भारत ने हॉकी में लगातार दूसरे ओलंपिक में पदक जीतकर इतिहास रच दिया है। भारतीय हॉकी टीम ने 2020 के टोक्यो ओलंपिक में कांस्य पदक जीता था और इस बार भी कांस्य जीतकर कप्तान हरमनप्रीत सिंह की टीम ने पेरिस में भारत का झंडा बुलंद कर दिया है। भारत के लिए पेरिस ओलंपिक में मिली यह जीत इसीलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत को 1980 के मॉस्को ओलंपिक के बाद से अभी तक केवल दो बार ही ओलंपिक में पदक जीतने का मौका मिला है। टोक्यो ओलंपिक में भारत की पुरुष हॉकी टीम ने मनप्रीत सिंह की अगुवाई में 41 वर्षों का सूखा खत्म कर भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा था। तब भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने जर्मनी को 5-4 से हराकर कांस्य पदक अपने नाम किया था। भारत ने 1980 में मॉस्को ओलंपिक में स्वर्ण जीता था और इस बार भी हॉकी टीम की कोशिश पदक का रंग बदलकर ‘गोल्ड’ करने की थी। हालांकि ऐसा भले ही नहीं हो सका लेकिन भारतीय टीम ने ग्रुप स्टेज से लेकर आखिरी मुकाबले तक पेरिस ओलंपिक में जैसा प्रदर्शन किया, हॉकी टीम का वह सफर बेहद शानदार रहा और टीम 2020 के बाद स्पेन को 2-1 से हराकर एक बार फिर कांस्य पदक को बरकरार रखने में सफल हुई। सेमीफाइनल में भारत को जर्मनी के हाथों 3-2 से हार का सामना करना पड़ा था। भारत के लिए हॉकी में लगातार दो बार मिली यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि 1972 के बाद भारत ओलंपिक में लगातार दो ओलंपिक में पदक जीतने में सफल हो सका था।
पेरिस ओलंपिक में तिली जीत के साथ ही भारत को ओलंपिक में अभी तक हॉकी में मिले कुल पदकों की संख्या 13 हो गई है। अभी तक के ओलंपिक इतिहास में भारत को जिस खेल में सबसे ज्यादा सफलता मिली है, वह हॉकी ही है। हॉकी में भारत को 8 स्वर्ण, 1 रजत और 4 कांस्य पदक शामिल मिले हैं। भारत के लिए हॉकी में स्वर्णिम युग की शुरुआत 1928 में एम्स्टर्डम ओलंपिक में तब हुई थी, जब मेजर ध्यानचंद के नेतृत्व में भारतीय हॉकी टीम ने एक के बाद एक लगातार 29 गोल किए थे और बगैर एक भी गोल खाए ओलंपिक में पहला स्वर्ण पदक जीता था। उसके बाद भारत ने कुल 8 ओलंपिक में स्वर्ण पदक, एक में रजत और दो में कांस्य पदक जीतकर पूरी दुनिया को अपना दमखम दिखाया लेकिन 1980 के बाद से 2016 तक किसी भी ओलंपिक में भारत कोई भी पदक जीतने में सफल नहीं हुआ था। 41 साल बाद के सूखे को हॉकी टीम ने 2021 में हुए टोक्यो ओलंपिक में खत्म किया।
भारत के लिए ओलंपिक में कांस्य पदक मिलना भी इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि कभी ओलंपिक खेलों में हॉकी का सिरमौर रहा भारत 2020 में 41 वर्षों बाद ओलंपिक में जीत का स्वाद चखने में सफल हुआ था और उसके बाद इस बार भी पदक जीतकर भारतीय हॉकी के भविष्य से निराश हो चुके देश के युवाओं में इस जीत ने जो नई आशा जगाई है, उसे देखते हुए ही पेरिस ओलंपिक में मिले कांस्य पदक को भी स्वर्ण से कम नहीं समझना चाहिए। दरअसल पुरूष हॉकी टीम भले ही कांस्य ही जीत सकी, फिर भी यदि ओलंपिक में भारत के इस प्रदर्शन को गौरवान्वित करने वाला माना रहा है तो इसका कारण बिल्कुल स्पष्ट है। दरअसल हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में हमारा गौरव कहीं खो गया था, जो 2021 में 41 वर्षों के बेहद लंबे अंतराल के बाद पुनः हासिल करने का अवसर मिला था और इसे इस बार भी हमारी हॉकी टीम ने बरकरार रखा। 1980 के मॉस्को ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद भारतीय टीम ओलंपिक में कभी भी पांचवें स्थान से ऊपर नहीं जा सकी थी। कभी उसे 7वें तो कभी 8वें और 12वें स्थान से भी संतोष करना पड़ा और 2008 में तो वह ओलंपिक के लिए क्वालीफाई तक नहीं कर सकी थी।
एक समय था, जब हमारी हॉकी टीम विश्व चैंपियन थी लेकिन बहुत लंबे अरसे तक भारत अपने इसी खेल में एक पदक पाने के लिए भी तरसता रहा। यह एक दिवास्वप्न जैसा ही लगता है कि भारत ने हर चार वर्ष के अंतराल पर होने वाले ओलंपिक खेलों में 1928 से लेकर 1956 तक लगातार छह बार स्वर्ण पदक जीते थे। 1928, 1932, 1936, 1948, 1952, 1956, 1964 और 1980 में स्वर्ण, 1960 में रजत और 1968, 1972, 2020 तथा 2024 के पेरिस ओलंपिक में कांस्य पदक हॉकी टीम ने जीते हैं। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक से भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग की शुरुआत हुई थी, जब मेजर ध्यानचंद की कप्तानी में टीम ने पांच मैचों में बिना एक भी गोल खाए ओलंपिक में पहला स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा था। ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा 14 गोल दागे थे। 1932 के लॉस एंजिल्स और 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भी ध्यानचंद के ही नेतृत्व में भारत स्वर्ण पदक जीतने में सफल हुआ। 1932 के ओलंपिक में ध्यानचंद ने 12 और 1936 के अपने आखिरी ओलंपिक में 13 गोल दागे थे। इस प्रकार तीन ओलंपिक में उन्होंने कुल 39 गोल किए थे। उसी के बाद से ही मेजर ध्यानचंद को ‘हॉकी का जादूगर’ कहा जाने लगा था। दरअसल उनके बारे में माना जाने लगा था कि गेंद उनकी हॉकी स्टिक से ऐसी चिपक जाती थी, जैसे उस पर गोंद लगा हो। मेजर ध्यानचंद को तो आज तक ‘हाकी का पर्याय’ माना जाता है, जिनके बनाए कुछ रिकार्ड को तोड़ पाना तो आज भी बेहद मुश्किल काम माना जाता है।
1948 के ओलंपिक में बलबीर सिंह सीनियर के नेतृत्व में भारत ने फिर स्वर्ण पदक जीता और स्वर्णिम जीत का यह सिलसिला 1952 तथा 1956 के ओलंपिक में भी बरकरार रहा। 1960 के रोम ओलंपिक में भारत को रजत से ही संतोष करना पड़ा लेकिन 1964 के टोक्यो ओलंपिक में अपने 7वें स्वर्ण पदक के साथ भारतीय टीम हॉकी के शिखर पर पहुंच गई। 1968 के मेक्सिको ओलंपिक में भारत को पहली बार कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा और उसके बाद 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में भी कांस्य ही मिल सका। 1976 के मॉन्ट्रियल ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का सबसे खराब प्रदर्शन रहा, वह 7वें स्थान पर रही। 1980 के मॉस्को ओलंपिक में भारत को 16 वर्ष बाद स्वर्ण पदक मिला। उस ओलंपिक में सुरिंदर सिंह सोढ़ी ने कुल 15 गोल दागकर मेजर ध्यानचंद के सर्वाधिक गोल के रिकॉर्ड को तोड़ दिया था। यह अब तक किसी भारतीय हॉकी खिलाड़ी द्वारा एक ओलंपिक में किए गए सर्वाधिक गोल का रिकॉर्ड है।
इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत ने ओलंपिक खेलों में सर्वाधिक पदक पुरुष हॉकी में ही जीते हैं लेकिन 1980 के बाद से भारत ओलंपिक में हॉकी में जीत के लिए तरस रहा था। ऐसे में इस सवाल की पड़ताल जरूरी है कि जो भारत दशकों तक हॉकी चैम्पियन रहा, उसकी अपने इसी राष्ट्रीय खेल में इतनी दुर्गति क्यों हुई? हॉकी भारत की मिट्टी का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल रहा है, जो गांवों से लेकर शहरों तक अपने-अपने ढ़ंग से खेला जाता है लेकिन जिस हॉकी की बदौलत भारत बड़ी शान से हर ओलंपिक में भागीदारी करता था, आखिर क्या कारण रहे कि उसी हॉकी में पदक जीतना तो दूर की बात, भारत को सेमीफाइनल में प्रवेश के लिए भी चार दशक लंबा इंतजार करना पड़ा था। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही रहा कि जिन लोगों ने स्वयं कभी हॉकी में बड़ा कमाल नहीं किया, बरसों तक उन्हीं के हाथों में भारतीय हॉकी की कमान रही। खिलाड़ियों के चयन के मामले में भाई-भतीजावाद की बात हो या भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी अथवा नीतियों के निर्धारण की, भारतीय हॉकी संघ पर काबिज ऐसे ही मठाधीशों ने हॉकी का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत में क्रिकेट की चकाचौंध ने भी हॉकी जैसे परम्परागत खेलों को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा यूरोपीय देशों ने खेल मैदानों से लेकर नियमों तक में अपने अनुकूल जिस प्रकार के परिवर्तन समय-समय पर किए हैं, उनके कारण भी भारतीय हाकी ढ़लान पर आई।
बहरहाल, हॉकी में बरसों बाद लगातार दो ओलंपिक में मिली जीत के पश्चात् देश में हॉकी के पुनरुत्थान की आस जगी है और निश्चित रूप से यह देश में हॉकी के बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाता है। ऐसे में जीत के इस उत्साह को बरकरार रखते हुए जरूरत अब इस बात की है कि देश में हॉकी तथा अन्य खेलों को भी किसी बड़े टूर्नामेंट के लिए खेलने या किसी एक सीजन का खेल मानकर चलने की सोच तक सीमित रखने के बजाय मौजूदा खेल ढ़ांचे की खामियों को दूर करते हुए इन्हें समाज का अटूट अंग बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की मेहनती युवा प्रतिभाओं को इस हद तक निखारने पर ध्यान केन्द्रित होना जाए ताकि विभिन्न खेलों में विभिन्न स्पर्धाओं में भारत पूरे दम-खम के साथ सीधे स्वर्ण पर निशाना लगाने में सक्षम बन सके। हमारे यहां समाज की ऐसी मानसिकता है कि किसी भी स्पर्धा में खिलाड़ियों या टीम के हार जाने पर उन पर काफी नकारात्मक टिप्पणियां की जाती हैं। इससे ऐसे खिलाड़ियों या टीम के मनोबल पर बुरा असर पड़ता है। इसलिए खिलाड़ियों के मनोबल को बनाए रखने के लिए इस मानसिकता में बदलाव की भी सख्त दरकार है।
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