संतान क्या हमारे लिए मात्र अपने बुढ़ापे का सहारा है? विवाह का मूल अर्थ संतान उत्पन्न करना ही है, यह बात पूर्णत: सत्य है। परंतु संतान की चाहत किसलिए होगी? क्या बुढ़ापा सुरक्षित करने के लिए संतान की इच्छा की जाती थी? तब चार आश्रम थे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। संतान की चाह इसलिए की जाती थी कि जिससे कुल का नाम आगे बढ़े, वंश आगे बढ़े और सबसे बढ़कर जो संस्कृति है, जो विरासत है वह आगे बढ़ती रहे।
मगर आज हमारे पास कोई विरासत नहीं है, कोई संस्कृति नहीं है। पारिवारिक रस्में शेष नहीं हैं, मात्र अपना भौतिक स्वार्थ शेष है और वही संतान को पैदा करने का कारण बनता है।
बुढ़ापे को सुरक्षित रखने के लिए कब से पुत्र की चाह होने लगी। बेटे को एटीएम की तरह देखते माताओं का सीना नहीं फटता? यह बेटे का कर्तव्य है कि वह माता-पिता की सेवा आवश्यकतानुसार करे, परंतु माता-पिता यह सोचकर पुत्र को जन्म दें कि वह उनकी सेवा करेगा, उन पर अपना धन व्यय करेगा? मैं संतान के धर्म पर प्रश्न नहीं उठा रही, मैं माता-पिता की मंशा पर प्रश्न उठा रही हूं। क्या हमारे दिमाग में पुत्र मात्र एक भौतिक निवेश है? हमें संतान क्यों चाहिए? हमें पुत्र क्यों चाहिए? हमारा प्रेम पुत्र के लिए मात्र इसलिए है कि हम उसे जीते जी और भगवान न करे, उसका देहांत हमारे रहते हो जाए तो उसके शव को एटीएम की
तरह देखें।
फिर क्यों न आजकल मातृत्व की परिभाषा यही कर देनी चाहिए कि चूंकि हम बेटे पर इतना पैसा लगा रहे हैं, इसलिए बेटे से हमें इतना पैसा वापस चाहिए। पिता अपने पुत्र को इसलिए पढ़ाई करा रहा है कि वह उसे सूद समेत वापस करेगा? यही परिभाषा रह गई है माता-पिता के प्रेम की?
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क्या कोई महिला इतनी निष्ठुर हो सकती है कि अपने पुत्र के निधन के उपरांत यह कह सके कि बेटे के न रहने पर जो पैसा सरकार से मिला, वह बहू ले गई? हद है। मैं पुत्र के प्रति इस निर्मम वक्तव्य की गहराई समझने मे विफल रहने पर कम से कम तीन चार बार रो चुकी हूं।
बेटों को कितना सीमित कर दिया है यार हमने? कोई भी इस प्रश्न का बहुत सहज उत्तर नहीं दे रहा कि क्या कोई मां अपने बेटे के असमय निधन के उपरांत अपनी निजी आवश्यकता के लिए उसके निधन की एवज में मिलने वाली क्षतिपूर्ति का धन प्रयोग कर सकती है?
यह बहुत सहज प्रश्न है, एक मां से पूछकर देखिए! एक मां जिसने अपने पुत्र से निस्वार्थ प्रेम किया होगा, वह सब कुछ कर सकती है, मगर बेटे के न रहने पर यह नहीं कह सकती कि ‘पैसा सब बहू लेकर भाग गई!’
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