गतांक से जारी
मलयालम में लिखित अध्यात्म रामायण के अनुसार, राम और लक्ष्मण तो केवल उस शिव चाप को देखकर ही अयोध्या लौट जाने को वहां गए थे। तमिल कम्ब रामायण में विवाह उत्सव इत्यादि का विशद् वर्णन है। विवाह में सपत्नीक राजा दशरथ के आने का प्रसंग है। तेलुगु की रंगनाथ रामायण में सीता विवाह के सुंदर चित्रण सहित राजा दशरथ की वंशावली का भी वर्णन है। मिथिला के रामस्नेही भक्त कवि मोदलता स्नेहलता के पदों में विवाह की लोक परंपरा का सविस्तार चित्रण है, जबकि कश्मीरी रामावतार चरित्र में विवाह ऋषि विश्वामित्र की मध्यस्थता से संपन्न होता है। नेपाल की भानुभक्त रामायण के अनुसार, देवर्षि नारद राजा जनक को इसके समस्त वृत्तांत पूर्व में ही बता चुके थे।
बांग्ला की कृतिवास रामायण के अनुसार, भगवान शिव ने न केवल परशुराम से स्वयंवर स्थल पर धनुष रखवाया था, अपितु राजा जनक को इससे संबंधित संकल्प के लिए सहमत भी करवाया था। इस रामायण के अनुसार, विवाह का आमंत्रण लेकर स्वयं ऋषि विश्वामित्र अयोध्या गए थे। असमिया माधव कंदली रामायण के अनुसार, श्रीराम लक्ष्मण का स्वयंवर में पराजित समस्त प्रतिभागियों से युद्ध भी हुआ था। भावार्थ रामायण के अनुसार, भगवान परशुराम राजा जनक को सीता स्वयंवर हेतु प्रेरित करते हैं। सत्योपाख्यान नामक ग्रंथ में प्रहस्थ नामक राक्षस सभा में रावण का पक्ष रखते हुए उसके वहां हुए बिना ही उससे सीता के विवाह की वकालत करता है। कन्नड़ की तोरवे रामायण के अनुसार, स्पर्धा में श्रीराम की विजय पर सीता उन्हें रत्नों की माला पहनाती हैं।
अस्तु, प्रभु श्रीराम की इस यात्रा का अगला पड़ाव पंथ पाकड़ है। बिहार के सीतामढ़ी जिले का यह स्थान विवाह उपरांत लौटते हुए बारात का प्रथम पड़ाव स्थल था। यहां भगवती सीता की डोली प्रथमत: ठहरी थी। इस पुरातन स्थल पर उनकी पूजा पिंड रूप में होती है। यहीं उनकी स्मृतियों से जुड़ा एक विशाल पाकड़ वृक्ष है जो निरंतर बढ़ रहा है। वैसे, विभिन्न रामायण कथाओं के अनुसार, इस स्थल के महत्व का एक और कारण है।
दरअसल रामायण के राम-सीता विवाह प्रसंग की एक महत्वपूर्ण घटना राम-परशुराम संवाद भी है। कुछ कथाओं में परशुराम धनुष भंग के तत्काल बाद ही सभा में पधारते हैं। जबकि कुछ कथाओं में यह भेंट विवाह के पश्चात बताई है। यहां इन स्मृतियों से जुड़ा एक स्थल परशुराम तालाब है, जहां मंदिर और संतों की कुटिया इत्यादि हैं। जबकि अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, मलयालम रामायण एवं नेपाली भानुभक्त रामायण में यह अयोध्या लौटने के मार्ग में करीब तीन योजन अर्थात बारह कोस की दूरी पर अवस्थित है। इनके अनुसार यह स्थल जनकपुर नगर परकोट के दक्षिण पश्चिम कोण पर अवस्थित जलेश्वर नाथ शिवालय से ठीक इतनी ही दूरी पर था। इस तथ्य के अनुसार, यह स्थान पंथ पाकड़ ही है।
राम बारात के अयोध्या लौटने का दूसरा पड़ाव स्थल वेदिवन है। बिहार में पूर्वी चंपारण के मधुबन बाजार के निकट यह अत्यंत मनोरम स्थल है। मान्यता है कि विवाह के चौथे दिन यही सीता के चौठारी उत्सव का स्थल भी है। यहां इस प्रसंग से जुड़े करीब तीन स्थान हैं। पहले स्थान पर एक पुराना मंदिर और सीता कुंड है। दूसरे पर एक सुंदर सरोवर है, गंगा तालाब। कहते हैंं, स्वयं गंगा इस अवसर पर सरोवर में प्रकट हुई थीं।
इस सरोवर से कुछ दूर एक टीले जैसी संरचना है। यहां आज संतों की कुटिया हैं, एक विशेष वृक्ष भी है। इस पेड़ के पत्ते कंगननुमा आकृति के दिखते हंै, इसे चौठारी के कंगन से जोड़कर देखा जाता है। यहां से सीताजी की डोली आगे बढ़ी तो पानी पीने के लिए एक स्थान पर शेषावतार लक्ष्मण ने तीर मारकर एक भूमिगत जलस्रोत प्रकट किया था। इस जलधारा का नाम बाणगंगा है, यह बिहार के गोपालगंज जिले में सासामुसा से प्रारंभ होती है और आगे सीवान जिले से होते हुए अयोध्या में सरयू नदी में मिल
जाती है।
राम बारात का तीसरा रात्रि पड़ाव डेरवा ग्राम में हुआ। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद का यह ग्राम पुरातन श्रीराम-जानकी यात्रा मार्ग पर अवस्थित है। सरयू यहां से कुछ दूरी पर बहती है। इसके बाद बारात मऊ जनपद के दोहरी घाट होते हुए अयोध्या पहुंची थी। यहां जामदग्नय राम और दशरथ नंदन राम की भेंट होती है। यहां सरयू तट पर इस प्रसंग से संबंधित एक सुंदर मंदिर और उपवन बना है। वैसे राम-परशुराम भेंट को लेकर गुरु गोविंद सिंह जी अपनी रामायण में लिखते हैं कि, इन दोनों अवतारों की भेंट एक नहीं बल्कि दो बार हुई है। प्रथम भेंट जनकपुर से निकलते ही हुई, तो दूसरी अवधपुरी में हुई। प्रथम बार की चर्चा एक प्रकार से पंथ पाकड़ के दावे को ही बल देती है।
बारात के अयोध्या पहुंचने पर माता केकैयी ने भगवती सीता को अपने प्रिय महल कनक भवन में भेंट के लिए बुलाया था। रामायणकालीन मान्यताओं के अनुसार, स्वर्णमय आभा से युक्त यह भवन राजा दशरथ ने कभी कैकेयी को भेंट किया था। बाद में श्रीराम के पुत्र कुश ने, तो आगे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और समुद्रगुप्त ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। वर्तमान भवन ओरछा की रानी वृषभानु कुंवर द्वारा निर्मित है। इसे उन्होंने इस्लामी आक्रांता नवाब सालारजंग द्वारा नष्ट करने पर 1891 में तैयार कराया था। यह अयोध्या के सर्वाधिक सुंदर मंदिरों में से एक है। यहां देव प्रतिमा विशेष है, जीवंत-जाग्रत है। राम-सीता का झूलन स्थल उनकी उस यात्रा का सबसे अंतिम स्थान था।
अयोध्या का मणिपर्वत वह स्थान है जहां भगवती सीता ने अपना प्रथम हरितालिका तीज व्रत किया था। इस अवसर उन्होंने यहां झूला भी झूला था। अयोध्या में होने पर प्रभु श्रीराम और भगवती सीता यहां प्रतिवर्ष झूला झूलने आया करते थे। इसकी स्मृति में यहां हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल तृतीया को विशाल झूलनोत्सव होता है। यहां इस उत्सव के उपरांत ही अयोध्या के मंदिरों में इसका आयोजन होता है। इस अवसर पर अयोध्या के साधु-संत यहां आते हैं। श्रद्धापूर्वक श्री सीताराम विग्रह को झूला झुलाया जाता है। यह स्थान एक पहाड़ीनुमा जगह है जिसके महत्व को बताने के लिए यहां भारतीय पुरातत्व विभाग का सूचनापट्ट लगा है।
वैसे इसके नाम का विचार करें तो तीन कथाएं सामने आती हैं। इसमें से प्रथम कथा के अनुसार, यही जगह है जहां विवाह में मिली मूल्यवान भेंट आदि रखी गई थीं। वहीं दूसरी कथा मिथिला नरेश राजा जनक से संबद्ध है। परंपरानुुसार बिना नाना बने वह अपनी पुत्री के घर रुक नहीं सकते थे। इसलिए उन्होंने मूल्य देकर अयोध्या में थोड़ी भूमि खरीदी थी, जिसे आज हम जनकौरा के नाम से जानते हंै। यह स्थल यहीं मणिपर्वत के पास है। कहते हैं, इस क्रय में उन्होंने मुद्रा की जगह मणि-रत्नों का उपयोग किया था। ये मूल्यवान द्रव्य जिस स्थान पर रखे गए थे, उसे ही मणिपर्वत कहा गया।
कथा है कि आगे प्रभु राम के पुत्र राजा कुश का विवाह एक नाग कन्या से हुआ था। उस विवाह में नागवंशियों द्वारा ढेरों मणियां उपहार में दी गई थीं। वे मणियां भी यहीं रखी गई थीं। वैसे ये सारे तथ्य अपने में रामायणकालीन प्रमाण हैं। बाकी इस यात्रा का हर पड़ाव प्रभु श्रीराम की उस प्रथम महत्वपूर्ण यात्रा की एक अमिट स्मृति है। इन्हीं से मिलकर तो पूरी होती है राम की अनुपम, अद्भुत महागाथा, रामायण। (समाप्त)
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