वाणी लिपिबद्ध करते जाते, गुरु अर्जुनदेव साथ- साथ उसकी जाँच करते जाते।
गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु नानक जी या किसी अन्य सिख गुरु की जीवनी अथवा सिख इतिहास का बखान नहीं है, बल्कि इसमें मात्र एक परम सत्ता की महिमा और व्यावहारिक जीवन – युक्ति का वर्णन है । इसमें वर्णन है ईश्वर के नाम-सिमरन का , प्रेमा- भक्ति का , जन सेवा का , जीवन में आडंबर व छल – कपट छोड़ने एवं नैतिक मूल्यों, पवित्रता और सादगी को अपनाने का। इसमें वर्णन है मानवीय एकता तथा भाईचारे का।
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