आप भारत के किसी भी बड़े शहर में जाएं, वहां सड़कों के किनारे, खाली पड़ी जमीन या किसी पार्क के आसपास झुग्गियां डालकर रह रहे कुछ लोग दिख जाएंगे। कुछ लोग कूड़ा बीनते, तो कुछ भीख मांगते हुए भी दिख जाएंगे। क्या आपने कभी सोचा है कि ये लोग कौन हैं और क्यों सदियों से बेघर हैं? शायद नहीं, क्योंकि लोगों के बीच इनके बारे में गलत धारणाएं फैला दी गई हैं। इसलिए आम समाज इनकी उपेक्षा करता है, इन्हें हेय दृष्टि से देखता है। आम बोलचाल में इन्हें घुमंतू कहा जाता है। घुमंतू जातियों में बारह पाल एक समूह है।
इन घुमंतू जातियों का इतिहास गौरव से भरा है। इनके अलग-अलग कार्य हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये लोग एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते। इन जातियों की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता है कि विपरीत स्थितियों के बाद भी ये लोग अपने धर्म का पालन करते हैं। इनमें से कोई जाति भगवान शिव से संबंध रखती है, तो कोई महाराणा प्रताप से, तो कोई छत्रपति शिवाजी से जुड़ी है।
इन जातियों को लेकर एक कहावत है- ‘अलख की रोटी, पलक का खजाना। भूख लगे तो, मांगकर खाना।।’ अर्थात् समाज को जगाओ, अलख निरंजन कहो। यह बताओ कि इस संसार का सार केवल शिव है। शिव तभी मिलेंगे जब आप प्रेम व निष्ठापूर्वक अपने माता-पिता, गुरुजनों, छोटे व बड़ों का आदरपूर्वक सम्मान करेंगे। समाज में समता की भावना को उत्पन्न करते हुए बिना रुके दूसरे स्थान को गमन करेंगे। मतलब पलक झपकते ही स्थान परिवर्तन करना। यदि कहीं और कभी भी भूख लगे, तो समाज से मांगकर भोजन करना।
तात्पर्य यह है कि घूमते रहना, इनके कार्य का मूल पहलू है। इसके पीछे पुरानी मान्यता है कि जब भगवान शिव का विवाह हो रहा था तो उस समय समस्त ज्ञानवान प्राणियों को आमंत्रित किया गया था। सभी ने बहुत अच्छी प्रकार से वहां भोजन पाया। इस बारात में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो विभिन्न मुद्राओं व हाव-भाव से लोगों का मनोरंजन करते आ रहे थे। इन्हें अपनी कलाबाजी दिखाने में काफी समय लगा।
जब ये लोग विवाह स्थल पर पहुंचे तब तक भोजन समाप्त हो चुका था। इन्हें बहुत भूख लगी थी, तब इन लोगों ने समीप में मांग कर भोजन खाया। जब भगवान् शिव को यह सब मालूम हुआ तो उन्होंने इन समाज के लोगों को आदेश दिया कि आज से आप लोग विभिन्न प्रकार से समाज का जागरण और प्रबोधन करेंगे। भूख लगने पर समाज से मांगकर खाएंगे। मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। तब से आज तक यह समाज भगवान शिव के दिखाए रास्ते का अनुसरण करते हुए समाज प्रबोधन के कार्यों में लगा है। दिल्ली के ख्याला गांव स्थित सपेरा बस्ती में रहने वाले किशन बहुरूपिया कहते हैं, ‘‘भोलेनाथ बारह पाल के इष्ट देव भोलेनाथ हैं। हम लोग किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले शिव की आराधना करते हैं।’’
बारह पालों में सबसे पहला समाज है सपेरों का। यह समाज गुरु गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का अनुयायी है। बीन बनाना व बजाना, सांप पकड़ना, सांप का खेल दिखाना व इनके जहर को कम करने वाली दवा का व्यापार करना इनका काम है। सपेरों ने सांपों के माध्यम से समाज का प्रबोधन किया। भगवान भोलेनाथ के प्रति आस्था पैदा करना इनका प्रमुख कार्य था। इस समाज ने मनुष्यों को प्रकृति के साथ रहने की प्रेरणा दी है। साथ ही यह भी बताया कि जहरीले से जहरीला प्राणी भी हमारा मित्र है। सांपों के माध्यम से कई असाध्य रोगों का इलाज संभव है, परंतु हजारों वर्षों के लंबे संघर्ष के कारण आज हमारे बीच यह जानकारी न के बराबर है।
कई जनजाति क्षेत्रों में आज भी सांपों के माध्यम से असाध्य रोग ठीक करने का चलन है। स्मरण रहे कि इस प्रक्रिया में सांपों की हत्या नहीं होती, वरन् उनके निवास स्थलों की मिट्टी या सांपों द्वारा उत्पन्न की गई गर्मी ही असाध्य रोगों के इलाज में सहायक होती है। सपेरा समाज को इसका बहुत अच्छा अनुभव है। वास्तव में सपेरा समाज ने समस्त विश्व को यह बताया है कि सांप मनुष्यों के शत्रु नहीं, मित्र हैं। ठीक वैसे ही जैसे गाय, बैल, भैंस व बकरी इत्यादि जीव हमारे अस्तित्व के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। यह समाज संपूर्ण भारतवर्ष में झुग्गी- झोंपड़ियों में सदियों से रहता आ रहा है। एशिया की सबसे बड़ी सपेरा बस्ती पद्मकेश्वरपुर (भुवनेश्वर) है।
बारह पाल के अंतर्गत आने वाली घुमंतू जातियों में एक प्रमुख जाति है बहुरूपिया। पहले इनका काम था राज दरबारों में रूप बदल कर राज परिवारों, मंत्रियों, सामंतों और प्रजा का मनोरंजन करना। परंतु रूप बदलने में एक बात का ध्यान रखना आवश्यक था कि लोगों के मनोरंजन के साथ-साथ धर्म के प्रति जन जागरण का भाव बना रहे। सामान्य अर्थों में इन्हें ही बावनरूपिया या जोकर भी कहा जाता है।
नट मरासी भी एक जाति है, जो बारह पाल का हिस्सा है। इस समाज के लोग खेल संस्कृति के बहाने समाज का जागरण करते थे। जैसे रिंग से निकलना, पैर में रस्सी बांधकर खेल दिखाना आदि। कबूतरी नट जाति के लोगों का मुख्य कार्य है बांस पर खेल दिखाना या गले में रस्सी बांधकर संतुलन स्थापित करना। यह परंपरा बहुत प्राचीन समय से भारत में रही है।
कंडारा जाति के लोग हांडी को तोड़कर उसके मुंह के हिस्से में आग लगाकर थोड़ी दूरी से छलांग लगाकर निकलते हैं। यह खेल आप लोगों ने देखा भी होगा।
बांबी जाति के लोग जादू का खेल या तमाशा दिखाते हैं। पूरे विश्व में यही समाज जादू के खेल का वाहक है। इसके माध्यम से इन लोगों ने न केवल समाज का मनोरंजन किया है, बल्कि ईश्वर के प्रति आस्था उत्पन्न करने का बहुत प्रभावशाली कार्य किया। लद्धड़ जाति के लोग अचूक निशानेबाज होते हैं। ये लोग गुलेल से शिकार करते हैं।
बारह पालों में एक जाति कारू है। ये लोग झाड़-फूंक का काम करते हैं। हालांकि कुछ लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं, पर यह अभी भी होता है। कालांतर में झाड़ू से मारने को टोने-टोटके के रूप में शामिल कर लिया गया।
कठपुतली या भाट समाज का मुख्य कार्य है कठपुतली का नाच दिखाकर लोगों का मनोरंजन करना। इस समाज के लोग भारत के हर कोने में मिलते हैं। ये लोग कठपुतली नाच दिखाकर अपना गुजारा करते हैं।
बारह पालों में एक प्रमुख जाति है जोगी। इस जाति के लोगों ने जन जागरण की जो परंपरा सदियों पहले स्थापित की थी उसे आज भी वह परंपरा उसी रूप में भारतीय समाज में देखा जा सकता है। ये लोग पीला या भगवा वस्त्र धारण करके दो, तीन या पांच लोगों के समूह में गांवों और शहरों में भ्रमण करते हुए अलख निरंजन का घोष करते हैं। भगवान शंकर के प्रति लोगों में आस्था का प्रसार करते हैं। भारत और भारतीयता हमेशा प्रगतिशील रहे। सभी जन स्वयं की आत्मा को ईश्वर का अंश समझें और अपने शरीर को मंदिर जैसा समझ कर पवित्रता पूर्वक विश्व कल्याण में लगे रहें।
उसी तरह ‘भोपा भोपी’ नाम से भी एक जाति है। इस जाति के लोग रावणहत्था (सारंगी जैसा) वाद्य यंत्र को बजाते हुए गांव-गांव भ्रमण करते हैं। अपने वाद्ययंत्र पर इनके द्वारा छेड़ी गई तान और सुरों में लोक इतिहास समाया होता है।
बारह पालों में देया जाति भी है। इस जाति के लोग झाज (सूप) बनाते हैं। भारत में सूप और झाड़ू को लक्ष्मी माना जाता है। सूप से चावल, दाल, चना आदि की धूल या छोटे कंकड़ों को साफ किया जाता है। उत्तर भारत में इस प्रक्रिया को पछोरना कहते हैं। हिंदू समाज में घर में प्रयोग हेतु आवश्यक सामान को हर कोई नहीं बना सकता था। प्राय: हरेक सामान के निर्माण हेतु किसी विशेष जाति का निर्धारण हुआ था। गांवों में आज भी यह परंपरा निकट से देखी जा सकती है।
वास्तव में घुमंतू समाज कोई अलग समाज नहीं है। यह समाज हमारे समाज का ही वह वर्ग है जिसने शेष समाज की भलाई के लिए अपने और अपने परिवार के निजी जीवन, सुख व सुविधाओं का त्याग कर दिया। इनके मूल में भारतीयता विद्यमान रही है।
(लेखक कई वर्ष से घुमंतू समाज पर शोध कर रहे हैं)
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