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होम भारत

प्यासे-रुआंसे ‘सौ’ भोले गांव

आज भी राजस्थान में ऐसे सैकड़ों गांव हैं, जहां न सड़कें हैं, न पानी, न अस्पताल-स्कूल। भारत के पश्चिमी छोर की रखवाली करने वाले 98 गांव, अब तक 80 के दशक में हुई एक बड़ी गलती का खामियाजा भुगत रहे

by डॉ. क्षिप्रा माथुर
Mar 9, 2024, 10:10 am IST
in भारत, विश्लेषण, राजस्थान
बाड़मेर जिले के गांव गड़स में बना एक टांका (जल भंडारण), इसमें बाहर से लाकर पानी भरा जाता है

बाड़मेर जिले के गांव गड़स में बना एक टांका (जल भंडारण), इसमें बाहर से लाकर पानी भरा जाता है

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बाड़मेर, भारत के पश्चिमी छोर का सरहदी इलाका है और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा संसदीय क्षेत्र। मखमली रेत वाले थार रेगिस्तान के इस हिस्से ने ’71 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपनी जान की कीमत पर भारतीय फौज के सिर जीत का सेहरा बंधवाया था। युद्ध में बलिदान हुए वीरों के नाम से यहां गांव भी बसे हैं, लेकिन वहां तक पहुंचने को रास्ते कच्चे ही हैं अब तक।

इस इलाके की मिट्टी में तन सिंह नाम के विधायक-सांसद हुए, जिन्होंने अध्यात्म, क्षात्र धर्म और अपने सेवा बोध से समाज को इतना सींचा कि उन्हें संत जैसा दर्जा मिला है। लोग उन्हें पूजते हैं और उनके लिखे प्रेरक साहित्य को लोक-संवाद और गुणगान में शामिल भी किए रहते हैं। यह नव-स्वतंत्र देश के उस दौर का चरित्र रहा जब अपनी मिट्टी से अटूट लगाव और चिंतन ही राष्ट्रधर्म की तरह उभरा था। लेकिन उनके बाद आई नेताओं की पीढ़ियों ने न बड़ी सोच से इसे सींचा, न विकास की खेजड़ी (मरुस्थल में उगने वाला एक वृक्ष) यहां पनपने दी।

नहर पास, पर नसीब में नहीं

पाकिस्तान सीमा से सटे मुनाबाव से 40 किलोमीटर पहले है गडरा रोड। यहां से ‘भारत माला’ की सड़क से मुड़कर शुरू हुए इधर के तीन विधानसभा क्षेत्रों में एक है ‘शिव’। चुनाव के दौरान यह ‘हॉट सीट’ बनकर इसलिए उभरा कि यहां के धोरों में बसे, भोले निवासियों के लिए यहीं का एक पढ़ा-लिखा छात्र-नेता इस बार प्रदेश की राजनीति में कूद पड़ा। अपने दम पर राजस्थान विधानसभा में सबसे कम उम्र के विधायक के तौर पर चुनकर आते ही 26 साल के रवींद्र सिंह ने ठेठ मारवाड़ी में विधानसभा में अपने गांवों की बदहाली की बात उठाई।

अब तक अमीन खान जैसे नेताओं के भरोसे गुजर-बसर करते हुए इस इलाके ने मूल मुद्दों पर बात करने की बजाए, नेताओं को बस अपने घर भरते ही देखा। यहां गायब हुए मोबाइल नेटवर्क के बीच रास्ता भटककर, वीरान धोरों में पांवों के निशान तलाशते, बमुश्किल नजर आए युवा राहगीर के भरोसे हम पहुंच पाए गड़स गांव। जीवन की हर मायूसी के बीच, पांवड़ों के आने पर पलकें बिछाए पूरा गांव इकट्ठा हुआ। महिलाओं से अलग जाकर मिलना हुआ, तो वे सब खूब खुल कर बोलीं। दरिया देवी कहती हैं, ‘‘हमारे गांव में बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, अस्पताल कुछ नहीं है और गांव के 100 परिवारों के 25-30 लड़के कुंआरे बैठे हैं।’’ सरहद के खोखरापार से ’71 की लड़ाई के बाद यहां बसे गांव के बुजुर्गों के पास दौलत के नाम पर ऊंट-बकरियों का पशुधन है और कुछ बीघा बंजर जमीन। यहां बस उतना ही उगा पाते हैं जो सेवण घास से अटे धोरों में खाने लायक उग जाए।

बाकी पीने का पानी टैंकर से ही खरीदते हैं। गांव के बच्चे, जवान और महिलाएं सबके फ्लोराइड वाले पीले दांत और घुटनों की तकलीफ देखकर अंदाज हो जाता है कि पानी भी कैसे भीतर-भीतर खोखला कर रहा है हर पीढ़ी को। एक संस्था अपने शुरू किए दो कमरों के प्राथमिक विद्यालय को भी थक-हार कर छोड़ गई। पोषाहार के बहाने हर उम्र के बच्चों का दिन यहां निकल तो जाता है, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए रोज 20-25 किलोमीटर दूर जाना संभव ही नहीं। जाने का कोई साधन भी नहीं हैं। गांव के खेत सिंह कमाने जोधपुर जाते हैं।

वे कहते हैं, ‘‘सरकारी योजना और दुनिया की कोई जानकारी भी यहां तक पहुंच नहीं पाती, क्योंकि मोबाइल टॉवर हैं ही नहीं। टीलों पर चढ़ते हैं तो मुश्किल से नेटवर्क पकड़ आता है। सौर ऊर्जा के भरोसे घर की जरूरत पूरी करते हैं।’’ यहां इस जैसे अब 98 गांवों के कच्चे रास्तों के मुख्य सड़क से जुड़ते ही बिजली के खंभे तो फिर भी दिख जाएंगे, मगर उनके तार इन गांवों तक नहीं खिंच सकते। पास से जा रही राजस्थान नहर के पानी को भी ये अपनी तरफ नहीं मोड़ सकते। इस दुविधा को मौजूदा विधायक रवींद्र भी साझा करते हैं, ‘‘नहर से पानी की लाइन डालने, ट्यूबवेल खुदवाने सहित जीवन की बेहतरी के हर काम में ही बड़ी अड़चन है, इस रेगिस्तान को नेशनल पार्क माना जाना।’’

गड़स गांव के कुछ बुजुर्ग

पार्क ने छीने पंचायत के हक

असल में थार रेगिस्तान का 60 प्रतिशत राजस्थान के हिस्से है। यहां जो जीव-जंतु, पंछी, पेड़-पौधे-घास पनपती है वह सिर्फ, यहीं की अमानत है। यहां की खासियत बनाए रखने के लिए इन सबका संरक्षण भी जरूरी है। राजस्थान का राज्य पक्षी गोडावण भी यहीं बसता है, जो लुप्त हो रहा है। रेगिस्तान की खास पारिस्थितिकी की फिक्र में 1980 में दौरे पर आई एक केंद्रीय टीम ने जैसलमेर-बाड़मेर के उस वक्त 73 गांवों और कई ढाणियों वाले 3162 वर्ग मिलोमीटर वाले इस पूरे सरहदी इलाके को ‘डेजर्ट नेशनल पार्क’ (डीएनपी) घोषित कर दिया। इसके बाद इसका कोई पुख्ता ‘नोटिफिकेशन’ तक नहीं निकला। आज इस दायरे में जैसलमेर के 39 और बाड़मेर के 54 गांव आते हैं। इनकी खैरियत पूछने वाला कोई नहीं है। वन विभाग ने यहां बसे लोगों के अधिकारों पर ज्यादा बंदिशें लगाई तो अदालत ने भी दखल दिया।

बाड़मेर के वकील स्वरूप सिंह सहित जागरूक नागरिकों ने डीएनपी की आबादी को मूल सुविधाओं से वंचित किए जाने का विरोध किया, इसके लिए आंदोलन भी किया। न्यायालय में इस ‘नोटिफिकेशन’ को चुनौती दी गई, कि नेशनल पार्क घोषित करने के लिए वन संरक्षण कानून में अपनाई जाने वाली सारी प्रक्रियाओं और लोगों की भागीदारी को दरकिनार किया गया है। न गांव वालों से उनकी आपत्तियां मांगी गईं, न उन्हें इंसानी बसावट के अधिकार ही मिले।

सबसे बड़ा अपराध यही हुआ कि संरक्षित इलाके में बसे गांव तो बरकरार रहे और ग्राम पंचायत भी बनी, स्थानीय चुनाव भी लगातार हुए और लोकतंत्र भी बहाल रहा। लेकिन ग्राम पंचायतों के पानी, बिजली, सड़क के सब अधिकार जब्त हो गए। और तब से यहां के गांव-ढाणियों के लिए पानी, शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य और रोजगार सब राम भरोसे ही है। टैंकर से भरी जा रही पुरानी बेरियां-टांके, प्यास बुझाने का अकेला जरिया हैं। टैंकर के गणित से हर घर का हिसाब-किताब गड़बड़ाया रहता है। कुछ गांवों में टूटी पाइप लाइन की वजह से भी पानी नहीं आता। 250 परिवारों की आबादी वाले बीजावल गांव से ‘अपनापन’ भरी बोली में ही सुनने को मिला।

गड़स गांव के कुछ बच्चे

भारत-माला भी अटकी

डेजर्ट नेशनल पार्क के नाम पर कुछ तो वन विभाग के हाथ बंधे हैं, तो कुछ मनमानियां भी हैं। बीजावल गांव के सरपंच मोहन सिंह पलट कर पूछते हैं, ‘‘आपको कहीं कोई लोमड़ी, गोडावण, दुर्लभ वन्यजीव नजर आए? कहीं वन विभाग का कोई अधिकारी-कर्मचारी दिखा? कौन किसे सहेज रहा है यहां?’’ जिन जीव जंतुओं-स्थानीय पेड़-पौधों को बचाने के लिए इसे पार्क घोषित किया गया है, उसकी रखवाली वैसे भी विभाग नहीं, सदियों से यहां के निवासी ही करते रहे हैं। इस गांव के 100 परिवारों के सब पुरखे पाकिस्तान से विस्थापित हैं।

तब, हर परिवार को 75 बीघा जमीन देकर यहां बसाया गया था। लेकिन इस जमीन पर न पक्का काम करवा सकते हैं, न बिक्री कर सकते हैं, न उसका रूपांतरण करवा सकते हैं। और बाकी की जमीन सरकारी है जिस पर डामर रोड भी नहीं बनाई जा सकती। दो साल पहले, सभी गांवों के सरपंचों ने लिखित में दिया, तब से काफी जद्दोजहद के बाद एक फेज वाला बिजली कनेक्शन तो मिलने लगा लेकिन कृषि-कनेक्शन नहीं मिलता।

नरेगा और किसान क्रेडिट कार्ड के हकदार भी नहीं यहां के बाशिंदे। नलकूप, कृषि कुएं खोदने की कायदे से मनाही भी नहीं लेकिन विभाग अपने ही कानून लगाकर डीएनपी का खौफ बनाए रहता है। बाड़मेर के ‘सुंदरा’ इलाके से ‘केसरसिंह का तलाक’ तक की भारत माला सड़क का काम भी डीएनपी के नाम पर रुका हुआ है। जैसलमेर से म्याजलर तक की 64 किलोमीटर सड़क भी आगे नहीं बढ़ पा रही। देश की सरहद, सुरक्षा और विकास की सबसे अहम ‘भारत माला’ परियोजना को रोके जाने पर, रक्षा विभाग की सख्ती के बहाने यहां की सुध लेना जरूरी है।

1995 और फिर 2001 के दौरान जैसलमेर-बाड़मेर में दो बार तैनात रहे लेफ्टिनेंट जनरल (सेनि) मनोज कुमार मानते हैं कि सरहदी गांवों के विकास से लोगों का व्यवस्था पर भरोसा मजबूत होता है, इसलिए राह की हर अड़चन को हटाया जाना चाहिए। हर दस साल में यहां के विकास का कागजी खाका भी बनता है, जिससे किसी को कोई सरोकार नहीं है। अधिकारियों-जन-प्रतिनिधियों के बीच इंसानी रिश्ता कायम हुए बगैर, सारी कुदरती और कारोबारी संभावनाओं से भरा यह इलाका पिछड़ेपन की त्रासदी झेलता रहेगा।

थे पाणि दुवा दो सा..

रामसर और गडरा रोड से होते हुए हम जीरे के खेतों को पीछे छोड़ते हुए, जैसे-जैसे ‘शिव’ क्षेत्र की ओर बढ़ते गए, रोजड़े, हिरण, ऊंट, गायों, बकरियां अगल-बगल टहलते मिले। इसके बाद हाफिया, कमालानी, बीजावल, समन्द का पार, अली की बस्ती, चौथ्याली, बनियाली, समीर का पार जहां-जहां भी कदम रखा, सबकी एक ही अरज थी – ‘थे पाणि दुवा दो सा।’ यानी पानी दिला दो। सरहद से सटे होने के बावजूद बाड़मेर सबसे शांत इलाका है। बकरी-भेड़ पालन ही आजीविका है।

बाड़मेर के ‘सुंदरा’ इलाके से ‘केसरसिंह का तलाक’ तक की भारत माला सड़क का काम भी डीएनपी के नाम पर रुका हुआ है। जैसलमेर से म्याजलर तक की 64 किलोमीटर सड़क भी आगे नहीं बढ़ पा रही। देश की सरहद, सुरक्षा और विकास की सबसे अहम ‘भारत माला’ परियोजना को रोके जाने पर, रक्षा विभाग की सख्ती के बहाने यहां की सुध लेना जरूरी है।

 

वकील स्वरूप सिंह की याद्दाश्त में यह बात ताजा है कि इस मुद्दे पर यहां से सांसद और देश के रक्षा मंत्री रहे जसवंत सिंह ने सुषमा स्वराज के जरिए संसद में सवाल उठाया था, तब मनमोहन सरकार थी। उनका सीधा सवाल था- डेजर्ट में कैसा पार्क? यह सवाल यहां 100 मिलीमीटर बारिश, धूल भरे अंधड़, सर्द रातों में बर्फ सी ठंडी रेत, 50 के पार जाते पारे और लू के बीच आज भी वहीं खड़ा है। पश्चिम की बोली, जीवनशैली, पहनावे और अपनायत को ओढ़ने-बिछाने वाले, राष्ट्र भाव से भरे ये गांव, बगैर राष्ट्रीय पार्क के दर्जे के भी पशु-पक्षी, पेड़, झाड़ी, घास, हवा, नीति, पानी सबकी रखवाली करते ही रहे हैं। लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ता यहां वन्यजीवों के मुद्दे अदालत में खींचते रहे हैं, जिससे इंसानी बस्तियों के हक सिमटे रह जाते हैं।

बीच का रास्ता यही है कि नेशनल पार्क की बजाय इसे अभयारण्य (सेंचुरी) या फिर कच्छ के रन की तर्ज पर बायोस्फीयर की श्रेणी में डाल दिया जाए तो यहां पानी की पाइपलाइन बिछाने, सड़कों के लिए खुदाई करने, बिजली कनेक्शन देने जैसे सारे काम आसान हो जाएं। एक कदम आगे का रास्ता है, इंसान-जीव जगत के बेहतर तालमेल वाली खूबी बनाए रखते हुए, मीलों पसरे धोरों में बसी इस मेहनती-सहनशील आबादी को पर्यटन, उत्पादन और उद्योगों से जोड़ना। लेकिन इससे पहले इसे ‘पार्क’ के ठप्पे से बाहर खींचने की नीतिगत पहल, राज्य और भारत सरकार के बीच किए संकल्प और समन्वय के बूते ही संभव है।

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