आपातकाल। एक ऐसा दौर, जब शासन का अहंकार जनमानस पर कहर बनकर टूटा। उन यातनाओं के बारे में सोचकर आज भी सिहरन होती है। 21 महीने के उस कालखंड में निरंकुश शासन ने प्रत्यक्ष रूप से जो किया, उसे न तो भूला जा सकता है और न ही भूलना चाहिए। उस दौर का झरोखा खोलने वाले कुछ प्रश्न, कुछ स्मृतियों के सूत्र भी हैं। क्या आप न्यायमूर्ति ए.एन. रे के बारे में जानते हैं? न्यायमूर्ति बेग के बारे में जानते हैं? अडनीर ट्रस्ट मामला क्या था? 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कैसे किया गया? या देशी राजाओं के प्रिवी पर्स कैसे खत्म किए गए? या यह कि ये सब सूत्र घटनाक्रम के रूप में आपस में कैसे जुड़े थे।
अगर आपको यह नहीं पता, तो आप संभवत: इस बात से भी अनभिज्ञ होंगे कि आपकी स्वतंत्रता कितनी कीमती है। उस पर किन लोगों की निगाह है? किन लोगों ने उस पर कुठाराघात किया और इसे बचाने की लड़ाई किस-किसने लड़ी?
पहले आपातकाल की बात। आपातकाल भले ही 25 जून, 1975 को लगाया गया था, लेकिन इसकी तैयारी पहले से थी। इसके पीछे कारण था पारिवारिक राजनीति, जो दंभ पैदा करती है, क्योंकि इंदिरा गांधी ने अपने पिता जवाहर लाल नेहरू को शासन करते हुए देखा था और उन्हें लगता था कि शासन ऐसे ही किया जाता है। वह दंभ, प्रतिबद्ध तंत्र और तानाशाही की प्रवृत्ति, इन तीनों ने आपातकाल की नींव रखी थी।
1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी 352 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी थीं। लेकिन उनके मन में सर्वोच्च न्यायालय को ‘ठिकाने’ लगाने का प्रबल संकल्प हिलोरें ले रहा था, क्योंकि वह उनकी तानाशाही में लगातार अवरोधक बना हुआ था। 11 जनवरी, 1966 को लालबहादुर शास्त्री के निधन के एक सप्ताह बाद वे प्रधानमंत्री बनीं। 1967 में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया, जिसमें कहा गया कि संसद कोई भी मौलिक अधिकार छीन या उसमें कटौती नहीं कर सकती। नीति निर्देशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता। दरअसल, पंजाब के जालंधर में हेनरी और विलियम गोलकनाथ परिवार के पास 500 एकड़ से अधिक कृषि भूमि थी, जिसे ‘अतिरिक्त’ बताते हुए पंजाब सुरक्षा और भूमि काश्तकारी अधिनियम-1953 के तहत सरकार ने छीन लिया था।
इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय खटक रहा था। इसलिए जब दूसरी बार वे सत्ता में आईं, तो उन्होंने 24वां और 25वां संविधान संशोधन कर उस पर प्रतिक्रिया दी। 24वें संविधान संशोधन में उन्होंंने यह व्यवस्था की कि संसद के पास संविधान संशोधन अधिनियमों को लागू कर किसी भी मौलिक अधिकार को कम करने या छीनने की शक्ति है। इसी तरह, 25वें संशोधन में उन्होंने संविधान में एक नया अनुच्छेद 31सी जोड़ा, जिससे लोगों के लिए संपत्ति की खरीद को नियंत्रित करने वाले कानूनों को चुनौती देना असंभव हो गया। साथ ही, ‘मुआवजा’ शब्द की ‘पर्याप्त मुआवजा’ के रूप में न्यायिक व्याख्या को देखते हुए उसे ‘रकम’ कर दिया।
इससे पहले, इंदिरा सरकार ने 19 जुलाई, 1969 को ‘बैंकिंग कंपनीज आर्डिनेंस’ नाम से एक अध्यादेश जारी कर देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इस अध्यादेश का प्रारूप 24 घंटे में तैयार किया गया था। उस समय बैंकिंग डिवीजन का प्रभार डी.एन. घोष के पास था। 17 जुलाई को उनके पास एक फोन आया और उनसे रातोंरात अध्यादेश का प्रारूप तैयार करने को कहा गया। दो दिन बाद यानी 19 जुलाई को रात 8:30 बजे इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी। बाद में इसी नाम से विधेयक पारित कर कानून बनाया गया।
इसी तरह, 1971 में इंदिरा गांधी ने देशी राजाओं को मिलने वाले भत्ते ‘प्रिवी पर्स’ को खत्म कर दिया था। प्रिवी पर्स भारत की पूर्ववर्ती रियासतों के शासक परिवारों को दिया जाने वाला एक भुगतान था, जो भारत की स्वतंत्रता के बाद 1947 में पहली बार भारत के साथ एकीकृत होने और बाद में 1949 में अपने राज्यों के भारत में विलय के उनके समझौतों के हिस्से के तौर पर दिया जाता था।
ये तीन ऐसे मुद्दे थे, जहां सरकार की राय और सर्वोच्च न्यायालय की राय आपस में नहीं मिलती थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त तीनों मामलों में सरकार के कदम को असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया, जिससे इंदिरा गांधी बुरी तरह कुपित थीं। इसलिए बहुमत का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के तीनों फैसलों को पलट दिया और सार्वजनिक तौर पर प्रतिबद्ध न्यायपालिका और नौकरशाही को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता घोषित किया।
इसी तरह, केशवानंद भारती मामले में 68 दिन की बहस के बाद 24 अप्रैल, 1973 को सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारत के लोकतंत्र का आधार स्तंभ तो बना ही, इसने इंदिरा गांधी द्वारा न्यायपालिका को डराने, उसे नियंत्रित करने और कब्जाने की मंशा को भी उजागर किया। यह मामला अडनीर न्यास की जमीन के अधिग्रहण से जुड़ा था। बाबा केशवानंद भारती केरल के कासरगोड स्थित अडनीर मठ के प्रमुख थे। केरल सरकार ने मठ की 400 एकड़ में से 300 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर पट्टेदारों को खेती के लिए दे दी थी, जिसे केशवानंद ने चुनौती दी थी। इस प्रकार यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा था। इंदिरा गांधी ने पूरा जोर लगाया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार 13 न्यायाधीशों की पीठ ने 7-6 के बहुमत से निर्णय दिया। इसमें संविधान के आधारभूत सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया, जो मानता है कि संविधान की कुछ मौलिक विशेषताओं जैसे-लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, संघवाद और कानून का शासन को संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है और इसे संसद द्वारा संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से नहीं छीना जा सकता। इसी के साथ न्यायालय ने संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, न्यायालय की अक्षुण्ण स्वतंत्रता, संसदीय व्यवस्था, निष्पक्ष चुनाव, गणतांत्रिक ढांचा, संप्रभुता और आधारभूत ढांचे को परिभाषित किया और इनमें किसी भी प्रकार के संशोधन पर रोक लगा दी।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि 13 न्यायाधीशों की पीठ में 7 न्यायाधीश फैसले के पक्ष में थे। इनमें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एम. सीकरी, न्यायमूर्ति के.एस. हेगड़े, न्यायमूर्ति ए.के. मुखर्जी, न्यायमूर्ति जे.एम. शेलाट, न्यायमूर्ति एन. ग्रोवर, न्यायमूर्ति पी. जगनमोहन रेड्डी और न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना शामिल थे। वहीं, 6 न्यायाधीश फैसले से सहमत नहीं थे। इनमें थे न्यायमूर्ति ए.एन. रे, न्यायमूर्ति डी.जी. पालेकर, न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यू, न्यायमूर्ति एच.एम.बेग, न्यायमूर्ति एस.एन. द्विवेदी और न्यायमूर्ति वाई.के. चंद्रचूड़।
इस फैसले से नाराज इंदिरा सरकार ने क्या किया? अगले ही दिन यानी 25 अप्रैल को प्रधानमंत्री कार्यालय से न्यायमूर्ति एन.एन. रे को फोन किया गया। उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें भारत के नए मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) का पद स्वीकार है? उन्हें सोचने का समय भी नहीं दिया गया। उनसे 2 घंटे में जवाब देने को कहा गया और अगले ही दिन यानी 26 अप्रैल, 1973 को उन्हेंं भारत का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों न्यायमूर्ति शेलाट, न्यायमूर्ति ग्रोवर और न्यायमूर्ति हेगड़े को दरकिनार कर यह फैसला किया। ये तीनों उन 7 न्यायाधीशों में शामिल थे, जिन्होंने कहा था कि सरकार संविधान से ऊपर नहीं है। मतलब साफ है कि न्यायमूर्ति रे को सरकार के पक्ष में खड़े होने का इनाम मिला। शपथ ग्रहण के दो दिन बाद न्यायमूर्ति रे ने नए सिरे से 13 न्यायाधीशों की पीठ गठित कर ‘मास्टर आफ रोस्टर’ का दुरुपयोग किया।
जब कोई न्यायपालिका में हस्तक्षेप आदि की बात करता है, तो यह नहीं देखता कि न्यायमूर्ति रे ने भारत के नए मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालते ही अचानक केशवानंद भारती मामले की समीक्षा के लिए 13 न्यायाधीशों की पीठ कैसे पुनर्गठित कर दी थी। यही नहीं, मामले की समीक्षा भी शुरू हो गई, जबकि किसी ने न तो समीक्षा और न ही पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी। एक न्यायाधीश ने जिज्ञासावश पूछा भी कि यह मामला सूचीबद्ध क्यों है? समीक्षा किसने दायर की? तब ननी पालकीवाला, जो उस मामले का नेतृत्व कर रहे थे, ने कहा, ‘मैं याचिकाकर्ता हूं।’ उनका सवाल था कि आप किसके कहने पर इस समीक्षा याचिका पर विचार कर रहे हैं? आपने 13 न्यायाधीशों की पीठ क्यों गठित की है?
बहरहाल, इंदिरा गांधी की मनमानी जारी रही। 1975 में उन्होंने संविधान में 39वां और 41वां संशोधन किया। इसमें यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव को अदालत में किसी भी आधार पर न तो चुनौती दी जा सकती है और न ही कोई मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। केशवानंद मुकदमे के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने इन दोनों संशोधनों को खारिज कर दिया था। इसी तरह, 1975 में आपातकाल में मौलिक अधिकारों की बहाली से जुड़ा एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामला सर्वोच्च न्याायालय पहुंचा तो पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 4-1 के बहुमत से सरकार के पक्ष में निर्णय दिया। अकेले न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया। इस कारण वे भी इंदिरा गांधी के निशाने पर आ गए। उन्हें इसकी सजा मिली। वे वरिष्ठतम थे, लेकिन सरकार ने उन्हें दरकिनार कर न्यायमूर्ति एम.एच बेग को देश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया, क्योेंकि वह केशवानंद मामले में भी सरकार के साथ खड़े थे।
न्यायमूर्ति बेग 1978 तक मुख्य न्यायाधीश रहे। इसके बाद उन्हें अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। वे 1981-88 तक आयोग के अध्यक्ष रहे। कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस ने उन्हें अपने मुखपत्र ‘दैनिक हेराल्ड’ का संचालक नियुक्त कर दिया। बहरूल इस्लाम की कहानी तो सभी जानते होंगे। उन्हें जब चाहा तब सांसद, जब चाहा तब उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया। न्यायमूर्ति जगनमोहन रेड्डी ने अपनी पुस्तक ‘वी हैव रिपब्लिक’ में केशवानंद भारती मामले के बारे में विस्तार से लिखा है। वास्तव में इंदिरा गांधी को संविधान के तिरस्कार की शिक्षा अपने पिता नेहरू से मिली थी, जिन्होंने कहा था, ‘‘यदि संविधान कांग्रेस की नीतियों के विपरीत जाता है, तो उसे बदलकर और अनुकूल बनाया जाना चाहिए।’’ यहां बाबासाहेब आंबेडकर की एक बात याद आती है। संविधान सभा में बहस के दौरान संविधान के प्रारूप पर आलोचनाओं का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मै यह कहूंगा कि यदि नवीन संविधान के अंतर्गत कोई गड़बड़ी पैदा होती है, तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था, बल्कि यह कहना चाहिए कि सत्तारूढ़ व्यक्ति ही अधम था, नीच था।’’ उनकी आशंका आखिरकार 1975 में सच साबित हुई।
बहरहाल, इंदिरा गांधी को इस बात का भान था कि जिस तरह मोतीलाल नेहरू एवं गांधी जी के सहयोग से उनके पिता जवाहर लाल कांग्रेस और भारतीय जनता पर थोप दिए गए थे और नेहरू के एकाधिकार व उनके प्रति चाटुकारिता की परंपरा के चलते ही इंदिरा भी सरकार पर थोपी गई थीं। इसलिए उन्हें मालूम था कि इस अनैतिक परंपरा के बूते वे खुद भी संविधान पर अपनी मनमर्जी थोप सकती हैं और उन्होंने ऐसा किया भी।
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@hiteshshankar
आपातकाल का संघर्ष : वंदेमातरम् नहीं रुका
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