अकबर शेर और सीता शेरनी? सनातन धर्म का 'लिबरल्स' उड़ा रहे मजाक
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अकबर शेर और सीता शेरनी? सनातन धर्म का ‘लिबरल्स’ उड़ा रहे मजाक

शेक्सपियर ने कहा था कि “नाम में क्या रखा है?” मगर क्या यही सच है? क्या नाम कुछ मायने नहीं रखता है? दरअसल नाम ही तो मायने रखता है, नाम में ही पहचान छिपी होती है।

by Kuldeep singh
Feb 20, 2024, 12:24 pm IST
in भारत
Akbar lion Sita lioness

प्रतीकात्मक तस्वीर

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बंगाल में इन दिनों हिन्दू महिलाओं के साथ जो हो रहा है, वह सभी देख रहे हैं मगर पशुओं के माध्यम से भी हिन्दुओं और सनातन धर्म का अपमान किया जा रहा है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि शेर और शेरनी का नाम अकबर और सीता रख दिया जाए? इससे सम्बंधित ख़बरें कैसी बनेंगी? क्या बानगी होगी इन खबरों की?

विश्व हिन्दू परिषद ने कलकत्ता उच्च न्यायालय की जलपाई गुड़ी सर्किट बेंच में मामला दर्ज करवाया है। उनका यह आरोप है कि सफारी पार्क में शेरनी का नाम सीता रखकर ‘हिन्दू धर्म’ का अपमान किया है। अब इसे लेकर राजनीति भी होने लगी है क्योंकि मीडिया के अनुसार, राज्य के वनमंत्री बीरबाहा हांसदा ने जानवरों के नाम पर ओछी राजनीति करने का आरोप विहिप पर लगाया है। उनके अनुसार अभी शेर और शेरनी के नाम तय नहीं हुए हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से नाम रखने का अनुरोध किया है।

विश्व हिन्दू परिषद के जलपाईगुड़ी प्रमुख दुलाल चन्द्र राय का कहना है कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं और चूंकि उनकी सुनवाई अधिकारियों द्वारा नहीं हुई, इससे वह लोग न्यायालय आए हैं। हालांकि, इसकी सुनवाई 20 फरवरी को होनी है, मगर इसे लेकर सरकार के स्तर पर यही कहा जा रहा है कि अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जिससे यह विवाद हो।

अर्थात अभी नाम तय नहीं किए गए हैं। वनमंत्री का कहना है कि चूंकि ये शेर और शेरनी त्रिपुरा से लाए गए हैं, तो हो सकता है कि वे नाम वहां पर रखे गए हों। इस मामले को लेकर जहां विहिप ने अपमान को लेकर याचिका दायर की है तो वहीं सोशल मीडिया पर कथित लिब्रल्स या सेक्युलर हैंडल इसे लेकर उपहास कर रहे हैं। उनके लिए यह भारत में हंगामा करने वाला एक और विषय है, जिसमें कथित रूप से पशुओं को घसीटा जा रहा है, या फिर लव जिहाद जैसे विषय को अब पशुओं पर थोपा जा रहा है।

क्या यही सच है या फिर यह और भी गंभीर मामला है? शेक्सपियर ने कहा था कि “नाम में क्या रखा है?” मगर क्या यही सच है? क्या नाम कुछ मायने नहीं रखता है? दरअसल नाम ही तो मायने रखता है, नाम में ही पहचान छिपी होती है। सीता नाम में प्रभु श्री राम की पहचान के साथ ही ऐसी स्त्री की पहचान छिपी है जिसने अपने पति और प्रेम के लिए महलों के सुख त्याग दिए और चरित्र पर आंच नहीं आने दी।

नाम का प्रभाव बहुत अधिक होता है। जिस नाम में सम्पूर्ण मातृत्व समाया हुआ है, जिसे लेकर हिन्दू समाज माता का भाव रखता है, उसे यदि अकबर के साथ घूमता हुआ दिखाया जाएगा, तो उससे आम हिन्दू जनों में क्या भाव जाएगा?

क्या किसी और मत के साथ धार्मिक प्रतीकों का नाम इस प्रकार रखा जा सकता है? कथित सेक्युलर बंगाली अजीब पोस्ट कर रहे हैं, जिसमें यह तक लिख रहे हैं कि क्या हो यदि सीता पहले से ही अकबर के कब्स से लव जिहाद के अंतर्गत गर्भवती हो? क्या विहिप इन शेर के बच्चों को घर वापसी के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापस लाएगी?

अपने आप को रिसर्चर और राइटर कहने वाले सुकुमार मुरलीधरन ने अदा शर्मा के केरल स्टोरी वाले पोस्ट को रीपोस्ट करते हुए लिखा कि शेर अकबर और शेरनी सीता के लव जिहाद ने तुम्हारी जगह को ले लिया है।

पूर्व में इन्डियन एक्सप्रेस, द हिन्दू में काम कर चुकी एवं आवाज़साउथएशिया की संस्थापक एवं सम्पादक निरुपमा सुब्रमण्यम ने एक्स पर पोस्ट लिखा, “भारत में एक आम दिन। अब एक शेर पर लव जिहाद का आरोप लगा है। यह कलकत्ते में है, और चारधाम में नहीं, तो कम से कम शेर और शेरनी को अपने संबंधों का पंजीकरण नहीं कराना होगा और जेल नहीं जाना होगा!”

Daily life in India – Now a lion is being accused of “love jihad”. It’s Kolkata, not chardhaam land, so at least the lion and the lioness won’t be accused of not registering their relationship and packed off to jail. https://t.co/6XpSUjYgjL

— Nirupama Subramanian (@tallstories) February 17, 2024

ये कल्चरल जीनोसाइड

यही कल्चरल जीनोसाइड की अवस्था होती है, जिसमें एक धर्म के प्रतीक के अपमान को इस सीमा तक सहज कर दिया जाए कि वह अपमान लगे ही नहीं। फिल्मों ने यह काम बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर किया है। एक फिल्म आई थी फायर! यह दो यौन अतृप्त महिलाओं के जीवन पर आधारित फिल्म थी, जिसमें दोनों महिलाएं दैहिक सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं।

यह कहा गया कि यह फिल्म इस्मत चुगताई की कहानी लिहाफ पर आधारित है। मगर सबसे बड़ा खेल देखिये कि इसमें महिला चरित्रों के नाम थे सीता और राधा! जबकि लिहाफ में बेगम जान और रब्बो थे। नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता है क्या? या फिर हमारा मस्तिष्क ही ऐसा कर दिया है जिसमें राधा डांस फ्लोर पर नाच रही है और सीता अकबर के साथ वन में विचरण कर रही है और कथित लिबरल कह रहे हैं कि देश असहिष्णु हो गया है? क्या वास्तव में देश असहिष्णु हुआ है या फिर नाम के माध्यम से जो खेल अभी तक खेला जा रहा था, उसे लेकर जागृत हुआ है, उसकी महत्ता को समझने लगा है?

इसे लेकर और विमर्श की आवश्यकता है, मगर नाम ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि शूरवीर होते हुए भी आज तक कंस किसी का नाम भी नहीं रखा गया है, क्योंकि हर नाम एक प्रतीक है, हर नाम एक संस्कृति है और हर नाम एक सांस्कृतिक पहचान और प्रतीक है।

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