गोवा को आजाद कराने में रा.स्व.संघ के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे ही एक निष्ठावान कार्यकर्ता थे बलिदानी राजा भाऊ महाकाल, जो गांव-गांव से सैकड़ों युवाओं को एकत्रित कर गोवा ले गए
वर्ष 1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ हो या ‘गोवा का मुक्ति संग्राम’ या कश्मीर में ‘एक निशान एक प्रधान’ का आंदोलन, जब कभी भी भारत के किसी अंग ने दर्द महसूस किया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने आसेतु हिमाचल उस दर्द को महसूस किया और देश की बलिवेदी पर अपने प्राण अर्पित किए। संघ के ऐसे ही एक निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ता थे राजा भाऊ महाकाल। महाकाल उज्जैन के निवासी थे। परंतु पूरा देश ही उनका घर था। 18 जून, 1946 को गोवा मुक्ति संग्राम की औपचारिक घोषणा हुई थी। इस दिन डॉ. राम मनोहर लोहिया ने मडगांव में जो भाषण दिया, वह मुक्ति का शंख निनाद बन गया। परंतु इस संघर्ष को गति कुछ वर्ष उपरांत मिली।
अखंड राष्ट्रभक्ति
1954 में जयवंतराव तिलक की अध्यक्षता में पुणे में गोवा विमोचन समिति का गठन किया गया। गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराना सारे देश का काम है, इस बात से प्रेरित होकर राजा भाऊ ने मध्य भारत के देश भक्तों की ओर से आंदोलन के आह्वान को स्वीकार किया। गांव-गांव से उन्होंने राष्ट्रवादी युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। सभी सत्याग्रही एक साथ गोवा जाएं, इसके लिए राजा भाऊ ने पहले सभी को उज्जैन स्थित अपने घर पर ठहराया। ‘अतिथि देवो भव’ का आदर्श सामने रखकर राजा भाऊ ने बड़े भाई विश्वनाथ महाकाल व उनकी धर्मपत्नी मालती बाई महाकाल के साथ इन सभी राष्ट्र भक्त युवकों के निवास व भोजन की व्यवस्था सुचारू रूप से की। देवास, सोनकच्छ, बागली आदि स्थानों से सैकड़ों कार्यकर्ता उज्जैन आए।
9 अगस्त, 1955 को अपने गृहनगर में बड़े भाई, बहन व भाभी मालती बाई महाकाल व अन्य नेही मित्रों से विदा लेते समय इस आत्मबलिदानी को पूर्वाभास हो गया था, शायद इसलिए उन्होंने अपने परम मित्र व सहयोगी विश्व विख्यात पुरातत्ववेत्ता पद्मश्री श्रीधर विष्णु वाकणकर को इस जत्थे का नेतृत्व करने से रोका और कहा कि राजा भाऊ को आत्मबलिदान करने दो, देश को आपसे काफी उम्मीदें हैं। राजा भाऊ सैकड़ों सत्याग्रहियों के साथ इंदौर की ओर चल पड़े। सत्याग्रही अखंड भारत व भारत माता की जय के गगनभेदी नारे लगा रहे थे। इंदौर में राजा भाऊ की बहनों ने कुमकुम लगा कर जत्थे की आरती उतारी। 10 अगस्त, 1955 को इंदौर के ऐतिहासिक राजवाड़े के पास सुभाष चौक पर गोवा जाने के उद्देश्य तथा गोवा मुक्ति आंदोलन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया।
इसके बाद सत्याग्रहियों को लेकर राजा भाऊ गोवा विमोचन समिति के मुख्यालय पुणे गए, जहां आंदोलन की रूपरेखा बनी थी। पुणे से कसरलाल के रास्ते पोण्डा होते हुए पत्रादेवी सीमा स्थान से गोवा सीमा में प्रवेश करने का आदेश मिला। उन्होंने साथियों के साथ गोवा की ओर प्रस्थान किया, तब तत्कालीन केंद्र सरकार के आदेश पर मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने गोवा की ओर जाने वाली बसें व रेलें बंद करवा दीं। लेकिन आत्मबलिदान, अदम्य लालसा व राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत सत्याग्रही पैदल ही कसरलाल के 15 बांगदे पार कर गए और निकट की बहुत बड़ी खाई को पारकर पत्रादेवी की ओर चल दिए। पत्रादेवी महाराष्ट्र और गोवा की सीमा पर स्थित है। जत्थे के पत्रादेवी पहुंचने के पूर्व ही गोवा के क्रांतिकारियों श्री राणे, मोहन रानाडे, बालाजी पेंडाकर, मधु दंडवते, विश्वनाथ लंबदे आदि ने बरार सलाजार शाही के खिलाफ इस सत्याग्रही जत्थे का स्वागत करते हुए उनके प्रति आस्था प्रकट कर गोवा मुक्ति आंदोलन के बारे में जानकारी दी।
भारतीय स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त, 1955 को एक ओर दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराया जाने वाला था, दूसरी ओर राष्ट्र प्रेमी नवयुवकों का जत्था आत्म आहूति देने की उमंग लिए हाथों में तिरंगा थामे पत्रादेवी की ओर बढ़ने लगा। इन सत्याग्रहियों के साथ सैकड़ों नागरिक थे। जैसे ही जत्था पत्रादेवी के पास पहुंचा, पुर्तगालियों की बर्बर सेना ने उस पर भारी गोलीबारी शुरू कर दी। इस गोलीबारी के बीच राजा भाऊ तिरंगा लेकर गोवा की सीमा में घुस गए। इस निहत्थे सेनानी पर भारी गोली बारी की गई। सिर में तीन गोलियां लगने के बावजूद उन्होंने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मुझे तो कंकड़ लगे हैं। आगे बढ़ो, तिरंगा गिरने न पाए।’’ भारत माता का जयघोष करते हुए घायल राजा भाऊ शेर की भांति और अधिक जोश में गोवा की सीमा में बढ़ने लगे।
‘गोवा की मुक्ति के लिए शस्त्र लेकर आओ’
वि. स. विनोद
वर्ष 1955 की बात है। हम मेरठ से सत्याग्रहियों का एक जत्था लेकर गोवा जा रहे थे। इस जत्थे में गजाधर तिवारी वैद्य, महावीर प्रसाद शशि, रामनिवास गोयल तथा हरिजन नेता देवी दयाल सेन व कई अन्य व्यक्ति थे। बंबई पहुंचने पर अपने प्रेरणा स्रोत तथा महान क्रांतिकारी स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी का आशीर्वाद लेने सावरकर सदन पहुंचे। सावरकर जी के निजी सचिव बालाराव सावरकर ने उनसे हमारा परिचय कराया। मेरठ का नाम सुनते ही सावरकर जी ने कहा, ‘‘आप तो वीर भूमि मेरठ के निवासी हैं।’’ हमने कहा, ‘‘हम गोवा मुक्ति संग्राम में भाग लेने जा रहे हैं। आपका आशीर्वाद लेने आए हैं।’’ वे एकाएक गंभीर हो गए। बोले- ‘‘गोवा को पुर्तगालियों के चंगुल से मुक्त कराने का कार्य तो हमारी सरकार को करना चाहिए था। वहां सेना भेजकर यह राष्ट्रीय कार्य सम्पन्न किया जा सकता था।’’ फिर कुछ देर रुककर बोले, ‘‘आप लोग सशस्त्र पुर्तगालियों का सामना निहत्थे कैसे करोगे? जाना ही था तो शस्त्र लेकर जाते।’’ फिर कुछ देर मौन रह कर बोले, ‘‘वैसे राष्ट्रीय कार्य में जा रहे हो। मेरी शुभकामनाएं आप लोगों के साथ हैं। गोवा किसी भी तरह स्वाधीन होना चाहिए।’’
सावरकर जी के इन शब्दों में सैन्य शक्ति के उपयोग के बारे में उनकी दृढ़ भावना परिलक्षित हो रही थी। मुझे 1944 में किया उनका आह्वान याद आ गया, जब उन्होंने अधिक से अधिक हिंदुओं को सेना में भर्ती होने की प्ररेणा दी थी। उस समय कांग्रेसी नेताओं ने उनके इस निर्णय का विरोध किया तो उन्होंने कहा था, ‘‘अंग्रजों की भारतीय सेना में यदि हिंदुओं का बाहुल्य रहा तो वे समय आने पर अपनी बंदूकें साम्राज्यवादियों के खिलाफ तान सकते हैं। यही हिंदू सैनिक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सेनानी सिद्ध होंगे।’’इसके बाद सावरकर जी ने भविष्यवाणी की थी यदि भविष्य में जिन्ना आदि भारत विभाजन के षड्यंत्र में सफल हो गए, तब भी हिंदू सैनिक अपनी अहम भूमिका अदा कर सकेंगे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सावरकर जी की प्रेरणा से विदेश जाकर आजाद हिंद फौज की स्थापना करने के बाद कहा था, ‘‘सावरकर जी का यह आह्वान आज हमारे लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है।
हमारी आजाद हिंद सेना में अंग्रेजों की फौज के भारतीय सैनिक ही तो भर्ती हो रहे हैं।’’ इसके बाद भारत विभाजन के समय भी हिंदू सैनिकों के कारण लाखों हिंदुओं के प्राणों की रक्षा संभव हो पाई थी। सामाजिक क्रांति के अग्रदूत मेरे जीवन को जिन दो महापुरुषों ने सर्वाधिक प्रभावित किया उनमें एक थे महर्षि दयानंद सरस्वती तथा दूसरे वीर सावरकर। छात्र जीवन में ही मैंने चंद्रगुप्त वेदालंकार लिखित ‘वीर सावरकर’ जीवनी पढ़ी थी। इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि एक महान क्रांतिकारी देशभक्त एक महान समाज सुधारक भी हो सकता है।
सावरकर जी शायद पहले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अस्पृश्यता जैसे कलंक के खिलाफ न केवल दृढ़तापूर्वक आवाज बुलंद की थी, बल्कि रत्नागिरी में एक ऐसे मंदिर की स्थापना की थी जिसका पुजारी एक वाल्मिकि (हरिजन) था। उन्होंने अंदमान में बंदी रहते हुए भी हिंदी के प्रचार के साथ विधर्मी बनाए गए बंदियों को शुद्ध करके हिंदूधर्म में दीक्षित करके शुद्धि की पावन गंगा प्रवाहित की थी। महर्षि दयानंद सरस्वती तथा वीर सावरकर के विचारों से प्रभावित होकर मैं आर्य समाज के साथ-साथ हिंदू महासभा के माध्यम से अस्पृश्यता निवारण के हिंदू संगठन के कार्य में सक्रिय हुआ।
बुद्ध की जगह युद्ध1957 में दिल्ली में 1857 स्वातंत्र्य समर की शताब्दी मनाई गई तो उस ऐतिहासिक समारोह की अध्यक्षता करने वीर सावरकर जी पधारे थे। उस समय उन्होंने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था, ‘‘आज स्वाधीन भारत को बुद्ध या युद्ध में से एक को चुनना होगा। चीन व पाकिस्तान हमारे लिए चुनौती बने हुए हैं।’’ 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तो हमें पांच वर्ष पहले वीर सावरकर जी द्वारा की गई भविष्यवाणी याद आ गई। आज देश असम की भयावह स्थिति से चिंतित हैं। सावरकर जी ने 1960 में ही इस खतरे की भविष्यवाणी कर दी थी। असम में घुसपैठ करके उसे मुस्लिम बहुल बनाकर पाकिस्तान में मिलाने का षड्यंत्र चल रहा है। वीर सावरकर देश को सैनिक दृष्टि से अत्यंत शक्तिशाली देखना चाहते थे। उनके इस सपने को पूरा करके ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धाजंलि अर्पित कर सकते है।
600 मील पैदल यात्रा
गोवा की स्वतंत्रता के लिए प्राणाहूत कर देने वाले अमर बलिदानी राजा भाऊ का जन्म 16 जनवरी, 1923 को उज्जैन में महाकालेश्वर के पुजारी वेदमूर्ति बलवंत भट्ट महाकाल के यहां हुआ था। पिता बलवंत भट्ट और माता अन्नपूर्णा बाई, दोनों ही धार्मिक विचारों के थे। पारिवारिक वातावरण के प्रभाव का ही नतीजा था कि यज्ञोपवीत संस्कार के पूर्व ही राजा भाऊ ने गीता, ललित सहस्रानाम और उपनिषदों के सैकड़ों श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। पिता का साया राजा भाऊ पर अधिक समय तक नहीं रहा। इसके बाद बड़े भाई विशंभरनाथ महाकाल व उनकी पत्नी मालती बाई ने उन्हें संभाला।
बड़े भाई से अनेक क्रांतिकारियों की वीरगाथाएं सुनकर उनके मन में क्रांति का बीज अंकुरित हुआ। इसके बाद उन्होंने अच्युतानंद गुरु व्यामशाला में मलखंभ योग और शस्त्र चलाना सीखा। क्षिप्रा नदी में घंटों तैरना तथा मंदिर में ध्यान-योग करना राजाभाऊ की दिनचर्या थी।
1940 में संघ शाखाओं से उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हुई। राजा भाऊ की संगठन क्षमता को तत्कालीन संघ प्रचारक दिगम्बर तिजारे व भय्याजी दाणी ने पहचाना और उन्हें प्रचारक बनाकर शाजापुर, देवास व आगरा भेजा गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने दिल्ली की सड़कों पर सैकड़ों सत्याग्रहियों के साथ प्रदर्शन किया। फलस्वरूप, उन्हें दिल्ली व फिरोजपुर के न्यायालयों ने 5 माह की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी। उन्होंने बंगाल के बाढ़ पीड़ितों के लिए राष्टÑीय सहायता कोष में देवास व शाजापुर के एक-एक गांव से आपर धन संग्रह किया और बंगाल शासन को भेजा।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब कश्मीर मुद्दे पर युवाओं से सत्याग्रह का आह्वान किया तो राजा भाऊ अपने साथियों सहित 600 मील पैदल चलकर दिल्ली पहुंच गए। तब डॉ. मुखर्जी ने उन्हें गले लगाते हुए सार्वजनिक रूप से कहा कि ऐसे उत्साही राष्ट्रभक्त के होते देश में ‘दो निशान, दो प्रधान’ कभी नहीं चल सकते हैं। इस सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें जेल यातना भी भोगनी पड़ी।
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