राम और लक्ष्मण रामायण में वर्णित दो ठोस आधार हैं। अयोध्या के दशरथ महल से निकल कर दोनों कुमार ऋषि विश्वामित्र संग नगर के बाहर पहुंचे। यह उनकी यात्रा का दूसरा पड़ाव था। जहां वे रुके वह है श्रृंगी ऋषि आश्रम
ऋषि के उचित मार्ग के प्रश्न का उत्तर देते हुए दोनों भाई तीन दिन वाले मार्ग को चुनते हैं। इसे सुनकर ऋषि को लगता है कि ये निश्चित ही राम-लक्ष्मण नहीं हैं। ऐसे में वे पुन: अयोध्या आते हैं। वहीं आत्मग्लानि से भरे राजा दशरथ अपनी गलती स्वीकारते हुए राम-लक्ष्मण को विदा करते हैं। यह कथा माधव कंदली कृत असमिया रामायण में वर्णित है। जहां तक इस यात्रा में राम संग लक्ष्मण के जाने की बात है तो इसके दो कारण हैं।
पहला कारण है, बालपन के खेल से लेकर किशोर वय की शिक्षा-दीक्षा तक में लक्ष्मण सदैव राम का और शत्रुघ्न भरत का अनुसरण करते थे। इस नाते भी लक्ष्मण का राम के साथ जाना स्वाभाविक था। वहीं अवतार के आधार पर सोचें तो लक्ष्मण का शेषावतार होना स्वत: ही उन्हें राम का अनुयायी बनाता है। ये दोनों रामायण में वर्णित दो ठोस आधार हैं। अयोध्या के दशरथ महल से निकल कर ये दोनों कुमार ऋषि विश्वामित्र संग नगर के बाहर पहुंचे।
यह इस यात्रा का दूसरा पड़ाव था। जिस जगह पर इनका रुकना हुआ वह सरयू तट पर अवस्थित श्रृंगी ऋषि आश्रम है। यह वही ऋषि हैं जिनके यज्ञ का परिणाम राम जन्म है। इससे संबंधित दृष्टांत का सुंदर चित्रण रामचरितमानस में आया है। यहां गोस्वामी तुलसीदास जी कह रहे हैं-एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरे सुत नाहीं। संतानहीनता से व्यथित राजा दशरथ अपने गुरू वशिष्ठ मुनि के यहां जाकर अपनी पीड़ा सुनाते हैं।
ग्लानि से भरे नरेश की कातर विनती सुनकर मुनि श्रेष्ठ कहते हैं-धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी अर्थात धैर्य धरो, तुम्हें तीनों लोकों में प्रसिद्धि दिलाने और सबका भय हरने वाले चार यशस्वी पुत्र होंगे। इसके उपरांत वशिष्ठ मुनि ने पुत्रेष्टि यज्ञ हेतु ऋषि श्रृंगी को बुलवाया। विभाण्डक ऋषि के पुत्र ऋषि श्रृंगी अत्यंत सरल चित्त और सिद्ध पुरुष थे। इन्हें अंग क्षेत्र मे वर्षों से पड़े सूखे की समाप्ति के लिए बुलाया गया था।
अंग वर्तमन के भागलपुर क्षेत्र का पुरातन नाम है। बिहार का यह पूर्वी क्षेत्र कई पौराणिक कहानियों का गवाह है। रामायण कथा अनुसार कहते हैं, ऋषि श्रृंगी के आगमन मात्र से यहां पर्याप्त वर्षा हुई और फिर कभी अकाल नही पड़ा। अंग नरेश लोमपाद ने इनसे अपनी पुत्री देवी शांता का विवाह किया था। ये नरेश महाराज दशरथ के अनयन मित्र थे। ऐसे में यज्ञ हेतु ऋषि दंपति को अयोध्या बुलाया गया। अयोध्या में ऋषि दंपति ने नगर के बाहर सरयू तट पर निवास करना पसंद किया। जिस स्थान पर इनकी कुटिया बनी, वह ऋषि श्रृंगी आश्रम के नाम से जाना जाता है। यह स्थान अयोध्या नगरी से करीब 20 कि.मी. पूर्व में अवस्थित है। इसे आजकल शेरवा घाट के नाम से पुकारा जाता है।
यह अयोध्या जनपद में अयोध्या नगरी की चौरासी कोसी परिक्रमा का तीसरा पड़ाव स्थल है। यहां श्रृंगी ऋषि दंपति की स्मृति में मंदिर बना है, जहां पिंडी रूप में उनकी पूजा-अर्चना होती है। इस स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र रामनवमी को बड़ा मेला लगता है। इस स्थान से थोड़ी दूर मनोरमा नदी बहती है जिसके किनारे पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया गया था। इस यज्ञ के नाते इस स्थान का नाम मखौड़ा पड़ा। मख यज्ञ को कहते हैं। अपने यात्रा क्रम में इन लोगों ने प्रथम रात्रि विश्राम इसी स्थान पर किया था। यहां से मखौड़ा भी दिखता है।
राम-लक्ष्मण को पाकर ऋषि विश्वामित्र को निश्चित ही अपना मनोरथ पूर्ण होने का आभास हुआ होगा। उनके इस भाव की अभिव्यक्ति रामचरित मानस के श्याम गौर सुंदर दोऊ भाई बिस्वामित्र महानिधि पाई में समाहित है। यहां ऋषि विश्वामित्र ने दोनों कुमारों को बला-अतिबला नामक विद्या प्रदान की थी। इसी के परिणामस्वरूप रोग एवं और भूख पर विजय प्राप्त करने की शक्ति राम-लक्ष्मण में आई थी। इसके प्रभाव से वे कभी थकते नहीं थे। इस विद्या के विशेष प्रभाव की चर्चा विस्तारपूर्वक रामायण में आई है। क्रमश:
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