कण्वाश्रम : एक ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्य

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उपान्त डबराल

गढ़वाल हिमालय के माल प्रदेश, तराई भाबर में मालिनी नदी के तट पर स्थित है – कण्वाश्रम। भारत के प्राचीन ग्रंथों, पुराणों, महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत तथा महाकवि कालिदास की रचनाओं में इसका जीवंत वर्णन मिलता है। मालिनी नदी के दोनों तटों पर फैले सघन वन के मध्य निवेशित इस आश्रम की प्राकृतिक छटा दर्शनीय है । स्कन्द पुराण में कण्वाश्रम को ‘बदरीवन’ बताया गया है। ऋग्वेद के किल्विष सूक्त में भी कण्वाश्रम का उल्लेख मिलता है।  इसके साथ ही प्राचीन ग्रन्थ ‘महाभारत’ में भी कण्वाश्रम तथा मालिनी नदी का कई स्थान पर उल्लेख मिलता है —

‘प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीममितो नदीम् ।
जातमुत्सृज्यन्त गर्भ मेनका मलिनिमनुः॥’

अर्थात्- अत्यंत ही सुन्दर हिमवत का अंतिम प्रदेश  है जहां पवित्र मालिनी के तट पर मालिनी अनुस्वरूप मेनका के गर्भ से उत्पन्न शकुन्तला ने एक शिशु को जन्म दिया ।

महर्षि कण्व ने यहाँ शकुन्तला को कन्या रूप में ग्रहण किया था । यहीं शकुन्तला  से हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत के पुत्र भरत का जन्म हुआ था । कालांतर में जिन भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा । केदारखण्ड पुराण में भी बद्रीनाथ क्षेत्र में स्थित इस आश्रम का उल्लेख है कि कुछ यात्रीगण गड्गद्वार से पूर्व में स्थित कण्वाश्रम होकर बदरी-केदार के दर्शन हेतु जाते थे । इससे ज्ञात होता है कि मध्यकाल में बहुत पीछे तक भी कण्वाश्रम की एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि बनी हुयी थी  ।

उत्तराखण्ड धार्मिक आस्था का आदिकाल से केंद्र रहा है । इसको शिव की साधना स्थल के रूप में भी माना गया है । सरस्वती और गंगा जैसी पवित्र एवं जीवन दायिनी नदियों का उद्गम उत्तराखण्ड के केदारखण्ड से ही हुआ है । प्रचुर मात्रा में जल एवं वन संपदा की सुलभता के कारण दोनों नदियों के तटों पर बस्तियां बनी हुयी थीं । कई ऋषियों के विद्याध्ययन के साथ–साथ ज्ञान–ध्यान के विशाल शिक्षा केंद्र आश्रम में थे । शिक्षा के ये बड़े–बड़े केंद्र ऋषि कुलों की परम्पराओं को भी आगे बढ़ाते रहे ।

केदारखण्ड में जो वैदिक धर्म-ग्रंथों के ज्ञान ध्यान के केंद्र थे, उनमें सबसे बड़े क्षेत्र में स्थापित प्रसिद्ध कण्वाश्रम भी था। कई विद्वानों ने इसकी पुष्टि गढ़वाल के दक्षिण भाग के तराई भाबर, कोटद्वार क्षेत्र के अंतर्गत् की है । प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ के शोध के अनुसार कुरु पांचाल के समीप वेदों की शिक्षा का महान केंद्र कण्वाश्रम में था ।  वहाँ पर चारों वेदों और छः वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबंध था । यहाँ पर यज्ञों के अनुष्ठानों और उनसे सम्बंधित कर्मकाण्ड की दीक्षा की भी उचित व्यवस्था थी ।  इतिहासकारों का ये मानना भी है कि कण्वाश्रम चौथी ईस्वी पूर्व तक वैदिक शिक्षा का केंद्र बना रहा होगा ।

इतिहास के पन्नों को पलटने से एक और रहस्य का उद्घाटन होता है । विद्वानों का मानना है कि ऋषि कण्व के आश्रम में शल्यचिकित्सा का भी ज्ञान दिया जाता था । कण्वाश्रम को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले ऋषि कण्व बड़े ही तत्व ज्ञानी थे ।

माना जाता है कि पूर्व समय में हरिद्वार का तीर्थ यात्री कण्वाश्रम मार्ग से आदिबदरी दो दिनों में पैदल जा सकता था।  फिर वहाँ से बदरीनाथ-तुंगनाथ-केदारनाथ की यात्रा भी कुछ ही दिनों में की जा सकती थी।  कण्वाश्रम  से होकर जाने वाला  यात्रा मार्ग अति लघु था।  स्वयं कण्व ऋषि भी इसी लघु मार्ग से केदारनाथ और बदरीनाथ गए थे। आध्यात्मिक केन्द्रों तक सुगमता से पहुंचाने वाला मार्ग होने के कारण कण्वाश्रम स्वयं भी एक आध्यात्मिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। आदिपर्व  में उल्लेख आया है कि कण्वाश्रम में नियमपूर्वक कठोर तप-व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे , जो जप-तप-होम में लीन  ब्रह्म तत्व की खोज में तत्पर रहते थे । कण्वाश्रम  के कुछ तपस्वी फल-फूल-सूखे पत्ते खाकर जीवन यापन करते थे। कुछ तपस्वी तो मात्र जल एवं वायु का सेवन कर कठोर तपस्या करते थे। ऐसे तपस्वियों की कण्वाश्रम में बड़ी संख्या थी ।

कण्वाश्रम में यज्ञ क्रिया और कर्मकाण्ड आदि विषयों में प्रयोगात्मक शिक्षा भी मिलती थी । यहाँ कठोर तपस्या करने वाले ये योगी और तपस्वी बड़े-बड़े दलों के रूप में आश्रम के समीपवर्ती गांवों में भ्रमण भी किया करते थे। कुछ तपस्वी तो मंडलेश्वरों के समान दल बनाकर चलते थे ।  आज का अखाड़ा संघ उसी का आधुनिक रूप है ।

कण्वाश्रम कभी पुरु राजकुल वंश में जन्मे राजा दुष्यंत के राज्य का हिस्सा रहा होगा।  दुष्यंत का आखेट करते हुए कण्वाश्रम तक जाना इस बात की पुष्टि करता है।  राजा दुष्यंत के हस्तिनापुर से स्रु्घ्न ४० मील की दूरी पर था।  स्रु्घ्न से कनखल ५० मील और कनखल से चाण्डी पादतल-राजबाट मार्ग से कण्वाश्रम ४० मील की दूरी पर।

एलेक्जेण्डर कनिंघम (जो अंग्रेजों काल में भारतीय पुरातत्व विभाग के मुखिया रहे) ने भी अपनी १८६५ में लिखी रिपोर्ट में जिस नदी को ग्रीक दूत मैगस्थनीज ने अपनी पुस्तक में perineses के नाम से सम्बोधित किया है, वह मालिनी नदी ही है का उल्लेख किया है । इसी नदी के तट पर शकुन्तला बड़ी हुईं.  कुछ विद्वानों ने कण्वाश्रम को छठी  शताब्दी के उत्तराखण्ड के महान पर्वताकार राज्य की पौरव राजवंश  की ब्रह्मपुर राजधानी में  माना है । उल्लेख मिलता है – ‘रमन्से स्मिथ रथ इति ‘  इसलिए कहा जा सकता है कि उस समय यातायात के अच्छे प्रबंध थे ।  भाबर प्रदेश में रथों का प्रयोग होता था ।

कण्वाश्रम की ऐसी भौगोलिक स्थिति से लगता है कि ये स्थान कभी व्यापार और जीवन के अन्य संबंधों की उपलब्धता की पूर्ती हेतु उचित रहा होगा ।  पूर्वकाल में आश्रमों के आसपास घनी बस्ती के ग्राम या नगरों की बसागत  हुआ करती थी । कण्वाश्रम के समीप स्थित चौकीघाटा इसका प्रमाण माना जा सकता है ।  समय के साथ-साथ किसी भी भू भाग का इतिहास और भूगोल अवश्य बदलता है ।  कालान्तर में तीर्थ के रूप में मान्य शिक्षा और आध्यात्म के केंद्र कण्वाश्रम पर भी इस बदलाव का प्रभाव पड़ा ।

मार्कंडेय पुराण में उल्लेख आया है कि गंगा जी से रामगंगा तक फैली भाबर की संकरी पट्टी की उत्तरी सीमा पर फैली शिवालिक की पर्वत शिखा का प्राचीन नाम ‘मयूर पर्वत’ या ‘मोर गिरि’ था ।   इसकी शाखा जो गंगा जी के पूर्वी तट से चण्डीघाट होकर लक्ष्मण झूला की ओर चली गयी है,  उसे महाभारत में उशीर गिरि, बौद्ध साहित्य में उशीर ध्वज, अधोगंगा, या अहोगंगा कहा गया है ।   ये क्षेत्र बुद्धकाल से ही बौद्धों का पुनीत प्रदेश बन चुका था ।   उनके  निर्वाण के बाद यह बौद्ध स्थाविरों का मुख्य केंद्र बन गया था।  इतिहासकारों का मानना है कि तीसरी ईस्वी पूर्व के बौद्ध  स्थाविर साणवासी संभूत के प्रयास व प्रभाव से तराई भाबर में बौद्ध संघों का प्रचार-प्रसार बढ़ता ही गया। जिसके प्रभाव से वैदिक धर्म भी प्रभावित हुआ।  उस युग में जब अशोक जैसे बड़े-बड़े नरेश सपरिवार बौद्धमत की दीक्षा ले रहे थे तो उनके सैनिक भी युद्ध से विमुख हुए ।  राज्य की सीमा और आतंरिक अराजक तत्वों से लड़ना भी उन्हें पाप लगने लगा। परिणामस्वरुप राज्यों की सुरक्षा व्यवस्था ढ़ीली हो गयी।  वो एक ऐसा कालखण्ड था जब शक-कुशाण-हूण आक्रमणों से जनमानस भयभीत रहता था।   इन तमाम कारणों से तराई भाबर की द्रोणघाटी कई सौ वर्षों तक जनशून्य बनी रही।

प्रसिद्द भूगोलवेत्ता व इतिहासकार डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ ने भी स्वीकार किया है कि दसवीं ईस्वी के पश्चात् के किसी भी ग्रन्थ में कण्वाश्रम का उल्लेख नहीं मिलता है। कण्वाश्रम के जनशून्य होने के उपरान्त कई सदियों के बाद इसके आसपास पुनः नयी बस्तियों का बसना प्रारंभ हुआ। सोलवीं ईस्वी में कण्वाश्रम से लगभग १४ किलोमीटर की दूरी पर कोटद्वार नगर का निर्माण हुआ ।   इस नगर के अस्तित्व में आने से कण्वाश्रम की पुनर्संरचना के द्वार खुल गए ।  यहाँ प्रसंगवश यह बताना आवश्यक है कि गढ़वाल में पंद्रहवीं ईस्वी में गढ़राज्य, गढ़देश  राज्य में विलीन हो गए थे। तब ऊंचे पर्वतों के गढ़पति ग्रामों में ही कोट बनाकर थोकदारी करने लगे। असंख्य कोटों के होने से यह तराई भाबर का मार्ग कोटों के देश में जाने के मार्ग के कारण कोटद्वार कहा जाने लगा ।   कोटद्वार में घना जंगल था ।   यहाँ से पर्वतीय भाग लग जाता है।   इस भाबर के तराई भाग में हरिद्वार की ओर से दसोत वसूलने के लिए चौकीघाटा थी ।   यहीं पर ही १६६८ ईस्वी में फ़तेह शाह ने गढ़राज्य के प्रमुख सेनापति पुरिया नैथानी को २००० एकड़  भूमि  दान में दी थी ।   चौकीघाटा में प्राचीन काल से  मण्डी भी थी ।   सन् १९२४ की भयंकर बाढ़ ने मण्डी को नष्ट कर दिया था ।   इस सबका विपरीत प्रभाव तत्कालीन कोटद्वार पर भी पड़ा ।   एक बार फिर सन् १८७९ में डिप्टी कमिश्नर ग्रास्टन ने खोह नदी पार सिद्धबली क्षेत्र में कोटद्वार नगर बसाना प्रारम्भ किया ।   यहां भी खोह नदी में बाढ़ आने पर नवसृजित कोटद्वार नगर एक बार फिर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगा ।    आखिरकार सन् १९०७ ईस्वी में नदी की दूसरी ओर पण्डित गंगादत्त जोशी खामसुपरिटेन्डेन्ट के द्वारा कोटद्वार नगर को बसाया गया । इन्हीं विसंगतियों के चलते कण्वाश्रम को भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा ।   बदलाव के सैकड़ों वर्षों के उतार-चढ़ाव को देखते हुए बीसवीं सदी का मध्यकाल, कण्वाश्रम के विकास के लिए  एक रोशनी लेकर आया ।

सन् १९५५ में उत्तर प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री डॉक्टर सम्पूर्णानन्द का कोटद्वार आगमन हुआ ।   उस समय वर्तमान का उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश राज्य का हिस्सा हुआ करता था । डॉक्टर सम्पूर्णानन्द स्वयं एक उच्चकोटि के विद्वान् राजनेता होने के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों  के पारखी व्यक्ति थे ।   उन्होंने उपेक्षित पड़े कण्वाश्रम के विकास की योजना बनायी ।   उन्होंने तत्कालीन ज़िलाधिकारी बागची को कण्वाश्रम को पुनर्जीवित करने की सलाह दी ।   तब शीघ्र एक समिति का गठन किया गया ।   उस कमेटी के तत्वाधान में सन् १९५६ को मंत्री जगमोहन सिंह नेगी के करकमलों द्वारा वर्तमान कण्वाश्रम का शिलान्यास हुआ ।   तब से आज तक यहाँ वसंत पंचमी के अवसर पर तीन दिवसीय वसंत मेले का आयोजन किया जाता है ।   विगत  काल में तीर्थाटन , शिक्षा और आध्यात्म का केंद्र रहे कण्वाश्रम पर अब पर्वतीय संस्कृति और सभ्यता के संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी आन पड़ी है ।  मगर अस्तित्व के संघर्षों के बीच कण्वाश्रम क्षेत्र के सर्वांगीण विकास का एक यक्ष प्रश्न अभी भी खड़ा है ।

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