जलवायु और स्वास्थ्य पर संयुक्त अरब अमीरात घोषणापत्र जारी किया गया। भारत ने इस समझौते को अव्यावहारिक करार देते हुए इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में शीतलन से हो रहे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने पर जोर दिया गया है।
इन दिनों दुबई में विश्व के 70,000 जलवायु कार्यकर्ता, राजनयिक और प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष पर्यावरणीय संकट के समाधान पर मंथन कर रहे हैं। 28 नवंबर से 12 दिसंबर तक चलने वाला यह जलवायु सम्मेलन भारत की जलवायु कूटनीति के साथ वैश्विक मंचों पर असरदार उपस्थिति के लिए जाना जाएगा। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का पहला सम्मेलन 1995 में जर्मनी के बर्लिन में हुआ था, जो अब 28वें संस्करण में पहुंच चुका है। इस बार राष्ट्र जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के 28वें कांफ्रेंस आॅफ पार्टीज (कॉप-28) में 16 अलग-अलग विषय चर्चा के केंद्र में हैं। इनमें पर्यावरणीय संकट के समाधान के लिए अनुकूलन, जलवायु वित्त, शिक्षा एवं युवा, नवाचार, लैंगिक समानता, विज्ञान, समुद्र, कार्बन बाजार और दक्षता संवर्धन प्रमुख हैं।
घोषणापत्र से भारत असहमत
इस सम्मेलन में 2 दिसंबर, 2023 को जलवायु और स्वास्थ्य पर संयुक्त अरब अमीरात घोषणापत्र जारी किया गया। भारत ने इस समझौते को अव्यावहारिक करार देते हुए इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में शीतलन से हो रहे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने पर जोर दिया गया है। इन प्रावधानों का क्रियान्यवन अविकसित, विकासशील एवं छोटे देशों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा खड़ी कर सकते हैं। केन्या समेत कई छोटे देशों के प्रतिनिधियों ने इस पर अपनी चिंता जताई है। आज भी विश्व के कई देशों के दूरस्थ इलाकों में दवाओं की पहुंच सुनिश्चित करने में शीतलन सेवाएं अत्यंत प्रभावी हैं। इसी तरह, भारत ने 2030 तक अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में तीन गुना वृद्धि से जुड़े समझौते से स्वयं को अलग कर लिया है। इस संकल्प-पत्र में कोयले में नए निवेश पर रोक लगाने की बात कही गई है।
भारत पहले ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान कार्यक्रम (एनडीसी) के जरिए बता चुका है कि इस दशक के अंत तक 500 गीगावाट बिजली उत्पादन अक्षय ऊर्जा स्रोतों से होगा। अभी नवीकरणीय स्रोत से 179 गीगावाट से अधिक बिजली उत्पादन हो रहा है। ऐसे में गैर-जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा के नए और अव्यवहारिक लक्ष्यों से दूरी बनाकर भारत ने वैश्विक दक्षिण की ऊर्जा सुरक्षा को वरीयता दी है। सही मायने में भारत की नीति समान, किन्तु विभेदनकारी दायित्व (सीबीडीआर) को मजबूती देने वाली है। इसमें प्रत्येक देश के लिए समान, किन्तु अलग-अलग दायित्व परिभाषित किए जाने की बात कही गई थी।
‘ग्लोबल साउथ’ की अगुआई
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 दिसंबर को ‘ट्रांसफॉर्मिंग क्लाइमेट फाइनेंस’ पर कॉप-28 के प्रेसीडेंसी सत्र को संबोधित किया। इसमें उन्होंने ग्लोबल साउथ की चिंताओं को व्यक्त किया और विकासशील देशों को अपनी जलवायु महत्वाकांक्षाएं हासिल करने और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को लागू करने के लिए कार्यान्वयन के साधन, विशेष रूप से जलवायु वित्त उपलब्ध कराने की तात्कालिकता दोहराई। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ग्लोबल साउथ के देशों पर जलवायु परिवर्तन का व्यापक प्रभाव पड़ा है। हम सभी जानते हैं कि भारत सहित इन देशों की जलवायु परिवर्तन में छोटी भूमिका है, लेकिन उन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बहुत अधिक है। संसाधनों की कमी के बावजूद, ये देश जलवायु कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जलवायु वित्त व प्रौद्योगिकी जरूरी हैं।
धरती का स्वास्थ्य कार्ड बनेगा ग्रीन क्रेडिट
एक ओर पश्चिम और यूरोपीय देश जलवायु संकट पर सिर्फ चिंता जाहिर करने तक सीमित हैं। वहीं, भारत दुनिया के लिए जलवायु न्याय का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। सदियों से भारत की प्रकृति अनुकूल जीवनशैली एक बार फिर पर्यावरणीय संकट के समाधान के रूप में स्वीकार की जा रही है। इसी क्रम में भारत ने कॉप-28 में कार्बन सिंक बनाने के लिए ग्रीन के्रडिट कार्यक्रम का प्रस्ताव दिया है। घरेलू मोर्चे पर भारत पहले ही पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली (लाइफ मिशन) को प्रोत्साहित करने के लिए हरित साख कार्यक्रम (ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम) अधिसूचित कर चुका है।
इसके अंतर्गत व्यक्तियों, समुदाय, निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों को पर्यावरण संवर्धन से हरित साख सृजित करने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह हरित साख खरीदी और बेची जा सकती है। यह बाजार आधारित एक ऐसा अभिनव तंत्र है, जिसका एक वस्तु के रूप में आदान-प्रदान संभव है। भारत द्वारा प्रस्तावित ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम कार्बन बाजार की कमियों को भी दूर करता है। कार्बन सीमा समायोजन तंत्र के नाम पर यूरोपीय संघ के संरक्षणवादी कदम किसी से छिपे नहीं हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुबई जलवायु सम्मेलन के मंच से ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम प्रस्तावित करते हुए दुनिया को एक महत्वपूर्ण संदेश भी दिया है। उन्होंने कहा कि जिस तरह लोग अपने हेल्थ कार्ड को महत्व देते हैं, अब समय आ गया है कि हम पर्यावरण को लेकर भी उसी तरह सोचना शुरू करें। पृथ्वी के स्वास्थ्य कार्ड में हर उस सकारात्मक पहल को स्थान देना होगा, जो सामुदायिक और समावेशी हो। भारत में लागू किए जा रहे हरित साख कार्यक्रम में वृक्षारोपण, जल संरक्षण एवं संवर्धन, संधारणीय कृषि, अपशिष्ट प्रबंधन, वायु प्रदूषण में कमी, मैंग्रोव संरक्षण एवं पुनर्स्थापना, इको मार्क आधारित प्रयास और संधारणीय भवन एवं बुनियादी ढांचे को शामिल किया गया है। एक कदम आगे बढ़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने 2028 में होने वाले जलवायु सम्मेलन (कॉप-33) की मेजबानी का प्रस्ताव भी दिया है।
हानि एवं क्षतिपूर्ति कोष का समर्थन
कॉप-28 की एक सबसे बड़ी उपलब्धि हानि एवं क्षतिपूर्ति कोष (लॉस एंड डैमेज फंड) का शुभारंभ है। मिस्र के शर्म अल शेख में पिछले साल आयोजित कॉप-27 में हानि एवं क्षतिपूर्ति कोष के गठन का प्रस्ताव दिया गया था। वर्तमान जलवायु सम्मेलन में औपचारिक रूप से इसकी शुरुआत हो गई है। हानि एवं क्षतिपूर्ति सिद्धांत के तहत ‘हानि’ (लॉस) में जलवायु परिवर्तन से आधारभूत संरचनाओं जैसे सड़क, घर, बंदरगाह आदि को हुए नुकसान का आकलन किया जाता है। वहीं, ‘क्षति’ (डैमेज) के अंतर्गत जलवायु परिवर्तन से उत्पादकता को हुए नुकसान का आकलन होता है।
जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं से उबरने के लिए तय की गई हानि और क्षति का बजट जलवायु वित्त (क्लाइमेट फंड) से अलग है। यह एक तरह से मुआवजे की शक्ल में प्रदान की जाने वाली वह राशि होगी, जिसका इस्तेमाल विकासशील, छोटी व उभरती अर्थव्यवस्थाएं जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से बाहर आने में करेंगी। हालांकि यह क्षतिपूर्ति कोष किस रूप में क्रियान्वयित होगा, इस पर स्पष्टता अभी नहीं है। अस्थायी रूप से विश्व बैंक को इसकी निगरानी सौंपी गई है। 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने हानि और क्षति के सिद्धांत को बाली कार्य योजना के जरिए संज्ञान में लिया था।
मातृ शक्ति की ताकत पहचान रही दुनिया
भारत में मातृ शक्ति पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली का आधार रही है। विश्व जगत से भारत लगातार आह्वान करता रहा है कि जलवायु संकट का समाधान मातृ शक्ति के बिना संभव नहीं है। इस जलवायु सम्मेलन में जेंडर रिस्पांसिव जस्ट ट्रांजिशन एंड क्लाइमेट एक्शन पार्टनरशिप को स्वीकृति मिलना उस भारतीय दर्शन की जीत है, जो आज भी प्रकृति को परिवार मानती है। 64 देशों द्वारा मान्य किए गए इस समझौते के अंतर्गत जस्ट ट्रांजिशन (परंपरागत अर्थव्यवस्था से हरित अर्थतंत्र की ओर पर्यावरण अनुकूल सहज रूपांतरण) के लक्ष्य को पूरा करने में जेंडर बजटिंग को प्राथमिकता दी गई है। इससे महिलाओं के हाथ में जलवायु वित्त और तकनीक की पहुंच बढ़ेगी। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की अगुआई में नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु डाटा संग्रहण, वित्त का प्रभावी वितरण तथा व्यक्तियों व समुदाय का दक्षता संवर्धन प्रमुख है।
भारत ने याद दिलाए वादे
यूएनएफसीसी के जलवायु सम्मेलनों के जरिए कई जलवायु संधियों और वैश्विक समझौतों को अंतिम रूप दिया जा चुका है। पेरिस समझौते के अंतर्गत ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) व्यवस्था अस्तित्व में आई थी। इसके अंतर्गत कांफ्रेंस आफ पार्टिज अर्थात् सदस्य देशों में जलवायु समझौते के क्रियान्वयन की स्थिति पर समय-समय पर समीक्षा की जानी थी। कॉप-28 के दौरान जीएसटी को मूर्त रूप दिया जा रहा है। 2009 में स्थापित भारत की सदस्यता वाले बेसिक समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन) ने साफ शब्दों में कहा है कि विकसित अर्थव्यवस्थाएं कार्बन उत्सर्जन को लेकर पहले अपने पुराने वादों पर अमल करें। उनके ग्लोबल स्टॉकटेक रिकॉर्ड अच्छे नहीं रहे हैं। आज भी अमेरिका और यूरोपीय देशों की तुलना में भारत का कार्बन उत्सर्जन में योगदान बहुत कम है। दुनिया की आबादी में 17 प्रतिशत का योगदान देने के बावजूद संचयी वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन में हमारी ऐतिहासिक हिस्सेदारी निचले स्तर पर है।
2009 में डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में आयोजित 15वें जलवायु सम्मेलन के दौरान इस बात पर सहमति बनी थी कि विकसित देश विकासशील और छोटे देशों के हरित प्रयासों पर सालाना 100 अरब डॉलर खर्च करेंगे। जलवायु वित्त के रूप में यह राशि 2020 तक प्रतिवर्ष खर्च की जानी थी, लेकिन सालाना खर्च होने वाली इस रकम का आंकड़ा लक्ष्य से अभी भी कोसो दूर है। हरित कोष का उपयोग जलवायु लचीलेपन के लिए किया जाना था। अर्थात् कृषि, ऊर्जा परियोजनाओं, अवसंरचना विकास को शून्य कार्बन उत्सर्जन की ओर ले जाने में होने वाले खर्च की भरपाई व प्रोत्साहन इस कोष से होना है। ऐसे में विकासशील और छोटे द्वीपीय देशों को जलवायु में लचीलापन लाने में मदद की आवश्यकता है, न कि भेदभावपूर्ण नीतियों से हांके जाने की।
विकसित और विकासशील देशों के बीच ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में जो खाई है, उसे कम किया जाएगा। इसी सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल में कुछ संशोधन हुए, जिन्हें दोहा संशोधन कहा गया। दुर्भाग्य से आज विकसित देशों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उन्होंने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में विकासशील एवं छोटे देशों की तुलना में कितनी कमी की है।
पूर्व औद्योगिक काल से लेकर अब तक धरती के तापमान में डेढ़ प्रतिशत की हुई वृद्धि को सीमित करने के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं, उसके केंद्र में इन जलवायु सम्मेलनों से निकली संधियां, समझौते और प्रतिबद्धताएं हैं। पेरिस समझौता-2015 के जरिए क्रियान्वित किया जा रहा राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान कार्यक्रम (एनडीसी) हो या फिर 1992 के रियो डी जेनेरियो सम्मेलन से अस्तित्व में आया समान, किन्तु विभेदनकारी दायित्व (सीबीडीआर), इन कदमों ने जलवायु संकट की लड़ाई को मजबूती दी है। बेहतर होगा कि पहले उन घोषणाओं और वादों पर अमल किया जाए, जो पिछले 28 साल के दौरान समय-समय पर दोहराए गए हैं।
पेट्रोल-डीजल और कोयला समेत जीवाश्म ईंधन पर निर्भता कम करने के मुद्दे पर मौजूदा जलवायु सम्मेलन में भी तकरार देखने को मिल रही है। विकसित देश पिछले एक दशक से कोयला आधारित परियोजनाओं पर पूरी तरह रोक लगाने का राग अलाप रहे हैं। भारत ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा के साथ ‘वैश्विक दक्षिण’ की आवाज बनते हुए कोयले पर पूरी तरह निर्भरता खत्म करने के बजाय चरणबद्ध तरीके से कमी लाने की बात दोहराई है। विकसित देश जिस तरह अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के बाद भी जलवायु वित्त और तकनीक स्थानांतरण को लेकर उदासीन हैं, वह जलवायु सम्मेलनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
कतर में 2012 में आयोजित 18वें जलवायु सम्मेलन के दौरान कहा गया था कि विकसित और विकासशील देशों के बीच ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में जो खाई है, उसे कम किया जाएगा। इसी सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल में कुछ संशोधन हुए, जिन्हें दोहा संशोधन कहा गया। दुर्भाग्य से आज विकसित देशों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उन्होंने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में विकासशील एवं छोटे देशों की तुलना में कितनी कमी की है।
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