बांग्लादेश का राजशाही पुठिया क्षेत्र प्राचीन अविभाजित अखण्ड भारत के उन गिने-चुने स्थानों में से है जहां विगत दो सहस्त्राब्दियों के प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, पुरावशेषों, सिक्कों व अभिलेखों का भण्डार है। मन्दिरों की सुन्दर नक्काशी, भव्य शिल्प, सुन्दर प्राचीन हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, सुरूचिपूर्ण महल, प्राचीन शिलालेख व पाण्डुलिपियां देखते ही बनती हैं। वहां के वरेन्द्र शोध संग्रहालय की छह गैलरियों में सिन्धुघाटी सभ्यता के पुरावशेषों सहित बंगाल के सुरूचिपूर्ण मन्दिरों, सिक्कों, अभिलेखों सहित अनगिनत पुरावशेष हैं।
इतिहास
ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित केवर्त साम्राज्य से चली आ रही शासन परम्परा के परवर्ती काल में राजशाही-पुठिया क्षेत्र में मौर्य, गुप्त, पाल, राजा गणेश के वंशजों, कलापहद, बारो, भुयान, पुण्ड्रवर्द्धन, बरियान ब्राह्मण राजवंश व राजा दीवान मोहनलाल आदि के साम्राज्य रहे हैं। कैवर्त राजवंश का साम्राज्य कैलवर्त के नाम से सातवीं सदी (640-730) में भी पुन: अस्तित्व में रहा है। यहां पुण्ड्रवर्द्धन के ब्राह्मण साम्राज्य का भी राज्य रहा है। इस काल के सातवीं सदी के प्राचीन सिक्के (चित्र1) राजशाही विश्वविद्यालय वरेन्द्र्र संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
पालवंश के संस्थापक राजा गोपाल के राज्य का उल्लेख खलीमपुर ताम्रपत्र में भी मिलता है। राजा गणेश, जिन्हें दनुजमर्दन देव भी कहा गया है, के काल वर्ष 1417 के सिक्के भी वरेन्द्र संग्रहालय में संग्रहीत हैं। राजा गणेश के अपने पूर्वजों में राजा दनुजमर्दन के नाम से वर्ष 1417में जारी सिक्कों में एक ओर राजा का नाम व दूसरी ओर ‘‘श्री चण्डी चरण प्रयाण’’ उत्कीर्णित किया है (चित्र 14)। इन सिक्कों की कीमत अभी सवा लाख रुपये आंकी गई है। इनका विस्तार अराकान (म्यांमार) तक रहा है। उपरोक्त कैवर्त राजवंश के राजा केवट जाति के थे जो आज अनुसूचित जाति में है। काशी प्रसाद जायसवाल एवं पाण्डुरंग वामन काणे आदि के अनुसार पाल वंश के संस्थापक गोपाल भी शूद्र थे। इस प्रकार पुण्ड्रवर्द्धन ब्राह्मणों के साम्राज्य के अधीन कैवर्त व पाल वंश शूद्र वर्ण के राजा थे। इस प्रकार प्राचीन भारत में सभी वर्णों के राजा रहे हैं। उनके द्वारा बनवाए कृष्ण मन्दिर के पुरावशेष आज भी हैं। संग्रहालय में प्राचीन अतिभव्य चतुर्भुत विष्णु भगवान की प्रतिमा (चित्र 2) सहित बड़ी संख्या में पुरावशेष, अभिलेख, सिक्के व प्रतिमाएं हैं।
पुठिया के कल्पनातीत सुंदर मन्दिर
पुठिया राजशाही के मन्दिर विश्व के अति भव्य कहलाने वाले मन्दिरों के संकुल हैं। इनमें से कुछ प्रतिनिधि-मन्दिरों का संक्षिप्त उल्लेख निम्नानुसार है:
पंचरत्न गोविन्द मन्दिर : पुठिया के राज परिवार द्वारा निर्मित भगवान श्रीकृष्ण का यह मन्दिर रत्नमय पांच ऊंचे शिखरों से युक्त है (चित्र 3)। इस मन्दिर की दीवारों पर अत्यंत सुन्दर व सुरूचिपूर्ण मृण्मय व कलात्मक रूप से राम लीला व कृष्ण लीला की श्रृंखला चित्रित है (चित्र 4)।
पंचरत्न शिव मंन्दिर : प्राचीन शिवसागर झील के किनारे पर यह एक अत्यंत भव्य व मनोरम शिव मन्दिर है। झील किनारे ऐसा मनोरम शिव मन्दिर सम्भवत: दूसरा कदाचित ही कहीं होगा (चित्र 5) पांच उर्ध्व शिखरों से युक्त इस शिव पंचायतन मन्दिर को बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971) के समय पाकिस्तानी सैनिकों ने क्षतिग्रस्त किया था। लेकिन, उनके द्वारा यहांके शिवलिंग (चित्र 6) को उखाड़ने व क्षतिग्रस्त करने के सभी प्रयासों के बाद भी वह सुरक्षित रहा। इसे भुवनेश्वर शिव मन्दिर नाम से भी सम्बोधित करते हैं।
छोटा व बड़ा आन्हिका मन्दिर : यहांश्रीकृष्ण के दो मन्दिर हैं जो छोटा आन्हिक मन्दिर व बड़ा आन्हिक मन्दिर (चित्र 7 व 8) नाम से हैं। उनकी मृण्मय कला अत्यंत भव्य है। दीवारों पर मिट्टी की सुन्दर कलाकृतियां बनी हुई हैं।
अपर्णा काली मन्दिर शक्तिपीठ : राजशाही विभाग के बोगरा जिला के अन्तर्गत शेरपुर उपजिला से 28 किमी दूरी पर भवानीपुर गांव में यह शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर माता सती के पैर की बायां पंजा/बायीं पसली का निफत हुआ था। यहां पहुंचने के साधन बहुत नहीं हैं। प्रत्येक शक्तिपीठ में विशिष्ट भैरव का भी स्थान है। भैरव को भगवान शिव का ही अवतार माना जाता है। यहां बामेश भैरव या वामन भैरव का स्थान है।
बड़ी संख्या में अन्य भव्य मन्दिर: अठारहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के बीच पुठिया-राजशाही में वहां के हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित दो स्तर व चार स्तर के अनेक मन्दिर हैं। इन मन्दिरों की गिनती भी कठिन है। इस मन्दिरों की नगरी के कुछ मन्दिरों के नाम व चित्र ही यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं। डोल माण्डव चार छत वाला मन्दिर (चित्र 13) राजा वुबनेन्द्र्र नारायण द्वारा 1778 में बनवाया गया था। चतु:शाल छोटा गोविन्द मन्दिर (चित्र 9), छोटा शिव मन्दिर (चित्र 10), द्विस्तरीय गोपाल मन्दिर (चित्र 11), तारापुर हवारवाना मन्दिर (चित्र 12) जैसे अनेक भव्य मन्दिर पूरे क्षेत्र में फैले हैं। इनका निर्माण सत्रहवीं व अठारहवीं सदी में हिन्दू राजाओं ने करवाया था। आज इन मन्दिरों का रखरखाव, पूजा-अर्चना आदि एक बड़ी समस्या है। वहां कट्टरपंथी आक्रमणों से मन्दिरों की सुरक्षा भी एक गम्भीर चुनौती है।
पुठिया राजशाही के इन मन्दिरों से लेकर पूर्व में इण्डोनेशिया तक और भारत के पश्चिम में अफगानिस्तान, पाकिस्तान व पूर्वी ईरान तक के मन्दिरों का विस्तृत सर्वेक्षण व उनका सूचीयन आज परम आवश्यक है। लेबनान के बालबेक के मन्दिरों, सीरिया व टर्की के हिन्दू राजाओं के शिलालेखों में देवी-देवताओं के उल्लेख व सर्न्दभों जैसे अनगिनत पुरावशेषों का सूचीयन भी आवश्यक है। विश्व के सांस्कृतिक इतिहास की सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्या हेतु हिन्दू संस्कृति के पुरावशेषों का संकलन परम आवश्यक है।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
टिप्पणियाँ