पश्चिम में पुनर्जागरण के बाद जो ज्ञान- विज्ञान और प्रौद्योगिकी की परंपरा शुरू हुई, वह भारत में हज़ारों वर्षों से चली आ रही है। प्राचीन काल से ही भारत के पास विज्ञान और प्रौद्योगिकी की एक महान विरासत है, जिसे आज युवा पीढ़ी तक पहुंचाने की जरूरत है।
भारतीय खगोल विज्ञान की इसी प्राचीनतम और चैतन्य परंपरा के एक विस्मृत सितारे का नाम है “वेंकटेश बापूजी केतकर”। बापूजी आर्यभट, वराहमिहिर और माधव की सिद्धांत परंपरा के एक महान खगोलशास्त्री हैं। उन्होंने अमेरिकी एस्ट्रोनॉमर क्लाइड टॉमबाग से 19 वर्ष पूर्व, 1911 में अपनी गणनाओं द्वारा नौवें ग्रह, प्लूटो के अस्तित्व को सिद्ध कर दिया था।
1854 में जन्मे इस ज्योतिर्विद ने अपना संपूर्ण जीवन भारतीय पंचांग प्रणाली के अनुसंधान और शुद्धीकरण के लिए समर्पित कर दिया। बापूजी ने कम आयु में ही व्याकरण, वेदान्त और खगोलशास्त्र में दक्षता हासिल कर ली थी। उन्होंने खगोल विज्ञान और पंचांग पर कई पुस्तकें लिखीं और यूरोपियन वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कई शोध पत्र भी प्रकाशित करवाये। बहुभाषी और पेशे से शिक्षक होने के अलावा, वी.बी. केतकर को अवलोकन संबंधी खगोल विज्ञान, गणित, साहित्य, चित्रकला-मूर्तिकला और संगीत में भी गहरी रुचि थी।
1868 में पूर्ण सूर्यग्रहण को देख केतकर के मन में खगोल विज्ञान के लिए विशेष रुचि जागृत हुई। सीमित शैक्षिक संसाधनों के बावजूद उन्होंने गणित का स्व अध्ययन किया, अमेरिकी गणितज्ञ सैमिन न्यूकॉम्ब से मार्गदर्शन लिया और विभिन्न गणितीय क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त की। केतकर के व्यापक अध्ययन ने उन्हें पारंपरिक खगोलीय अनुमानो में विसंगतियों की पहचान करने में मदद की। जिसके फलस्वरूप उन्होंने एक संशोधित पंचांग, “केतकी पंचांग” प्रकाशित किया।
1909 में विलियम पिकिंग और 1915 में पर्सिवल लोवेल ने नौवें ग्रह के अस्तित्व के बारे में अनुमान लगाया। उसी समयावधि में केतकर ने 1911 में फ़्रांस की एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के बुलेटिन में एक अंक प्रकाशित किया, जिसके अनुसार नेपच्यून की कक्षा के बाहर दो और ग्रह होने चाहिए। लेकिन भारत ने उन्हें भुला दिया, या शायद हमारी परतंत्र मानसिकता ने। फरवरी 1930 में पैरालिटिक स्ट्रोक के कारण उनकी मृत्यु हो गई। आज प्लूटो की खोज का श्रेय क्लाइड को दिया जाता है और कहा जाता है कि क्लाइड ने अपने शोध में केवल पश्चिमी पूर्ववर्तियों का ही प्रयोग किया और उन्हें अपने समसायिक खगोलविद् बापूजी के कार्य की जानकारी नहीं। आज पर्सिवल लोवेल और हेनरी पिकरिंग की गणनाओं को सम्मानित किया जाता है पर बापूजी की गणनाओं को नहीं। लेकिन, बापूजी का कार्य पश्चिम में प्रकाशित हुआ था।
पश्चिम की औपनिवेशीकृत मानसिकता ने ना केवल भारत के सांस्कृतिक वैभव और अर्थव्यवस्था को ध्वस्त किया अपितु वैज्ञानिक वैभव को भी चोरी किया। विज्ञान के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के बावजूद, उनके बारे में कुछ आत्मकथाओं को छोड़कर बहुत कुछ नहीं लिखा गया। नमन है उनको, जिन्होंने एक और पीढ़ी के लिए लुप्त हो रही वैदिक वैज्ञानिक परंपरा को बनाये रखा।
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