लोकमाता अहिल्याबाई के कालखंड को गुजरे सदियां बीत चुकी हैं, लेकिन आज भी उसे सुशासन का प्रतीक माना जाता है तो इसका कारण यह है कि सुशासन के आधुनिक मानदंडों की कसौटी पर भी उनका राजकाज उतना ही खरा उतरता है। लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर त्रिशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में सुशासन की अवधारणा पर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के कुशाभाऊ ठाकरे सभागार में 24 अगस्त, 2024 को पाञ्चजन्य द्वारा एकदिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया। ‘सुशासन संवाद : मध्य प्रदेश’ कार्यक्रम में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा, प्रदेश के स्कूल शिक्षा एवं परिवहन मंत्री मंत्री उदय प्रताप सिंह, पूर्व मंत्री अर्चना चिटनिस, प्रज्ञा प्रवाह के मालवा प्रांत के संयोजक डॉ. मिलिंद दांडेकर और राज्य के पूर्व सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी ने अपने विचार रखे।
जब भी सुशासन की बात आएगी, जो छवि सबसे पहले उभरेगी, वह है श्रीराम के राज्य की छवि अर्थात् रामराज्य की। स्वाभाविक है, राम और उनके आदर्श इस भूमि के लिए प्रकाश स्तंभ हैं। जब भी दिशाभ्रम की स्थिति हो, इसे देखकर सही मार्ग का पता कर लें। किंतु सुशासन की बात करते-करते जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो मालवा के उस ‘स्वर्ण काल’ में जाकर ठिठक जाते हैं, जिसे आकार दिया था लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर ने। उनका जीवन इस बात का जीवंत उदाहरण है कि एक शासक की दृष्टि, उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए।
प्रत्येक शब्द का एक चरित्र होता है, किंतु देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसके अर्थ और व्याप, दोनों बदल जाते हैं। इस संदर्भ में ‘सुशासन’ कोई अपवाद नहीं है। इसलिए राजमाता अहिल्याबाई के काल में जाकर ‘सुशासन’ के गुणसूत्रों को देखने के प्रयास से पहले इस पर विचार करना आवश्यक है कि इस देश ने जिस ‘सुशासन’ को सिर-माथे पर रखा, उसमें और पाश्चात्य समाज के तथाकथित आधुनिकता भरे ‘सुशासन’ में आधारभूत अंतर क्या है।
अरस्तु की ईसा पूर्व चौथी सदी की पुस्तक ‘पॉलिटिक्स’ की बात करें या फिर 20वीं सदी में जर्मन समाजशास्त्री और राजनीतिक अर्थशास्त्री मैक्स वेबर की या फिर उनके जैसे अन्य प्रबुद्ध व्यक्तियों की, सुशासन का पाश्चात्य आधार कानून के राज और व्यैक्तिक अधिकारों पर टिका है। बेशक अरस्तु ‘पॉलिटिक्स’ शृंखला की तीसरी पुस्तक के चौथे अध्याय में कहें कि ‘‘नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य के प्रति वफादार रहें, अपने अधिकारों का प्रयोग करें और अपने कर्तव्यों का पालन करें।’’ या वह इस शृंखला की पांचवीं पुस्तक के पहले अध्याय में यह कहें कि ‘‘नागरिकों को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों को भी समझना चाहिए और उनका पालन करना चाहिए।’’ लेकिन उनका पूरा दर्शन अधिकारों और कानून के राज की स्थापना पर आधारित है।
वैसे ही, ‘पॉलिटिक्स एंड ब्यूरोक्रेसी’ में मैक्स वेबर कहते हैं, ‘‘नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करें, कानूनों का पालन करें और सामाजिक आदेश को बनाए रखने में सहयोग करें।’’ विभिन्न कालखंडों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये दोनों विचारक और उनके जैसे अनेक पाश्चात्य विद्वान अधिकारों को प्रधानता देते हुए दायित्वों के निर्वाह की अपेक्षा रखते हैं।
ग्रामीण पृष्ठभूमि की एक तेजस्वी कन्या को भाग्य ने मालवा के सूबेदार मल्हारराव होल्कर की पुत्रवधू बना दिया।अहिल्याबाई का जीवन सादा, लेकिन विचार उच्च थे। उनके विचार कालजयी प्रेरणास्त्रोत बनकर हर युग में जन-जन के लिए कर्तव्य व धर्म परायणता, प्रशासनिक कौशल और ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के विचार का पालन करने का संदेश देते हैं।
मल्हारराव होल्कर ने जब उच्च संस्कारों वाली अहिल्याबाई को अपनी पुत्रवधू के रूप में चुना तो उन्हें विश्वास था कि वह उनके पुत्र के लिए उत्तम जीवन संगिनी साबित होंगी।
समय के साथ यह सच भी हुआ। अहिल्याबाई अपने पति के राजकार्यों में हाथ बंटाने लगीं, जिसमें युद्ध के मैदान में गोला-बारूद, बंदूक, तोप और रसद की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी भी शामिल थी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। कुम्हेर के युद्ध में उनके पति खांडेराव वीरगति को प्राप्त हुए। अहिल्याबाई पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन मल्हारराव ने उन्हें संबल दिया और प्रजा की सेवा के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। ससुर के दिशानिर्देश में उनका व्यक्तित्व और निखरा।
भारत का संविधान दुनिया भर के देशों के संविधानों से अनुकरणीय बातों को लेकर बनाया गया। हमारे संविधान की प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों का खंड अमेरिकी संविधान से, संसदीय प्रणाली और संसद की शक्तियां ब्रिटिश संविधान से, संघीय प्रणाली और केंद्र-राज्य संबंधों का खंड कनाडा के संविधान से, स्वतंत्रता व समानता के प्रावधान आस्ट्रेलियाई संविधान से, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जर्मन संविधान से, जबकि नीति निर्देशक सिद्धांतों का खंड सोवियत संविधान से प्रेरित है।
भारतीय दर्शन में सुशासन का आधार ‘धर्म’ अर्थात् कर्तव्य है। उसमें व्यैक्तिक अधिकारों को पीछे रखकर व्यैक्तिक दायित्व को आगे रखा गया है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन में सुबह जागने से लेकर रात सोने तक एक व्यक्ति के सैकड़ों तरह के धर्म के निर्वहन की बात है- पिता धर्म, पुत्र धर्म, पत्नी धर्म जैसे व्यैक्तिक धर्मों से लेकर समाज धर्म, राष्ट्र धर्म से लेकर प्रकृति धर्म तक। वैसे ही शासक का भी धर्म होता है और विभिन्न तरह के ये धर्म उसके सार्वजनिक आचरण की सीमाएं तय करते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संविधान में भारतीय परंपरा और दर्शन को भी समाहित किया गया है और इसमें भारतीय आचार-विचार को तय करने वाले श्रीराम के आदर्शों को दिशानिर्देश माना गया। किंतु भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर को पता था कि श्रीराम के आदर्शों को व्यवहार में उतारने के लिए नैतिक बल की आवश्यकता होगी और इसीलिए संविधान को स्वीकार कर लिए जाने के बाद 26 नवंबर, 1949 को उन्हें संविधान सभा में कहना पड़ा था- ‘‘संविधान कितना प्रभावी होगा, यह इसे अमल में लाने वाले की मंशा पर निर्भर करता है। अगर इसे अमल में लाने वाले की मंशा अच्छी होगी, तो संविधान अच्छा काम करेगा। लेकिन मंशा खराब होगी, तो संविधान भी खराब काम करेगा।’’
अहिल्याबाई एक संपन्न राज्य की महारानी थीं और हर तरह की सुख-सुविधा का उपभोग कर सकती थीं, पर उन्होंने संतों सा जीवन बिताया और निष्काम सेवा व कठोर साधना को अपनाया। सरल और सात्विक जीवन व्यतीत करने वाली अहिल्याबाई स्वभाव से सरल और हर किसी की चिंता करने वाली थीं। वह किसी को दुखी नहीं देख सकती थीं। बिना किसी भेदभाव के दुखियों के दुख दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहती थीं।
जॉन मैल्कम के अनुसार, अहिल्याबाई का दिन सूर्योदय से एक घंटा पहले शुरू होता था। नर्मदा नदी में स्नान के बाद वह पूजा-पाठ कर पुराण व धार्मिक ग्रंथों का पाठ सुना करती थीं। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता अम्बादास पुराणिक, मल्हारभट पुराणिक वगैरह उन्हें प्रतिदिन धर्म ग्रंथ पढ़कर सुनाते थे। उसके बाद ब्राह्मणों, भिक्षुकों, असहायों और गरीबों को अन्न, वस्त्र व धन दान करती थीं। फिर सभी को पूरे सम्मान के साथ भोजन कराती थीं। उनका एक ही उद्देश्य था, कोई भूखा न रहे। उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। इसके बाद ही राजमाता भोजन करती थीं।
महेश्वर में उनके राजकीय भंडारगृह में प्रति दिन 300 से अधिक लोग भोजन करते थे। होल्कर परिवार के सदस्य से लेकर निमंत्रित व्यक्ति और राजभवन में काम करने वाले सभी लोग उसी भोजनशाला में भोजन करते थे। भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम करके वह दोपहर ठीक 2 बजे दरबार में पहुंच जाती थीं। शाम के 6-7 बजे तक वहीं काम करती थीं और फिर दो घंटे ईश्वर का ध्यान करती थीं। उसके बाद थोड़ा फलाहार करके रात के 9 बजे फिर से दरबार में जाती थीं और रात 11 बजे तक काम करने के बाद ही सोने जाती थीं।
एक दिन एक कवि महाराज उनके पास पहुंचे। उन्होंने अहिल्याबाई की आज्ञा लेकर अपनी पोथी सुनानी शुरू की। उसमें अहिल्याबाई का महिमामंडन था। कुछ ही क्षण बाद राजमाता ने कवि को रोक कर पूछा-‘‘मेरे गुणगान के सिवा इस पोथी में और क्या है?’’
कवि बोला- ‘‘ माता, इसमें आदि से अंत तक आपकी महिमा का ही वर्णन है।’’
यह सुनते ही अहिल्याबाई बोलीं- ‘‘कविराज, मेरे बदले उस सर्वशक्तिमान भगवान के गुण-गौरव का वर्णन करते तो तुम्हारी लेखनी, परिश्रम और जीवन सार्थक हो जाता। जाओ, तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा और यह पोथी नर्मदाजी में बहा दी जाएगी।’’
अब बात अहिल्याबाई होल्कर के काल की। यह होल्कर राजवंश की रानी लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर का 300वां जयंती वर्ष है। मालवा को उसका ‘स्वर्ण काल’ देने वाली अहिल्याबाई का जीवन दर्शन बताता है कि शासन की बागडोर जिसके हाथ हो, उसके व्यक्तित्व में क्या-क्या विशेषताएं होनी चाहिए, उसकी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए, उसके लिए सार्वजनिक हित के आगे व्यक्तिगत हित कितना तुच्छ होना चाहिए, न्यायपूर्ण व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, शौर्य के साथ-साथ संस्कार को कितना आवश्यक समझना चाहिए, नारी शक्ति का कैसे सम्मान किया जाना चाहिए इत्यादि।
उनका शासनकाल एक उभरते सशक्त राष्ट्र का कालखंड था। महारानी अहिल्याबाई जैसी वीरांगनाओं की शौर्य गाथाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। उनका अद्वितीय व्यक्तित्व और कार्य उन्हें दुनिया की महानतम महिलाओं की सूची में शामिल करता है, जिन्होंने भारतीय इतिहास और जनमानस पर अमिट छाप छोड़ी है। दुनिया का सबसे बड़ा महिला संगठन ‘राष्ट्र सेविका समिति’ उन्हें कर्तव्यनिष्ठा और आदर्श का प्रतीक मानती है। उन्हें शांति और करुणा का प्रतीक माना गया है।
वह राज्य के छोटे से छोटे मामलों पर गंभीरता से विचार करती थीं और एक तपस्वी की तरह विलासिता से दूर रहते हुए मानवीय भावना के साथ प्रजा की सुख-समृद्धि और कल्याण के प्रति समर्पित थीं। यही कारण है कि अहिल्याबाई का नाम भारत के महान नारी रत्नों में सुनहरे अक्षरों में अंकित है। उनका राजकाज समावेशी सिद्धांत से पोषित था, जिसमें सभी समान रूप से मुख्यधारा का हिस्सा बनकर राष्ट्र के उत्थान में योगदान करने के लिए तत्पर रहते थे। हर व्यक्ति को महसूस होता था कि रानी उनके हित में काम कर रही हैं। स्वयं रानी प्रजा के विचार से अवगत रहती थीं और राज्य की व्यवस्था का आधार उन्हीं बिंदुओं से गढ़ा जाता था।
प्रजावत्सला अहिल्याबाई अपने उत्कृष्ट विचारों, निष्पक्ष न्याय व्यवस्था और उच्च नैतिक आचरण के बल पर ही समाज में लोकमाता के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। उनके कालखंड को गुजरे सदियां बीत चुकी हैं, लेकिन आज भी उसे सुशासन का प्रतीक माना जाता है तो इसका कारण यह है कि सुशासन के आधुनिक मानदंडों की कसौटी पर भी उनका राजकाज उतना ही खरा उतरता है।
कानून का राज तभी स्थापित होता है, जब कानून के सामने सब बराबर हों, न्यायपालिका स्वतंत्र हो और मानवाधिकारों का संरक्षण हो। इन मानकों पर अहिल्याबाई के राजकाज का कोई मुकाबला नहीं है। उनके न्याय का पलड़ा व्यक्ति का वजन देखकर नहीं झुकता था। उनके लिए सब बराबर थे और जब बात न्याय की आती थी, तो किसी के साथ कोई विशेष व्यवहार नहीं किया जाता था। सबको न्याय मिले, इसके लिए उन्होंने एक संस्थागत व्यवस्था बनाई थी।
न्यायालयों की शुरुआत : होल्कर राज्य में नियमबद्ध न्यायालयों की शुरुआत अहिल्याबाई के समय में ही हुई थी। उनके राज्य में लोगों को न्याय के लिए दर-दर नहीं भटकना पड़े, इसके लिए उन्होंने जगह-जगह न्यायालय बनवाए और उनमें योग्य न्यायाधीशों को नियुक्त किया। और तो और, गांवों को स्वशासन का महत्वपूर्ण अंग मानते हुए अहिल्याबाई ने पंचायतों को न्याय करने का अधिकार दिया और इसे ही अपने दायित्वों का इतिश्री नहीं माना। उन्होंने यह भी व्यवस्था की कि पंचायतें निरंकुश न हो जाएं। इसलिए ऐसी व्यवस्था की गई थी कि पूरी सूचना राज्य के उच्च अधिकारियों के पास पहुंचे। इसके बाद अहिल्याबाई के निर्देशन में उसकी समीक्षा की जाती थी। यदि किसी को न्यायालय के निर्णय पर आपत्ति होती थी, तो उसकी सुनवाई वह स्वयं किया करती थीं।
सेनापति को दंड: शासन संभालते ही अहिल्याबाई ने तुकोजीराव होल्कर को अपना सेनापति नियुक्त किया था। तुकोजी राजपरिवार के ही सदस्य थे और सूबेदार मल्हारराव के सहयोगी के रूप में भी वह काम कर चुके थे। तुकोजी आयु में कुछ बड़े थे, किंतु उन्होंने उम्र भर अहिल्याबाई को माता की तरह सम्मान दिया। अहिल्याबाई के राजकाज में तुकोजीराव के महत्व का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजमाता उनसे बिना सलाह किए कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लेती थीं।
राज्य के उत्तरी भाग की देखरेख अहिल्याबाई स्वयं करती थीं, जबकि तुकोजीराव पर सतपुड़ा के दक्षिणी भाग की जिम्मेदारी थी। तुकोजी जब भी कहीं बाहर जाते, तो दोनों क्षेत्रों का काम अहिल्याबाई स्वयं संभालती थीं। ऐसे महत्वपूर्ण और सत्ता में बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे तुकोजीराव ने जब एक बार एक निस्संतान विधवा का धन छीन लिया तो इसका पता चलते ही अहिल्याबाई ने तुकोजी को तत्काल उस विधवा का सारा धन लौटाने और उन्हें तत्काल उस गांव से चले जाने का निर्देश दिया।
पति की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने प्रजा की सेवा करने का संकल्प लिया। उन्होंने प्रजा की भलाई के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। वह प्रजा को अपनी संतान की तरह मानती थीं, इसी कारण उन्हें ‘लोकमाता’ की उपाधि मिली। अपने राज्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए-
- धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण : अहिल्याबाई होल्कर ने काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर, महाकालेश्वर मंदिर सहित कई धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण करवाया।
- महिलाओं की सेना का गठन : उन्होंने महिलाओं की एक सेना गठित की। उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण दिया और युद्ध की तकनीक सिखाई।
- समाज सुधार : अपने शासनकाल में अहिल्याबाई ने कई सामाजिक सुधार किए, जैसे किसानों का लगान कम करना और समाज के हर वर्ग की भलाई के लिए कार्य करना।
- धार्मिक स्वतंत्रता : उन्होंने अपने राज्य में धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया और विभिन्न मत-संप्रदायों के बीच सौहार्द बनाए रखा।
- प्रशासनिक दक्षता : अहिल्याबाई प्रशासनिक कार्यों में भी दक्ष थीं। उन्होंने खुद ही लगान वसूली, न्याय और प्रजा की समस्याओं का समाधान करना प्रारंभ किया।
- न्यायप्रिय रानी : वह एक न्यायप्रिय शासक थीं। अपने शासनकाल में उन्होंने किसी को अन्याय नहीं करने दिया। जिसने भी अन्याय किया, चाहे वह उनका निकट सहयोगी ही क्यों न रहा, उन्होंने उसे कड़ी सजा दी।
- मुक्ताबाई का विवाह : अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह वीर योद्धा यशवंतराव फडसे से करवाकर राज्य में शांति और सुरक्षा स्थापित की।
- दानशीलता : अहिल्याबाई ने अपने जीवन में अनेक दान कार्य किए। उन्होंने मंदिरों, धर्मशालाओं और अन्नछत्रों की स्थापना की, जहां गरीबों और जरूरतमंदों को सहायता मिलती थी।
- सामाजिक सुधार : राजमाता ने चोरों और डाकुओं को सही रास्ते पर लाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के प्रयास किए और उनका पुनर्वास किया।
- आर्थिक सुधार : कृषि, उद्योग और व्यापार को प्रोत्साहित किया, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई।
- महिला सशक्तिकरण : अहिल्याबाई ने महिलाओं के अधिकारों और सम्मान के लिए कई कदम उठाए, जिससे उन्हें महिला सशक्तिकरण का प्रतीक माना जाता है।
अभी के समय में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है। यह तरह-तरह से हमारी क्षमता, हमारी विकास योजनाओं को प्रभावित कर रहा है। भ्रष्टाचार की राह में सबसे बड़ी बाधा होती है पारदर्शिता। इसलिए जब भी सुशासन की बात आती है, पारदर्शिता का उपयोग थर्मामीटर की तरह किया जाता है। आम तौर पर भ्रष्टाचार वहां पसरने लगता है, जहां कर और व्यापार अनुमति व्यवस्था जटिल हो, नियमों की व्याख्या कई तरह से हो सके इसके लिए जगह-जगह छेद छोड़ दिए गए हों। अहिल्याबाई ने इसका एकदम सरल उपाय खोज रखा था। उन्होंने कर की दर न्यूनतम और व्यवस्था इतनी सरल बनाई थी कि किसी को भी झट समझ में आ जाए।
उनके शासनकाल में भूमि पर लगान बहुत कम था। किसानों से लगान के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का कर नहीं वसूला जाता था। फसल भरपूर होती थी और किसान सुखी थे। इसलिए उनके राज्य में अनाज की कोई कमी नहीं थी। अनाज भंडार भरे रहते थे। उनमें इतना अनाज होता था कि कभी कोई आपदा आ जाए तो उसका भी सामना किया जा सके। यह एक तरह से अहिल्याबाई की खाद्य सुरक्षा नीति का हिस्सा था। वैसे, उनके 30 वर्ष के शासन के दौरान राज्य में कोई सूखा नहीं पड़ा।
पारदर्शिता और व्यापार का सीधा संबंध होता है। यदि व्यवस्था पारदर्शी होगी, तो उद्योग-व्यापार सहज तरीके से बढ़ेगा। इसलिए व्यापार करने वालों के सामने तस्वीर बिल्कुल स्पष्ट होती है कि कितना निवेश करने पर उन्हें कितना लाभ मिल सकता है। चूंकि अहिल्याबाई के समय राज्य में शांति-व्यवस्था कायम थी, इसलिए बाहर से आने वाले व्यापारी भी निश्चिंत होकर राज्य में व्यापार किया करते थे। उस समय होल्कर राज्य का व्यापारिक संबंध दूर-दराज के राज्यों से था। व्यापारियों के लिए भी कर बहुत कम था और विभिन्न वस्तुओं पर कितना कर देना होगा, यह तय था। इसके साथ ही अहिल्याबाई का स्पष्ट निर्देश था कि करों की वसूली कठोरतापूर्वक न की जाए।
एक बार कुछ अधिकारियों ने उन्हें सलाह दी कि पड़ोसी राज्यों में अधिक कर लिया जाता है, इसलिए उन्हें भी कर की दर बढ़ा देनी चाहिए। लेकिन अहिल्याबाई का कहना था- ‘नहीं, कर और कम कर दिया जाए। प्रजा के उपयोग की वस्तुओं पर अधिक कर लगाना उचित नहीं।’ यह अहिल्याबाई की उदार और पारदर्शी कर नीति ही थी, जिसके कारण लोग ईमानदारी से अपने हिस्से के कर का भुगतान खुशी-खुशी किया करते थे। यही कारण था कि राज्य का खजाना सदैव भरा रहता था। 1818 से 1822 तक मालवा सहित मध्य भारत के सैन्य और राजनीतिक प्रशासक रहे स्कॉटलैंड मूल के जॉन मैल्कम ने अपने प्रसिद्ध संस्मरण – ‘ए मेमॉयर आफ सेंट्रल इंडिया इन्क्लूडिंग मालवा’ के पहले खंड में लिखा है- ‘‘यहां पाई-पाई का हिसाब रखा जाता है तथा नागरिक प्रशासन व सेना को भुगतान करने के बाद शेष राशि बाहर तैनात सेना को आकस्मिक जरूरतों के लिए भेज दिया जाता है।’’
जवाबदेही के बिना सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती। भ्रष्टाचार का दीमक पूरी व्यवस्था की जड़ों को खोखला कर देता है और उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है उत्तरदायित्वहीनता। जब किसी कमी, किसी गलती, किसी चूक या जान-बूझकर किए गए किसी कृत्य के लिए कोई जवाबदेह नहीं होगा, तो वैसे माहौल में सुशासन का दम घुटना तय है। इस मामले में भी अहिल्याबाई का काल अनुकरणीय है।
एक ओर ममतामयी तो दूसरी ओर जान-बूझकर अपराध करने वालों को दंड देने में कठोर। राजमाता कर्मचारियों पर बराबर नजर रखती थीं। उन्होंने अधिकार-संपन्न लोगों के लिए शक्ति का दुरुपयोग कर पाना अत्यंत कठिन कर दिया था। कर्मचारियों से लेकर बड़े-बड़े सूबेदारों तक को इस बात का अच्छी तरह अनुमान था कि नियम विरुद्ध काम करके उनका बचना कठिन है और राजमाता को पता चला तो सजा पाने से उन्हें कोई नहीं बचा सकेगा।
अहिल्याबाई के समक्ष एक बार मनमाना कर वसूली का एक मामला आया। इस पर उन्होंने पत्र लिखा- ‘‘चिंरजीव तुलाराव होल्कर को अहिल्याबाई का आशीर्वाद! आपने शेगांव परगने में प्रजा पर मनमाना जुल्म कर उनसे पैसा वसूल किया है। आपने प्रजा के मामलों के लिए महाल के अधिकारियों को क्यों तंग किया? अतएव, आपको लिखा जाता है कि आज तक प्रजा पर अन्याय कर मनमानी से जो रुपये आपने वसूले हैं, उनका खुलासा सरकार के सामने पेश करें और भविष्य में यदि आपने लेन-देन के मामले में किसी भी तरह का अन्याय किया तो आपका वह कार्य अक्षम्य माना जाएगा।’’
सरदार को भी छूट नहीं: सूबेदार मल्हारराव ने दक्षिण से अपने साथ आए सहयोगियों को अपने राज्य में जागीरें दे रखी थीं। उन्हें अपनी सेना रखने की छूट प्राप्त थी, लेकिन उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि आवश्यकता पड़ने पर वे अपनी सेना लेकर राज्य की सेवा करने को तत्पर रहेंगे। हालांकि उनके लिए बाकी सारे नियम-कानून वही थे, जो राज्य द्वारा निर्धारित किए गए थे। अहिल्याबाई ने शासन संभालने के बाद इस व्यवस्था को बनाए रखा। अहिल्याबाई ने यह सुनिश्चित किया कि इस स्वायत्तता का दुरुपयोग न हो, विशेष रूप से जनता को इससे कोई तकलीफ न हो। इसलिए वह सूबेदारों पर कड़ी नजर रखती थीं। एक बार महिदपुर के सरदार ने प्रजा से अन्यायपूर्ण तरीके से कर वसूल लिया। कुछ लोगों ने लोकमाता से इसकी शिकायत की तो उन्होंने सरदार को तुरंत दरबार में तलब किया। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अहिल्याबाई ने सरदार को दोषी पाया और उससे प्रजा के सारे पैसे वापस दिलवाए। उन्होंने सरदार को नियम-कानून के अनुसार चलने की चेतावनी दी। उसके बाद सरदार हमेशा के लिए सुधर गया।
किसी व्यवस्था को लेकर भरोसा तभी बनता है, जब उसे चलाने वाले अपने कार्य से जनता को आश्वस्त करें कि कुछ भी गलत होने की आशंका न्यूनतम है। अहिल्याबाई इस मामले में मिसाल थीं। राज्य की प्रजा ही नहीं, बाहर के लोग भी उन्हें सम्मान से देखते थे। उन्होंने अपनी कैसी छवि बनाई थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक बार ग्वालियर और होल्कर राज्यों के बीच एक भूखंड को लेकर विवाद हो गया। दोनों पक्ष उस भूखंड पर अपना अधिकार जता रहे थे। विवाद चलता रहा। अंत में दोनों पक्षों ने इसके समाधान के लिए पंच नियुक्त करने का निर्णय लिया।
ग्वालियर ने पंच के रूप में अहिल्याबाई के नाम का प्रस्ताव किया, जबकि होल्कर राज्य की शासक होने के नाते वह स्वयं इस मामले में पक्षकार थीं। अहिल्याबाई ने मामले की सुनवाई की और यह निर्णय सुनाया कि उस भूखंड को दोनों राज्य गोचर भूमि के रूप में स्वीकार करें और दोनों में से कोई भी लगान न ले। अहिल्याबाई के निर्णय के अनुसार ही दोनों राज्यों ने उस विशाल भूखंड को गोचर के लिए छोड़ दिया।
किसी भी शासन व्यवस्था का मूल उद्देश्य आम लोगों के जीवन को आसान और सुविधापूर्ण बनाना होता है। इसके लिए व्यवस्था का मानवीय होना जरूरी है। इस मामले में भी अहिल्याबाई का शासनकाल सफल था। कर्मचारियों से लेकर आम लोग तक उनसे इतने घुले-मिले हुए थे कि उनके सामने दिल खोलकर अपनी बात करते थे। अपने मातहत कर्मचारियों से लेकर आमजन तक से उनका ऐसा संबंध था कि वे नि:संकोच अपनी बात उनसे साझा करते थे।
एक बार नागलवाड़ी के कमाविसदार (न्याय संबंधी बातों पर विचार करने वाला) ने अहिल्याबाई को लिखे पत्र में प्रशासन संबंधी जानकारी देने के बाद लिखा- ‘इन दिनों मेरे पेट में बड़ा दर्द रहता है।’ इस पर बाई ने तत्काल उसके उपचार की व्यवस्था कराई। एक बार एक अन्य कर्मचारी ने लिखा- ‘मेरी मां बहुत बीमार है, घर की बड़ी दुर्दशा है।’ पत्र पढ़ने के बाद अहिल्याबाई स्वयं उसके घर गईं। उसका हाल जाना और आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की। अहिल्याबाई ने एक नियम बना रखा था। वह बीमार, आम लोगों और अपने कर्मचारियों का हाल जानने उसके घर जाती थीं। इस तरह के आत्मीय संबंध के कारण कर्मचारी से लेकर आम लोग तक उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे।
अभिनव प्रयोग : एक समय था, जब राज्य की सेनाएं विभिन्न मोर्चों पर तैनात थीं। राज्य में चोर-डाकुओं ने इसका फायदा उठाया। राज्य में उनका भय व्याप्त हो गया था। विशेषकर निमाड़ में भीलों का भय व्याप्त था। भीलों ने यात्रियों पर ‘भील कौड़ी’ नाम का कर लगा दिया था। जो भी व्यापारी सामान लेकर जाता था, उससे यह कर वसूला जाता था।
यह बात जब अहिल्याबाई तक पहुंची तो उन्होंने भीलों के मुखिया को बुलाकर समझाया, लेकिन रानी की स्नेहपूर्ण बातों को मुखिया ने गंभीरता से नहीं लिया और पहले की तरह व्यापारियों से कर वसूलता रहा।
लिहाजा, रानी ने सेना भेजकर उस भील मुखिया और उसके साथियों को बुलवाया और उन्हें कारावास में डाल दिया। बाद में क्षमा मांगने पर उन्होंने सबको छोड़ दिया, लेकिन यह शर्त रखी कि यदि उनके क्षेत्र में किसी भी यात्री के साथ कोई अप्रिय घटना हुई तो घटनास्थल के आसपास रहने वाले भीलों को ही इसका परिणाम भुगतना होगा। इसके बाद उस क्षेत्र में जब भी किसी यात्री के साथ लूटपाट होती थी, तो उसकी क्षतिपूर्ति घटनास्थल के आसपास रहने वाले भीलों से वसूली जाती। नतीजा, न केवल लूटपाट बंद हो गया, बल्कि भील अपने क्षेत्र से गुजरने वाले यात्रियों-व्यापारियों की सुरक्षा भी करने लगे।
अहिल्याबाई इस बात को अच्छी तरह जानती थीं कि अगर प्रजा से उन्हें किसी विशेष तरह के व्यवहार और कर्तव्यों के निर्वहन की अपेक्षा है, तो उन्हें अपने जीवन से उनके सामने आदर्श प्रस्तुत करने होंगे। वह सत्ता को एक दायित्व की तरह लेती थीं। वह कहती थीं, ‘‘ईश्वर ने मुझे जो दायित्व दिया है, उसे मुझे निभाना है। मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है। मैं अपने प्रत्येक काम के लिए जिम्मेदार हूं। सामर्थ्य और सत्ता के बल पर मैं यहां जो कुछ भी कर रही हूं, उसका ईश्वर के यहां मुझे जवाब देना पड़ेगा।’’ अहिल्याबाई के लिए शासन भोग न होकर एक महान योग, श्रेष्ठ साधना और गंभीर दायित्वों से भरा अत्यंत महत्वपूर्ण कर्तव्य था।
एक बार एक विधवा ने अहिल्याबाई के दरबार में अर्जी लगाई। इसमें उसने लिखा था- ‘‘मेरे पास बहुत धन है। लेकिन निस्संतान हूं। मेरे धन का उपयोग करने और वंश चलाने के लिए मुझे किसी को गोद लेने की आज्ञा देने की कृपा करें।’’
जब यह अर्जी अहिल्याबाई के पास पहुंची, तब वहां उपस्थित एक अधिकारी ने कहा- ‘‘यह स्त्री किसी को भी गोद ले, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वह राज्य को कितना धन भेंट करेगी।’’
बाकी अधिकारियों ने भी उसकी बात का समर्थन किया। सबकी बात सुनने के बाद राजमाता ने कहा, ‘‘गोद लेने की आज्ञा देने की बात तो समझ में आ रही है, किंतु उससे भेंट लेने की बात मेरी समझ में नहीं आई। उससे भेंट क्यों और किस बात की लेनी चाहिए? सारा धन कमाया उसके पति ने और वह निस्संतान मर गया। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार किसी को गोद लेने का अधिकार उसकी पत्नी को है। पर हम राजपाट करने वाले कहते हैं कि तुम किसी को गोद कैसे ले सकती हो? यह कार्य धर्मशास्त्रों के सर्वथा विरुद्ध है। अब हम यदि उससे धन लेकर आज्ञा देंगे तो वह धर्म-विरुद्ध कहलाएगा। यह उचित नहीं है। अत: उस स्त्री से एक पैसा भी न लिया जाए। हमारी ओर से इस अर्जी पर यही लिखा जाए कि तुम दत्तक ले रही हो, यह जानकर हमें बड़ा संतोष हुआ। तुम्हारे घराने की जो कीर्ति चली आ रही है, उसे और बढ़ाओ। इसी में हमें संतोष और सुख होगा। तुम्हारे धन की तुम ही मालिक हो। इसका पूरा उपभोग तुम ही करो। राज्य को तुम्हारे धन में से कुछ नहीं चाहिए।’’
अहिल्याबाई धर्म-विरुद्ध बातों को बिल्कुल सहन नहीं करती थीं। उनके सामने कोई अनीति की बात भी नहीं कर सकता था। यदि कभी किसी ने ऐसा करने की प्रयास किया तो वह इस बात का ध्यान नहीं रखती थीं कि वह कौन है और उससे उनके व्यक्तिगत संबंध कितने पुराने और कितने मधुर हैं।
महादजी सिंधिया का वह बहुत सम्मान करती थीं। एक बार महादजी महेश्वर आए और महारानी के आतिथ्य में पूरे तीन महीने बिताए। महादजी कथित तौर पर चाहते थे कि मालवा क्षेत्र के सभी राजा अपनी सेनाएं त्याग दें और सिंधिया की सेना के अधीन रहें। इसी बात पर अहिल्याबाई को राजी करने के लिए वह महेश्वर आए थे, लेकिन अपनी बात अहिल्याबाई से कह नहीं पा रहे थे। अंतत: एक दिन उन्होंने मन की बात अहिल्याबाई से कह दी। महादजी को जिस बात की आशंका थी, वह सच सिद्ध हुई। अहिल्याबाई ने स्पष्ट शब्दों में उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर महादजी ताव खा गए। उन्होंने कहा, ‘‘बाई साहब, यह समझ लो कि हम पुरुष हैं। हमने यदि मन में ठान लिया तो आप पर क्या बीतेगी, यह भी जरा सोच लो!’’
यह सुनते ही अहिल्याबाई ने क्रोधित होकर कहा, ‘‘जैसे आप अपने घर की स्त्रियों को सुपारी के टुकड़े के समान मुंह में डालकर गटक जाते हैं, वही सलाह तुकोजी होल्कर को देकर आप फौज लेकर आएं। जिस दिन इंदौर के लिए आपकी फौज कूच करेगी, उसी दिन हाथी के पांव की सांकल से आपको बांधकर आपका स्वागत करूं, तभी मैं मल्हारजी होल्कर की बहू कहलाऊं! आपके मन में जो गुबार था, वो आपने निकाल दिया। अब इस बात में जो चूको तो आपको मार्तण्ड की सौगंध है!’’
(एनबीटी से 1981 में प्रकाशित ‘अहिल्याबाई’ से उद्धृत)
कोई भी राज्य तभी समृद्ध हो सकता है, जब सीमाएं सुरक्षित हों। राज्य की सीमाओं की सुरक्षा करने वाली सेना पर अहिल्याबाई विशेष ध्यान देती थीं और उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में धन-संसाधन की कोई कमी नहीं होने देती थीं। चंद्रावतों के साथ हुए युद्ध के बाद अहिल्याबाई के शासनकाल में पूरी तरह शांति रही। यह जब भी कोई युद्ध हुआ तो वह होल्कर राज्य की सीमाओं के बाहर हुआ और इन युद्धों मे तुकोजी हमेशा विजयी हुए। उनकी जीत का कारण यह रहा कि रणनीति के स्तर पर अहिल्याबाई इसमें सक्रिय भूमिका निभाती थीं और उनकी युद्धनीति कारगर होती थी।
एक बार जयपुर के राजा से कर की रकम लेने के लिए तुकोजीराव सेना सहित गए थे। लेकिन रास्ते में सिंधिया की सेना ने उन पर हमला कर दिया। तुकोजी ने यह संदेश अहिल्याबाई को भेजकर उनसे धन और सैनिक भेजने का अनुरोध किया। हमले की बात सुनकर अहिल्याबाई ने तत्काल पांच लाख रुपये के साथ 1800 सैनिकों को रवाना कर दिया। साथ ही, तुकोजी को पत्र भेजा-‘‘घबराना नहीं। उन्हें हराकर ही चैन लेना। रुपये और सेना का पुल बांध दूंगी। और यदि वृद्धावस्था के कारण तुम्हें कोई कठिनाई हो तो मुझे लिख भेजो। मैं स्वयं युद्ध के मैदान में पहुंच जाऊंगी।’’ अहिल्याबाई एक कुशल योद्धा भी थीं। मल्हारराव के निर्देशन में दीक्षित अहिल्याबाई ने कई युद्धों में भाग लिया। पुरुषों की तरह घोड़े पर सवार होकर उन्होंने युद्ध में अपना शस्त्र कौशल भी दिखाया।
जनता पर स्नेह बरसाने वाली लोकमाता का सैनिकों पर स्वाभाविक ही कहीं अधिक ध्यान रहता था। युद्ध सामग्री से उनका भंडार हमेशा भरा रहता। सैनिकों की जरूरतों के अतिरिक्त युद्ध में बलिदान होने वाले सैनिकों के परिवार का सारा खर्च भी उनकी सरकार वहन करती थी। इसके अतिरिक्त अहिल्याबाई सैनिकों के परिवारों से मिलकर उनका हालचाल लेती रहती थीं। इससे सैनिकों का हौसला सातवें आसमान पर रहता था और वे होल्कर राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए जान की बाजी तक लगा देते थे।
अहिल्याबाई को इस का सटीक अनुमान था कि अपनी राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें कितने सैनिकों की जरूरत है। इसलिए वह सेना का आकार बहुत नहीं बढ़ाती थीं। भले ही उनकी सेना छोटी थी, लेकिन युद्ध विद्या में पूरी तरह पारंगत थी। 1772 में जीपी कर्नल बाइड नामक एक अमेरिकी की देखरेख में उन्होंने पाश्चात्य शैली की सेना गठित की थी। वह युद्ध को अंतिम विकल्प मानती थीं। उनकी पूरी कोशिश होती थी कि युद्ध को टाला जाए, लेकिन जब सारी कोशिशें विफल हो जाती थीं, तब वह आक्रामक तरीके से युद्ध लड़ती थीं।
राजमाता अहिल्याबाई का कालखंड सुशासन की दृष्टि से आदर्श था, क्योंकि उस दौरान उन सभी कारकों पर ध्यान दिया गया था जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सुशासन में योगदान कर सकते थे। उनकी शासन नीति आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि उसमें आज की समस्याओं का समाधान दिखता है।
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