पिछले अनेक चुनावों में देश के सबसे बुजुर्ग राजनीतिक दल को लोग मूर्खता का पिटारा मान नकार चुके थे। कांग्रेस ने अनजाने में ही सही, जनता की समझदारी पर आम चुनाव से पहले ही अपनी मुहर लगा दी है।
राहुल गांधी द्वारा सत्ता में आने पर वित्तीय सर्वेक्षण कराए जाने का बयान देने के बाद कांग्रेस बचाव की मुद्रा में थी, तो अब इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष और राहुल गांधी के सलाहकार सैम पित्रोदा ने भारत में विरासत पर टैक्स लगाए जाने की वकालत कर दी है।
पित्रोदा के बयान के बाद कांग्रेस नेताओं ने उनसे पल्ला झाड़ लिया, लेकिन वे यह भूल गए कि इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष के नाते जिस व्यक्ति के पास विदेश में रहने वाले भारतीयों को कांग्रेस और उसके विचार से जोड़ने की जिम्मेदारी है, वे चाह कर भी उसके बयान से पल्ला नहीं झाड़ सकते।
सैम पित्रोदा का बयान तो अभी आया है, लेकिन इससे पहले 2012 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इस टैक्स को लाने की बहस शुरू कर थी। हालांकि कारोबारी जगत के भारी विरोध जताने पर ऐसा नहीं हो पाया। इन दोनों बयानों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसका यही अर्थ निकलता है कि कांग्रेस की ऐसी मंशा पहले से ही थी। यदि 2014 में कांग्रेस सत्ता में आ गई होती तो अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए बहुसंख्यक लोगों की संपत्ति को, उनकी जीवनभर की पूंजी को अभी तक सम्भवत: हड़प चुकी होती।
हम भारतीयों के लिए पूंजी क्या है, बचत क्या है, पिता के ऋण को संतान द्वारा चुकाने की सोच क्या है या कहिए अर्थ के लिए धर्म आधारित ‘अर्थपूर्ण’ संकल्पना क्या है! यह कांग्रेस भला कैसे समझेगी! राम से तार जुड़ना और रोम से तार जुड़ना दो अलग बातें हैं।
चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का आधार और संतुलन सामान्य भारतीय भले सहजता से आत्मसात करता हो, किन्तु अपना नाम (सत्यनारायण गंगाराम) तक छोड़ बैठे ‘सैम’ के लिए भारतीयता के सूत्रों को समझना कठिन है।
भारत की राजनीति को भारतीयता की दृष्टि से देखने वाले लोगों की मंशा ऐसी हो ही नहीं सकती। आयातित विचारों के साथ भारत में राजनीति की नाव को खेने की कोशिश करने वाले लोग, जिनकी दृष्टि दूसरों की संपत्ति पर हो, वे ही ऐसा विचार पाल सकते हैं।
ऐसे आयातित अभारतीय विचार वामपंथी राजनीति की विशेष पहचान रहे हैं। मॉस्को में बारिश होने पर दिल्ली में छाता तान लेने वाले वामपंथी रूस के बाद भारत (बंगाल) में दशकों तक बड़ा प्रभुत्व रखते थे, किन्तु एकाएक मिट्टी में मिल गए। क्यों? क्योंकि सामाजिक स्वभाव और स्वदेशी दर्शन को नकार कर थोपे गए विचार कभी इस देश में राजनीतिक पूंजी हो ही नहीं हो सकते।
वामपंथी विचार एक उन्माद, एक जुनून की तरह दिमाग पर चढ़ता है, मगर जैसे ही भान होता है कि यह तूफान सब तहस-नहस कर देगा तो समाज इसे उतार फेंकता है। पूरी दुनिया में इस विचारधारा की उठान, उत्पात और उन्मूलन को इसी तरह देखा गया है।
वास्तव में वामपंथी विचार की अंतर्निहित वृत्ति हिंसा ही है। अपने विचारों को मूर्त रूप देने का कोई आदर्श तरीका या ‘मॉडल’ वामपंथियों के पास नहीं है। इस कारण वामपंथ भारत ही नहीं, धीरे—धीरे दुनियाभर में खत्म होता जा रहा है।
दुनिया और भारत के सभी राज्यों में राजनीतिक आधार खो चुके और अपने आखिरी गढ़ों में अंतिम सांस गिन रहे वामपंथियों का राजनीतिक दिवालियापन और बौद्धिक उजड्डता आज कांग्रेस के कंधों पर सवार होकर कांग्रेस को ही खा रही है।
जिंदा और प्रासंगिक रहने के लिए भले यह वामपंथ की चाल है, किन्तु इसमें कांग्रेस भी बराबर की साझेदार है। वैसे भी समाजवादी मॉडल के तौर पर हमेशा से कांग्रेस को ‘क्रांति और साम्यवादी’ विचार आकर्षित करते रहे हैं। इसी कारण वामपंथी खेमे ने सत्ता के माध्यम से अपनी (कथित) बुद्धिजीवी छवि और अकड़ कायम रखने के लिए हमेशा अपनी जगह कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में बनाए रखी।
आज राजनीतिक सत्ता की छीजन के साथ वामपंथी तो खत्म होने के कगार पर हैं, लेकिन कांग्रेस इसका आकलन अभी तक नहीं कर पाई कि उसकी सत्ता का पतन क्यों हुआ? कांग्रेस ने देश में अपना जनाधार क्यों खोया?
वास्तव में अंग्रेजी राज के ‘तंत्र और व्यवस्था’ को 1857 जैसे स्वतंत्रता आंदोलन की आंधी से बचाने के लिए अंग्रेजों द्वारा ही कांग्रेस को जन्म दिया गया था। स्वतंत्रता पूर्व कुछ समय तक यह राष्ट्रीय विचारों का अखिल भारतीय मंच रही। बाद में अंग्रेजों की ही तर्ज पर ‘बांटो और राज करो’ की नीति को आत्मसात करते हुए परिवारवादी तत्वों ने इस पर मानो कब्जा ही कर लिया। ऐसे में देश की सबसे बड़ी और पुरानी होने का दम भरने वाली कांग्रेस जनता के मन से उतरती गई।
आज कांग्रेस फिर से ऐसा ही प्रयास कर रही है। उसकी मंशा फिर से ‘बांटो और राज करो’ की है। जैसे—जैसे कांग्रेस परिवार केंद्रित हुई, राष्ट्र से विमुख हुई, तो राष्ट्र के मन से भी उतर गई। इसीलिए जनता ने लोकतंत्र के आंगन से उसे बुहार कर बाहर कर दिया। कांग्रेस राष्ट्रीय विचार से कटने और बहुसंख्यक समाज के प्रति घृणा पालने के कारण हुई अपनी इस दुर्दशा को नहीं समझ पाई (हालांकि चिंतन शिविरों में ए.के. एंटनी जैसे नेताओं ने पार्टी को चेताया भी)। ऐसे में अपना हाल भूल बैठी कांग्रेस वामपंथी चाल का आकलन कैसे कर पाती?
हां, वामपंथी यह जरूर समझ गए कि अगर टूटे पैरों के बावजूद चलना है तो यह कांग्रेस ही है, जिसके कंधों पर सवारी की जा सकती है।
हार की आशंका या सत्ता की छटपटाहट, कांग्रेस ज्वर से तपते रोगी की तरह अनर्गल प्रलाप कर रही है। नाम भले कांग्रेसी नेताओं के हों, किन्तु वित्तीय सर्वेक्षण कराने या विरासत टैक्स की बात जैसे सभी विचार वामपंथी प्रभाव और ताप से आ रहे हैं।
बहरहाल, कांग्रेसी मूर्खताओं के पीछे वामपंथ की हिंसक धूर्तता छिपी है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। कांग्रेस एक खतरनाक मंसूबे के साथ आगे बढ़ रही है। आपकी मेहनत, आपकी कमाई, आपकी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य… सब कुछ उनके निशाने पर है।
ऐसी राजनीति से सतर्क, बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है।
@hiteshshankar
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